कार्यपालिका (Executive)
कार्यपालिका (Executive)

कार्यपालिका: संरचना और शक्तियाँ (Executive: Structure & Powers)

विषय-सूची (Table of Contents) 📜

  1. कार्यपालिका का परिचय (Introduction to the Executive)
  2. संघ की कार्यपालिका: राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति (The Union Executive: President and Vice-President)
  3. राष्ट्रपति: चुनाव, शक्तियाँ और कार्य (The President: Election, Powers, and Functions)
  4. उपराष्ट्रपति: एक महत्वपूर्ण संवैधानिक पद (The Vice-President: An Important Constitutional Post)
  5. वास्तविक कार्यकारी: प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद (The Real Executive: Prime Minister and Council of Ministers)
  6. प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद की संरचना और शक्तियाँ (Structure and Powers of PM and Council of Ministers)
  7. राज्य की कार्यपालिका: राज्यपाल और मुख्यमंत्री (The State Executive: Governor and Chief Minister)
  8. राज्यपाल और मुख्यमंत्री की भूमिका (Role of the Governor and Chief Minister)
  9. कार्यपालिका की न्यायिक समीक्षा (Judicial Review of the Executive)
  10. प्रमुख केस स्टडी: इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (Landmark Case Study: Indira Gandhi v. Raj Narain)
  11. निष्कर्ष: एक संतुलित और जवाबदेह प्रणाली (Conclusion: A Balanced and Accountable System)

कार्यपालिका का परिचय (Introduction to the Executive) 🏛️

सरकार के तीन स्तंभ (Three Pillars of Government)

नमस्ते दोस्तों! 👋 आज हम भारतीय राजनीति (Indian Polity) के एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर बात करने जा रहे हैं – ‘कार्यपालिका’। किसी भी लोकतांत्रिक देश की सरकार तीन मुख्य अंगों से मिलकर बनती है: विधायिका (Legislature), कार्यपालिका (Executive), और न्यायपालिका (Judiciary)। विधायिका का काम कानून बनाना है, न्यायपालिका का काम कानूनों की व्याख्या करना और न्याय देना है, और कार्यपालिका का काम उन कानूनों को लागू करना और देश का प्रशासन चलाना है।

कार्यपालिका का अर्थ और महत्व (Meaning and Importance of the Executive)

कार्यपालिका, जिसे अंग्रेजी में ‘एग्जीक्यूटिव’ कहते हैं, सरकार की वह शाखा है जो विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों को जमीनी स्तर पर लागू करती है। यह देश की नीतियों को आकार देती है और दिन-प्रतिदिन के शासन-प्रशासन के लिए जिम्मेदार होती है। सोचिए, अगर कानून सिर्फ किताबों में रह जाएं और उन्हें कोई लागू ही न करे, तो क्या होगा? इसीलिए, एक मजबूत और कुशल कार्यपालिका किसी भी देश के विकास और सुशासन (good governance) के लिए अत्यंत आवश्यक है। 🇮🇳

भारत में कार्यपालिका के प्रकार (Types of Executive in India)

भारत ने संसदीय प्रणाली (parliamentary system) को अपनाया है, जिसमें दो प्रकार की कार्यपालिका होती है – नाममात्र की और वास्तविक। राष्ट्रपति नाममात्र के प्रमुख होते हैं, जबकि प्रधानमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद वास्तविक कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग करते हैं। इसके अलावा, भारत एक संघीय देश है, इसलिए यहाँ केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर कार्यपालिका मौजूद है। केंद्र में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद होते हैं, जबकि राज्यों में राज्यपाल, मुख्यमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद होती है।

इस लेख का उद्देश्य (Objective of this Article)

इस विस्तृत लेख में, हम भारत की संघीय और राज्य कार्यपालिका की संरचना और शक्तियों को गहराई से समझेंगे। हम राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव से लेकर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की भूमिका तक, हर पहलू पर विस्तार से चर्चा करेंगे। साथ ही, हम यह भी जानेंगे कि न्यायपालिका कैसे कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है और एक ऐतिहासिक केस ‘इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण’ का भी विश्लेषण करेंगे। तो चलिए, इस ज्ञानवर्धक यात्रा की शुरुआत करते हैं! 🚀

संघ की कार्यपालिका: राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति (The Union Executive: President and Vice-President) 🌟

संघीय कार्यपालिका का परिचय (Introduction to the Union Executive)

भारतीय संविधान के भाग V में अनुच्छेद 52 से 78 तक संघीय कार्यपालिका (Union Executive) का वर्णन किया गया है। यह देश के सर्वोच्च शासन निकाय का प्रतिनिधित्व करती है और पूरे भारत के लिए नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने के लिए जिम्मेदार है। संघ की कार्यपालिका में मुख्य रूप से भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद, और महान्यायवादी (Attorney General) शामिल होते हैं। यह संरचना भारत की एकता और अखंडता का प्रतीक है।

राष्ट्रपति: राष्ट्र के प्रमुख (The President: Head of the Nation)

भारत के राष्ट्रपति राष्ट्र के प्रमुख और भारत के प्रथम नागरिक होते हैं। वे देश की एकता, अखंडता और एकजुटता के प्रतीक हैं। हालांकि भारत में संसदीय प्रणाली है, जिसमें वास्तविक शक्ति प्रधानमंत्री के पास होती है, फिर भी राष्ट्रपति का पद अत्यंत सम्मानजनक और महत्वपूर्ण है। सभी कार्यकारी कार्य औपचारिक रूप से राष्ट्रपति के नाम पर ही किए जाते हैं। उनका पद ब्रिटिश सम्राट/साम्राज्ञी के समान है, लेकिन भारत के राष्ट्रपति निर्वाचित होते हैं, वंशानुगत नहीं।

उपराष्ट्रपति: दूसरा सर्वोच्च पद (The Vice-President: The Second Highest Office)

राष्ट्रपति के बाद, भारत के उपराष्ट्रपति देश का दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पद धारण करते हैं। उपराष्ट्रपति का मुख्य कार्य राज्यसभा (Council of States) के पदेन सभापति के रूप में कार्य करना है। इसके अलावा, जब राष्ट्रपति का पद मृत्यु, त्यागपत्र, महाभियोग या अन्य कारणों से रिक्त हो जाता है, तो उपराष्ट्रपति ही कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करते हैं। यह पद अमेरिकी उपराष्ट्रपति के पद से प्रेरित है, लेकिन दोनों की शक्तियों में काफी अंतर है।

राष्ट्रपति: चुनाव, शक्तियाँ और कार्य (The President: Election, Powers, and Functions) 🗳️

राष्ट्रपति का चुनाव: एक अप्रत्यक्ष प्रक्रिया (Election of the President: An Indirect Process)

भारत के राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता द्वारा नहीं किया जाता है। उनका चुनाव एक निर्वाचक मंडल (electoral college) द्वारा किया जाता है, जिसमें संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के निर्वाचित सदस्य और सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों (दिल्ली और पुडुचेरी) की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं। यह अप्रत्यक्ष चुनाव यह सुनिश्चित करता है कि राष्ट्रपति पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करें, न कि किसी एक दल का।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (Proportional Representation System)

राष्ट्रपति का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (system of proportional representation) के अनुसार एकल संक्रमणीय मत (single transferable vote) के माध्यम से होता है। इस प्रणाली में, प्रत्येक मतदाता अपनी पसंद के अनुसार उम्मीदवारों को वरीयता (preference) देता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विजेता उम्मीदवार को वोटों का एक निश्चित कोटा (quota) प्राप्त हो, जिससे वह बहुमत का प्रतिनिधित्व कर सके। यह प्रक्रिया थोड़ी जटिल है लेकिन यह विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधित्व में एकरूपता लाती है।

राष्ट्रपति पद के लिए योग्यताएं (Qualifications for the Presidential Office)

संविधान के अनुच्छेद 58 के अनुसार, राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने के लिए कुछ योग्यताएं आवश्यक हैं। व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए, उसकी आयु 35 वर्ष से अधिक होनी चाहिए, और उसे लोकसभा का सदस्य चुने जाने के योग्य होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, उसे केंद्र सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद (office of profit) पर नहीं होना चाहिए। ये योग्यताएं यह सुनिश्चित करती हैं कि इस सर्वोच्च पद पर एक अनुभवी और योग्य व्यक्ति ही पहुंचे।

राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियाँ (Executive Powers of the President)

राष्ट्रपति संघ की कार्यपालिका के प्रमुख होते हैं। भारत सरकार के सभी कार्यकारी निर्णय उन्हीं के नाम पर लिए जाते हैं। वे प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करते हैं, और वे प्रधानमंत्री की सलाह पर ही कार्य करते हैं। इसके अलावा, वे भारत के महान्यायवादी, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG), मुख्य चुनाव आयुक्त, संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) के अध्यक्ष और सदस्यों, राज्यपालों और वित्त आयोग के अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियाँ करते हैं।

विधायी शक्तियाँ: संसद का अभिन्न अंग (Legislative Powers: An Integral Part of Parliament)

राष्ट्रपति भारतीय संसद का एक अभिन्न अंग होते हैं। वे संसद के सत्रों को आहूत (summon) और सत्रावसान (prorogue) कर सकते हैं और लोकसभा को भंग भी कर सकते हैं। कोई भी विधेयक (bill) उनकी सहमति के बिना कानून नहीं बन सकता। जब संसद का सत्र नहीं चल रहा हो, तो वे अध्यादेश (ordinance) जारी कर सकते हैं, जिसकी शक्ति संसद द्वारा बनाए गए कानून के बराबर होती है। वे राज्यसभा में 12 सदस्यों को भी मनोनीत करते हैं जो साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा में विशेषज्ञ होते हैं।

वित्तीय और न्यायिक शक्तियाँ (Financial and Judicial Powers)

वित्तीय मामलों में, राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना कोई भी धन विधेयक (money bill) लोकसभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। वे भारत की आकस्मिकता निधि (Contingency Fund of India) से अप्रत्याशित व्यय के लिए अग्रिम धनराशि दे सकते हैं। न्यायिक शक्तियों के तहत, राष्ट्रपति को किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति की सजा को क्षमा करने, कम करने या निलंबित करने की शक्ति (power to pardon) प्राप्त है। इसमें मृत्युदंड की सजा भी शामिल है।

सैन्य और राजनयिक शक्तियाँ (Military and Diplomatic Powers)

भारत के राष्ट्रपति भारतीय सशस्त्र बलों (सेना, नौसेना और वायु सेना) के सर्वोच्च कमांडर (Supreme Commander) होते हैं। वे युद्ध की घोषणा कर सकते हैं या शांति की घोषणा कर सकते हैं, लेकिन यह सब संसद की मंजूरी के अधीन होता है। राजनयिक क्षेत्र में, सभी अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ और समझौते राष्ट्रपति के नाम पर किए जाते हैं। वे विदेशों में भारतीय राजदूतों और उच्चायुक्तों की नियुक्ति करते हैं और विदेशी राजदूतों का स्वागत करते हैं, जो भारत की वैश्विक उपस्थिति को दर्शाता है।

आपातकालीन शक्तियाँ (Emergency Powers)

संविधान राष्ट्रपति को तीन प्रकार की आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए असाधारण शक्तियाँ प्रदान करता है। अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency), अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन (President’s Rule), और अनुच्छेद 360 के तहत वित्तीय आपातकाल (Financial Emergency)। इन शक्तियों का प्रयोग केवल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही किया जा सकता है और इनका उद्देश्य देश की संप्रभुता, सुरक्षा और वित्तीय स्थिरता की रक्षा करना है।

महाभियोग: पद से हटाने की प्रक्रिया (Impeachment: The Removal Process)

राष्ट्रपति को उनके पद से केवल ‘संविधान के उल्लंघन’ के आधार पर महाभियोग (impeachment) की प्रक्रिया द्वारा हटाया जा सकता है। महाभियोग का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में शुरू किया जा सकता है। जिस सदन में प्रस्ताव लाया जाता है, उसके एक-चौथाई सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए और राष्ट्रपति को 14 दिन का नोटिस देना होता है। यदि वह सदन कुल सदस्यता के दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित कर देता है, तो इसे दूसरे सदन में भेजा जाता है, जो आरोपों की जांच करता है।

महाभियोग प्रक्रिया का समापन (Conclusion of Impeachment Process)

दूसरे सदन में जांच के दौरान राष्ट्रपति को अपना पक्ष रखने का अधिकार होता है। यदि जांच के बाद दूसरा सदन भी अपनी कुल सदस्यता के कम से कम दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित कर देता है, तो राष्ट्रपति को प्रस्ताव पारित होने की तारीख से पद से हटा दिया जाता है। यह एक बहुत ही कठोर प्रक्रिया है और भारत के इतिहास में आज तक किसी भी राष्ट्रपति पर महाभियोग नहीं लगाया गया है। यह प्रक्रिया राष्ट्रपति पद की गरिमा और स्थिरता को सुनिश्चित करती है।

उपराष्ट्रपति: एक महत्वपूर्ण संवैधानिक पद (The Vice-President: An Important Constitutional Post) 📜

उपराष्ट्रपति का चुनाव (Election of the Vice-President)

उपराष्ट्रपति का चुनाव भी राष्ट्रपति की तरह ही अप्रत्यक्ष रूप से होता है। इनके निर्वाचक मंडल में संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के निर्वाचित और मनोनीत दोनों सदस्य शामिल होते हैं। इसमें राज्य विधानसभाओं के सदस्य शामिल नहीं होते हैं। इनका चुनाव भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है। यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि उपराष्ट्रपति को भी व्यापक संसदीय समर्थन प्राप्त हो।

उपराष्ट्रपति पद की योग्यताएं (Qualifications for the Vice-President’s Office)

उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए योग्यताएं लगभग राष्ट्रपति के समान ही हैं। उन्हें भारत का नागरिक होना चाहिए, 35 वर्ष की आयु पूरी कर लेनी चाहिए, और वे राज्यसभा का सदस्य चुने जाने के योग्य होने चाहिए। एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि राष्ट्रपति के लिए लोकसभा का सदस्य होने की योग्यता चाहिए, जबकि उपराष्ट्रपति के लिए राज्यसभा की। उन्हें भी किसी लाभ के पद पर नहीं होना चाहिए। ये मानदंड पद की गरिमा के अनुरूप हैं।

उपराष्ट्रपति के प्रमुख कार्य (Key Functions of the Vice-President)

उपराष्ट्रपति के दो मुख्य कार्य हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण, वे राज्यसभा के पदेन सभापति (ex-officio Chairman) के रूप में कार्य करते हैं। इस भूमिका में, उनकी शक्तियाँ और कार्य लोकसभा अध्यक्ष के समान होते हैं। वे सदन की कार्यवाही का संचालन करते हैं, अनुशासन बनाए रखते हैं और विधेयकों पर मतदान कराते हैं। उनका दूसरा प्रमुख कार्य तब सामने आता है जब राष्ट्रपति का पद किसी कारण से रिक्त हो जाता है।

कार्यवाहक राष्ट्रपति की भूमिका (Role as Acting President)

जब राष्ट्रपति का पद मृत्यु, त्यागपत्र, महाभियोग या अन्य कारणों से खाली हो जाता है, तो उपराष्ट्रपति कार्यवाहक राष्ट्रपति (acting President) के रूप में कार्य करते हैं, जब तक कि नए राष्ट्रपति का चुनाव न हो जाए। नए राष्ट्रपति का चुनाव 6 महीने के भीतर हो जाना चाहिए। कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में, उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति की सभी शक्तियाँ और विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। यह प्रावधान शासन में निरंतरता सुनिश्चित करता है।

उपराष्ट्रपति को पद से हटाना (Removal of the Vice-President)

उपराष्ट्रपति को हटाने की प्रक्रिया राष्ट्रपति के महाभियोग से सरल है। उन्हें हटाने का प्रस्ताव केवल राज्यसभा में ही शुरू किया जा सकता है। यदि राज्यसभा अपने तत्कालीन कुल सदस्यों के बहुमत से प्रस्ताव पारित कर देती है और लोकसभा उससे सहमत हो जाती है, तो उपराष्ट्रपति को पद से हटा दिया जाता है। इस प्रक्रिया के लिए भी 14 दिन का पूर्व नोटिस देना अनिवार्य है। यह प्रक्रिया संसदीय सर्वोच्चता को दर्शाती है।

वास्तविक कार्यकारी: प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद (The Real Executive: Prime Minister and Council of Ministers) 🧑‍💼

संसदीय प्रणाली का सार (The Essence of the Parliamentary System)

जैसा कि हमने पहले चर्चा की, भारत में संसदीय शासन प्रणाली है। इस प्रणाली में, राष्ट्रपति केवल नाममात्र के या संवैधानिक प्रमुख (constitutional head) होते हैं, जबकि वास्तविक कार्यकारी शक्ति प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद (Council of Ministers) के पास होती है। संविधान का अनुच्छेद 74 स्पष्ट रूप से कहता है कि राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होगा, और राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का प्रयोग उसी सलाह के अनुसार करेंगे।

प्रधानमंत्री: सरकार के प्रमुख (Prime Minister: Head of the Government)

प्रधानमंत्री देश की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होते हैं। वे सरकार के प्रमुख होते हैं और देश के शासन की बागडोर संभालते हैं। उनकी भूमिका को ‘समानों में प्रथम’ (first among equals) कहा जाता है, लेकिन व्यवहार में वे कैबिनेट के नेता, संसद के नेता और सत्ताधारी दल के नेता होते हैं, जो उन्हें अत्यधिक शक्तिशाली बनाता है। देश की घरेलू और विदेश नीति को आकार देने में उनकी केंद्रीय भूमिका होती है।

मंत्रिपरिषद: नीतियों का निर्माता (Council of Ministers: The Policy Maker)

मंत्रिपरिषद वह निकाय है जो सामूहिक रूप से देश के लिए नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने का काम करती है। इसमें विभिन्न स्तर के मंत्री होते हैं – कैबिनेट मंत्री, राज्य मंत्री और उपमंत्री। यह मंत्रिपरिषद ही वास्तविक कार्यपालिका (real executive) है। वे संसद के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होते हैं, जिसका अर्थ है कि यदि लोकसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो पूरी मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना पड़ता है।

प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद की संरचना और शक्तियाँ (Structure and Powers of PM and Council of Ministers) 📝

प्रधानमंत्री की नियुक्ति (Appointment of the Prime Minister)

संविधान में प्रधानमंत्री की नियुक्ति के लिए कोई विशिष्ट प्रक्रिया नहीं है। अनुच्छेद 75 केवल यह कहता है कि प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। हालांकि, संसदीय परंपरा के अनुसार, राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही प्रधानमंत्री नियुक्त करते हैं। यदि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है, तो राष्ट्रपति सबसे बड़े दल या गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं और उन्हें एक निश्चित समय के भीतर सदन में अपना बहुमत साबित करने के लिए कहते हैं।

मंत्रिपरिषद का गठन (Formation of the Council of Ministers)

अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह पर की जाती है। प्रधानमंत्री ही यह तय करते हैं कि किसे मंत्री बनाया जाएगा और उन्हें कौन सा विभाग (portfolio) दिया जाएगा। मंत्रियों को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है। कैबिनेट मंत्री सबसे महत्वपूर्ण होते हैं, जो प्रमुख मंत्रालयों के प्रभारी होते हैं और कैबिनेट की बैठकों में भाग लेते हैं। राज्य मंत्री या तो स्वतंत्र प्रभार संभालते हैं या कैबिनेट मंत्रियों की सहायता करते हैं। उपमंत्री प्रशासनिक कार्यों में सहायता करते हैं।

प्रधानमंत्री की शक्तियाँ: मंत्रिपरिषद के संबंध में (Powers of PM: In Relation to the Council of Ministers)

प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद के प्रमुख होते हैं। वे मंत्रियों के बीच विभागों का आवंटन करते हैं और उनमें फेरबदल कर सकते हैं। वे किसी भी मंत्री से इस्तीफा देने के लिए कह सकते हैं या राष्ट्रपति को उसे बर्खास्त करने की सलाह दे सकते हैं। वे मंत्रिपरिषद की बैठकों की अध्यक्षता करते हैं और उसके निर्णयों को प्रभावित करते हैं। यदि प्रधानमंत्री इस्तीफा दे देते हैं या उनकी मृत्यु हो जाती है, तो पूरी मंत्रिपरिषद भंग हो जाती है, जो उनकी केंद्रीय स्थिति को दर्शाता है।

प्रधानमंत्री की शक्तियाँ: राष्ट्रपति के संबंध में (Powers of PM: In Relation to the President)

प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद के बीच संचार की मुख्य कड़ी (principal channel of communication) होते हैं। वे संघ के प्रशासन और कानून के प्रस्तावों से संबंधित मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों से राष्ट्रपति को अवगत कराते हैं। प्रधानमंत्री ही राष्ट्रपति को विभिन्न महत्वपूर्ण अधिकारियों जैसे महान्यायवादी, UPSC अध्यक्ष, चुनाव आयुक्त आदि की नियुक्ति के संबंध में सलाह देते हैं। उनकी सलाह राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी होती है।

प्रधानमंत्री की शक्तियाँ: संसद के संबंध में (Powers of PM: In Relation to the Parliament)

प्रधानमंत्री निचले सदन (लोकसभा) के नेता होते हैं। वे संसद के सत्रों को बुलाने और सत्रावसान करने के संबंध में राष्ट्रपति को सलाह देते हैं। वे किसी भी समय राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर सकते हैं। सदन के पटल पर, वे सरकार की महत्वपूर्ण नीतियों की घोषणा करते हैं। उनकी भूमिका संसद की कार्यवाही को दिशा देने और सरकारी एजेंडे को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण होती है।

मंत्रिपरिषद की सामूहिक जिम्मेदारी (Collective Responsibility of the Council of Ministers)

संसदीय प्रणाली का यह एक मूलभूत सिद्धांत है। अनुच्छेद 75(3) के अनुसार, मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी (collectively responsible) होती है। इसका मतलब है कि सभी मंत्री अपने सभी कार्यों के लिए संयुक्त रूप से जिम्मेदार हैं, चाहे वह उनके विभाग से संबंधित हो या नहीं। वे एक टीम के रूप में काम करते हैं और एक साथ तैरते और डूबते हैं। यदि लोकसभा में किसी एक मंत्री के खिलाफ भी अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो पूरी सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है।

व्यक्तिगत जिम्मेदारी का सिद्धांत (Principle of Individual Responsibility)

सामूहिक जिम्मेदारी के साथ-साथ, मंत्री व्यक्तिगत रूप से भी जिम्मेदार होते हैं। अनुच्छेद 75(2) कहता है कि मंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत (during the pleasure of the President) अपने पद पर बने रहते हैं। व्यवहार में, इसका मतलब है कि प्रधानमंत्री किसी भी मंत्री से, यदि वे उनके प्रदर्शन से संतुष्ट नहीं हैं, इस्तीफा मांग सकते हैं। यह प्रधानमंत्री को अपनी टीम पर प्रभावी नियंत्रण रखने में मदद करता है।

राज्य की कार्यपालिका: राज्यपाल और मुख्यमंत्री (The State Executive: Governor and Chief Minister) 🗺️

राज्य कार्यपालिका की संरचना (Structure of the State Executive)

जिस प्रकार केंद्र में एक संघीय कार्यपालिका है, उसी प्रकार भारत के प्रत्येक राज्य में भी एक राज्य कार्यपालिका (State Executive) है। संविधान के भाग VI में अनुच्छेद 153 से 167 तक राज्य कार्यपालिका का वर्णन है। राज्य की कार्यपालिका में राज्यपाल (Governor), मुख्यमंत्री (Chief Minister), राज्य की मंत्रिपरिषद और राज्य के महाधिवक्ता (Advocate General) शामिल होते हैं। इसकी संरचना काफी हद तक संघीय कार्यपालिका के समान ही है।

राज्यपाल: राज्य का संवैधानिक प्रमुख (The Governor: Constitutional Head of the State)

राज्यपाल राज्य के संवैधानिक या नाममात्र के कार्यकारी प्रमुख होते हैं। वे केंद्र सरकार के एक एजेंट के रूप में भी कार्य करते हैं, इसलिए उनकी दोहरी भूमिका (dual role) होती है। राज्य के सभी कार्यकारी कार्य राज्यपाल के नाम पर ही किए जाते हैं। वे राज्य की शासन व्यवस्था पर नजर रखते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य का शासन संविधान के प्रावधानों के अनुसार चल रहा है।

मुख्यमंत्री: राज्य का वास्तविक प्रमुख (The Chief Minister: Real Head of the State)

जैसे केंद्र में प्रधानमंत्री वास्तविक प्रमुख होते हैं, वैसे ही राज्य में मुख्यमंत्री वास्तविक कार्यकारी प्रमुख होते हैं। वे राज्य सरकार के मुखिया होते हैं। राज्यपाल राज्य विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को मुख्यमंत्री नियुक्त करते हैं। मुख्यमंत्री की स्थिति और शक्तियाँ राज्य स्तर पर काफी हद तक प्रधानमंत्री के समान होती हैं। वे राज्य की मंत्रिपरिषद का नेतृत्व करते हैं और राज्य के प्रशासन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार होते हैं।

राज्यपाल और मुख्यमंत्री की भूमिका (Role of the Governor and Chief Minister) 🤝

राज्यपाल की नियुक्ति (Appointment of the Governor)

राज्यपाल का चुनाव नहीं होता है; उनकी नियुक्ति सीधे भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। वे राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बने रहते हैं, जिसका अर्थ है कि राष्ट्रपति उन्हें कभी भी हटा सकते हैं। आमतौर पर, उनका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। राज्यपाल की नियुक्ति की यह प्रक्रिया अक्सर केंद्र-राज्य संबंधों में विवाद का विषय रही है, क्योंकि कई बार केंद्र सरकार पर अपने राजनीतिक हितों के लिए राज्यपाल के पद का दुरुपयोग करने का आरोप लगता है।

राज्यपाल की कार्यकारी और विधायी शक्तियाँ (Executive and Legislative Powers of the Governor)

राज्यपाल की कार्यकारी शक्तियाँ राज्य तक ही सीमित होती हैं। वे मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करते हैं। वे राज्य के महाधिवक्ता, राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की भी नियुक्ति करते हैं। विधायी शक्तियों के तहत, राज्यपाल राज्य विधानमंडल का एक अभिन्न अंग होते हैं। वे विधानसभा के सत्र बुला सकते हैं, सत्रावसान कर सकते हैं और विधानसभा को भंग कर सकते हैं। राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कोई भी विधेयक उनकी सहमति के बिना कानून नहीं बन सकता।

राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ (Discretionary Powers of the Governor)

राज्यपाल की कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ (discretionary powers) भी होती हैं, जहाँ उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना कार्य करने का अधिकार होता है। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण है किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना और राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता पर राष्ट्रपति शासन (President’s Rule) की सिफारिश करना। ये शक्तियाँ राज्यपाल के पद को बहुत महत्वपूर्ण और कभी-कभी विवादास्पद बना देती हैं।

मुख्यमंत्री की नियुक्ति और भूमिका (Appointment and Role of the Chief Minister)

राज्यपाल उस व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्त करते हैं जिसे राज्य विधानसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त हो। मुख्यमंत्री राज्य की मंत्रिपरिषद का निर्माण करते हैं, मंत्रियों के बीच विभागों का आवंटन करते हैं और उनकी बैठकों की अध्यक्षता करते हैं। वे राज्यपाल और राज्य मंत्रिपरिषद के बीच संचार की मुख्य कड़ी होते हैं। राज्य के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाना और अपनी सरकार की नीतियों को लागू करना उनकी मुख्य जिम्मेदारी है।

मुख्यमंत्री की शक्तियाँ और कार्य (Powers and Functions of the Chief Minister)

मुख्यमंत्री राज्य योजना बोर्ड के अध्यक्ष होते हैं और संबंधित क्षेत्रीय परिषद के उपाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हैं। वे अंतर-राज्य परिषद और राष्ट्रीय विकास परिषद के सदस्य होते हैं, जिनकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं। वे राज्य सरकार के मुख्य प्रवक्ता होते हैं और संकट के समय मुख्य प्रबंधक की भूमिका निभाते हैं। एक कुशल मुख्यमंत्री राज्य के विकास और प्रगति की दिशा तय कर सकता है।

राज्य मंत्रिपरिषद (State Council of Ministers)

राज्य की मंत्रिपरिषद भी केंद्र की तरह ही सामूहिक रूप से राज्य विधानसभा (Legislative Assembly) के प्रति उत्तरदायी होती है। इसका मतलब है कि सरकार को विधानसभा में बहुमत बनाए रखना होता है। यदि सरकार विधानसभा में विश्वास मत खो देती है, तो मुख्यमंत्री सहित पूरी मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना पड़ता है। यह राज्य स्तर पर भी संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांत को मजबूत करता है।

कार्यपालिका की न्यायिक समीक्षा (Judicial Review of the Executive) ⚖️

न्यायिक समीक्षा का अर्थ (Meaning of Judicial Review)

न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) वह शक्ति है जिसके तहत न्यायपालिका (Judiciary) विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों और कार्यपालिका द्वारा किए गए कार्यों की संवैधानिकता की जांच कर सकती है। यदि सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय यह पाते हैं कि कोई कानून या कार्यकारी आदेश संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करता है, तो वे उसे असंवैधानिक और शून्य (unconstitutional and void) घोषित कर सकते हैं। यह शक्ति संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण है।

कार्यकारी आदेशों की समीक्षा (Review of Executive Orders)

न्यायिक समीक्षा केवल कानूनों तक ही सीमित नहीं है, यह कार्यपालिका के कार्यों और आदेशों पर भी लागू होती है। राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा जारी किए गए अध्यादेश, सरकारी नीतियां, प्रशासनिक निर्णय और नियम सभी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आते हैं। यदि कोई कार्यकारी आदेश मनमाना (arbitrary), तर्कहीन है या मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) का उल्लंघन करता है, तो अदालतें उसमें हस्तक्षेप कर सकती हैं।

न्यायिक समीक्षा का महत्व (Importance of Judicial Review)

न्यायिक समीक्षा लोकतंत्र में शक्तियों के पृथक्करण (separation of powers) और नियंत्रण और संतुलन (checks and balances) के सिद्धांत को मजबूत करती है। यह कार्यपालिका को अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने और तानाशाह बनने से रोकती है। यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है और यह सुनिश्चित करती है कि सरकार संविधान की सीमाओं के भीतर ही काम करे। यह कानून के शासन (rule of law) को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है।

न्यायिक सक्रियता और न्यायिक समीक्षा (Judicial Activism and Judicial Review)

हाल के दशकों में, भारतीय न्यायपालिका ने न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) का प्रदर्शन किया है, जहाँ उसने सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए पारंपरिक भूमिका से आगे बढ़कर काम किया है। जनहित याचिकाओं (Public Interest Litigation – PIL) के माध्यम से, न्यायपालिका ने कार्यपालिका को पर्यावरण संरक्षण, मानवाधिकार और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर कार्रवाई करने के लिए निर्देशित किया है। यह न्यायिक समीक्षा का ही एक विस्तारित रूप है।

न्यायिक समीक्षा की सीमाएं (Limitations of Judicial Review)

हालांकि न्यायिक समीक्षा बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इसकी कुछ सीमाएं भी हैं। अदालतें केवल कानून या प्रक्रिया के प्रश्न पर ही हस्तक्षेप कर सकती हैं, वे सरकार के नीतिगत निर्णयों की बुद्धिमत्ता पर सवाल नहीं उठा सकतीं। न्यायपालिका खुद से किसी मामले का संज्ञान नहीं ले सकती; उसे किसी व्यक्ति या समूह द्वारा याचिका दायर करने का इंतजार करना पड़ता है। इसके अलावा, न्यायिक समीक्षा एक समय लेने वाली और महंगी प्रक्रिया हो सकती है।

प्रमुख केस स्टडी: इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (Landmark Case Study: Indira Gandhi v. Raj Narain) 👨‍⚖️

मामले की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background of the Case)

यह मामला भारतीय लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण और विवादास्पद मामलों में से एक है। इसकी जड़ें 1971 के लोकसभा चुनाव में थीं, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से अपने प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को हराया था। चुनाव हारने के बाद, राज नारायण ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने इंदिरा गांधी पर चुनाव जीतने के लिए भ्रष्ट सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला (The Landmark Judgment of Allahabad High Court)

12 जून, 1975 को, न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। उन्होंने इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार (electoral malpractices) का दोषी पाया और उनके चुनाव को अमान्य घोषित कर दिया। अदालत ने उन्हें छह साल के लिए किसी भी निर्वाचित पद पर रहने से भी रोक दिया। इस फैसले ने भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया और देश को एक अभूतपूर्व संवैधानिक संकट में डाल दिया। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और कार्यपालिका पर उसके नियंत्रण का एक शक्तिशाली प्रदर्शन था।

आपातकाल की घोषणा और 39वां संशोधन (Declaration of Emergency and the 39th Amendment)

उच्च न्यायालय के फैसले के बाद, इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। लेकिन देश में राजनीतिक अशांति बढ़ रही थी। इस पृष्ठभूमि में, 25 जून, 1975 को, राष्ट्रपति ने आंतरिक गड़बड़ी के आधार पर देश में राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) की घोषणा कर दी। इसके बाद, सरकार ने संसद के माध्यम से 39वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1975 पारित किया। इस संशोधन ने प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव विवादों को सभी अदालतों के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया।

संशोधन का उद्देश्य और प्रावधान (Objective and Provisions of the Amendment)

39वें संशोधन का मुख्य उद्देश्य इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को पूर्वव्यापी रूप से (retrospectively) रद्द करना और इंदिरा गांधी की सदस्यता को बचाना था। इसमें एक नया अनुच्छेद 329A जोड़ा गया, जिसमें कहा गया कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के चुनावों को किसी भी आधार पर किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। यह संशोधन सीधे तौर पर न्यायिक समीक्षा की शक्ति पर एक हमला था।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (The Supreme Court’s Verdict)

जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष आया, तो अदालत ने एक और ऐतिहासिक फैसला दिया। अदालत ने केशवानंद भारती मामले (1973) में स्थापित ‘बुनियादी संरचना के सिद्धांत’ (Doctrine of Basic Structure) का हवाला दिया। न्यायालय ने माना कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव तथा न्यायिक समीक्षा संविधान की बुनियादी संरचना का हिस्सा हैं, और संसद संशोधन करके भी उन्हें नष्ट नहीं कर सकती है।

न्यायपालिका की सर्वोच्चता की स्थापना (Establishment of Judicial Supremacy)

सर्वोच्च न्यायालय ने 39वें संशोधन अधिनियम के उस हिस्से को रद्द कर दिया जो न्यायिक समीक्षा को छीनता था। अदालत ने कहा कि कानून के समक्ष समानता (equality before law) और न्यायिक समीक्षा लोकतंत्र के आवश्यक स्तंभ हैं और कार्यपालिका या विधायिका उन्हें खत्म नहीं कर सकती। हालांकि, अदालत ने प्रक्रियात्मक आधार पर इंदिरा गांधी के चुनाव को अंततः बरकरार रखा, लेकिन इस मामले ने संविधान की सर्वोच्चता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मजबूती से स्थापित कर दिया।

इस मामले का प्रभाव और सीख (Impact and Lessons from this Case)

इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण मामला भारतीय संवैधानिक इतिहास में एक मील का पत्थर है। इसने स्पष्ट कर दिया कि कोई भी, चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हो, कानून से ऊपर नहीं है। इसने ‘बुनियादी संरचना के सिद्धांत’ को और मजबूत किया और कार्यपालिका की शक्तियों पर एक स्पष्ट सीमा लगा दी। यह मामला हमें याद दिलाता है कि एक स्वतंत्र न्यायपालिका एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कितनी महत्वपूर्ण है, जो कार्यपालिका को जवाबदेह ठहरा सकती है।

निष्कर्ष: एक संतुलित और जवाबदेह प्रणाली (Conclusion: A Balanced and Accountable System) ✅

कार्यपालिका की भूमिका का सारांश (Summary of the Executive’s Role)

इस विस्तृत चर्चा के माध्यम से, हमने भारत की संघीय और राज्य कार्यपालिका की जटिल संरचना और शक्तियों को समझा। हमने देखा कि कैसे राष्ट्रपति नाममात्र के प्रमुख के रूप में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री अपनी-अपनी मंत्रिपरिषद के साथ वास्तविक कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग करते हैं। यह संसदीय प्रणाली सुनिश्चित करती है कि कार्यपालिका विधायिका के प्रति जवाबदेह बनी रहे, जो अंततः जनता का प्रतिनिधित्व करती है।

शक्तियों के पृथक्करण का महत्व (Importance of Separation of Powers)

भारतीय संविधान ने सरकार के तीनों अंगों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – के बीच शक्तियों का एक सुंदर संतुलन स्थापित किया है। कार्यपालिका कानून लागू करती है, लेकिन वह विधायिका द्वारा नियंत्रित होती है। वहीं, न्यायपालिका इन दोनों पर नजर रखती है ताकि वे संविधान की सीमाओं का उल्लंघन न करें। यह नियंत्रण और संतुलन (checks and balances) की प्रणाली ही भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है।

चुनौतियाँ और भविष्य की दिशा (Challenges and the Way Forward)

बेशक, इस प्रणाली में चुनौतियाँ भी हैं। राज्यपाल के पद का राजनीतिकरण, कार्यपालिका द्वारा अपनी शक्तियों का अत्यधिक प्रयोग, और जांच एजेंसियों का दुरुपयोग कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर निरंतर ध्यान देने की आवश्यकता है। एक जागरूक नागरिक के रूप में, यह हमारा कर्तव्य है कि हम इन संस्थाओं के कामकाज को समझें और यह सुनिश्चित करें कि वे अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को पूरी निष्ठा से निभाएं।

अंतिम विचार (Final Thoughts)

अंततः, भारत की कार्यपालिका एक गतिशील और जीवंत संरचना है जो देश के शासन को दिशा देती है। राष्ट्रपति के औपचारिक पद से लेकर प्रधानमंत्री की शक्तिशाली भूमिका तक, प्रत्येक अंग का अपना महत्व है। न्यायिक समीक्षा और संसदीय नियंत्रण यह सुनिश्चित करते हैं कि कार्यपालिका जनता के प्रति जवाबदेह रहे। उम्मीद है कि इस लेख ने आपको भारतीय कार्यपालिका (Indian Executive) की संरचना और शक्तियों को बेहतर ढंग से समझने में मदद की होगी। 💡