भारतीय चित्रकला का इतिहास (History of Indian Painting)
भारतीय चित्रकला का इतिहास (History of Indian Painting)

भारतीय चित्रकला का इतिहास (History of Indian Painting)

विषय सूची (Table of Contents)

1. परिचय: भारतीय चित्रकला की रंगीन दुनिया 🎨 (Introduction: The Colorful World of Indian Painting)

भारतीय चित्रकला का अर्थ (Meaning of Indian Painting)

नमस्ते दोस्तों! 👋 आज हम भारत के एक बहुत ही खूबसूरत और रंगीन पहलू की यात्रा पर निकलेंगे – भारतीय चित्रकला का इतिहास। चित्रकला सिर्फ रंगों और लकीरों का खेल नहीं है, बल्कि यह हमारे पूर्वजों की भावनाओं, कहानियों, और उनके समय के समाज का एक आईना है। यह हमें बताती है कि हज़ारों साल पहले लोग कैसे रहते थे, क्या सोचते थे, और उनकी दुनिया कैसी दिखती थी। यह कला का एक ऐसा रूप है जो शब्दों के बिना भी बहुत कुछ कह जाती है।

कला का विशाल सागर (The Vast Ocean of Art)

भारतीय चित्रकला का इतिहास (history of Indian painting) किसी एक नदी की तरह नहीं, बल्कि एक विशाल सागर की तरह है, जिसमें कई छोटी-बड़ी नदियाँ आकर मिलती हैं। प्रागैतिहासिक काल की गुफाओं में बने जानवरों के चित्रों से लेकर मुगल दरबार की शान दिखाने वाले लघु चित्रों तक, और पहाड़ों की सुंदरता को दर्शाती पहाड़ी पेंटिंग्स से लेकर आज के आधुनिक कलाकारों की सोच तक, इसका कैनवास बहुत बड़ा और विविध है। हर काल ने इसमें अपने अनूठे रंग भरे हैं।

इतिहास को समझने का माध्यम (A Medium to Understand History)

जब हम भारतीय चित्रकला के इतिहास को पढ़ते हैं, तो हम केवल कला को नहीं समझते, बल्कि हम भारत के पूरे इतिहास को एक नए नजरिए से देखते हैं। यह हमें राजाओं की कहानियों, धर्म के विकास, और आम लोगों के जीवन की झलकियाँ दिखाती है। तो चलिए, अपनी सीट बेल्ट बांध लीजिए और इस रोमांचक और ज्ञानवर्धक यात्रा के लिए तैयार हो जाइए, जहाँ हम रंगों के माध्यम से भारत के गौरवशाली अतीत को जानेंगे। 📚✨

2. प्रागैतिहासिक चित्रकला: पहले कलाकारों के पदचिह्न 👣 (Prehistoric Painting: Footprints of the First Artists)

मानव के पहले कलात्मक प्रयास (Mankind’s First Artistic Endeavors)

जब इंसान ने लिखना-पढ़ना भी नहीं सीखा था, तब भी उसके अंदर खुद को व्यक्त करने की एक इच्छा थी। इसी इच्छा ने प्रागैतिहासिक चित्रकला (prehistoric painting) को जन्म दिया। ये चित्रकला हजारों साल पुरानी है और हमें उस समय के मानव जीवन के बारे में बहुमूल्य जानकारी देती है। ये चित्र गुफाओं की दीवारों और चट्टानों पर बनाए गए थे, इसलिए इन्हें शैल चित्र (rock paintings) भी कहा जाता है। ये हमारे देश के पहले कला संग्रहालय हैं।

भीमबेटका: एक पाषाण युग का खजाना (Bhimbetka: A Stone Age Treasure)

भारत में प्रागैतिहासिक चित्रकला का सबसे बेहतरीन उदाहरण मध्य प्रदेश में स्थित भीमबेटका की गुफाएं हैं। यह एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल (UNESCO World Heritage Site) है, जहाँ 700 से अधिक शैलाश्रय (rock shelters) हैं। इन गुफाओं की दीवारों पर बने चित्र उस समय के लोगों के दैनिक जीवन, उनकी मान्यताओं और उनके आसपास के वातावरण को दर्शाते हैं। ये चित्र हमें सीधे पाषाण युग में ले जाते हैं।

चित्रों के विषय और शैली (Themes and Style of the Paintings)

भीमबेटका के चित्रों में मुख्य रूप से जानवरों का शिकार, नाच-गाना, घुड़सवारी, और लड़ाई जैसे दृश्यों को दिखाया गया है। इनमें बाइसन, बाघ, हाथी, हिरण और सूअर जैसे जानवरों को बड़ी सजीवता से चित्रित किया गया है। चित्र बनाने की शैली बहुत सरल थी; ज्यादातर लाल और सफेद रंगों का उपयोग करके केवल रेखाओं के माध्यम से आकृतियाँ बनाई जाती थीं। यह दिखाता है कि उस समय के लोग अपने परिवेश को कितनी बारीकी से देखते थे।

रंगों का रहस्य (The Secret of the Colors)

यह सोचना आश्चर्यजनक है कि हजारों साल बाद भी ये रंग कैसे टिके हुए हैं! प्रागैतिहासिक मानव ने प्राकृतिक चीजों से रंग बनाए। उन्होंने गेरू (ochre) से लाल रंग, चूना पत्थर से सफेद रंग और विभिन्न प्रकार के पत्थरों और पौधों से अन्य रंग तैयार किए। इन रंगों को जानवरों की चर्बी या पौधों के रस के साथ मिलाकर इस्तेमाल किया जाता था, जो इन्हें चट्टानों पर लंबे समय तक टिकाए रखने में मदद करता था। 🎨

3. शास्त्रीय काल की चित्रकला: अजंता और बाघ की गुफाओं का जादू 🏛️ (Classical Period Painting: The Magic of Ajanta and Bagh Caves)

चित्रकला का स्वर्ण युग (The Golden Age of Painting)

प्रागैतिहासिक काल के बाद, भारतीय चित्रकला ने शास्त्रीय काल में प्रवेश किया, जो लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से सातवीं शताब्दी ईस्वी तक चला। यह वह समय था जब चित्रकला के नियम और तकनीकें विकसित हुईं। इस काल की चित्रकला का उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, जैसे वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में 64 कलाओं में से एक के रूप में चित्रकला का वर्णन है। इस युग की कला में एक अद्भुत परिपक्वता और सौंदर्य बोध दिखाई देता है।

अजंता की गुफाएं: एक विश्व धरोहर (Ajanta Caves: A World Heritage)

जब हम शास्त्रीय भारतीय चित्रकला की बात करते हैं, तो सबसे पहला नाम महाराष्ट्र की अजंता की गुफाओं का आता है। ये चट्टानों को काटकर बनाई गई बौद्ध गुफाएं हैं, जिनकी दीवारें और छतें अद्भुत चित्रों से सजी हैं। चित्रकला अजंता (Painting Ajanta) की यह शैली फ्रेस्को (Fresco) और टेम्परा (Tempera) तकनीकों का एक अनूठा मिश्रण है। इन चित्रों में रंगों का संयोजन, भावों की अभिव्यक्ति और रेखाओं का प्रवाह देखकर कोई भी मंत्रमुग्ध हो सकता है।

अजंता के भित्ति चित्रों के विषय (Subjects of Ajanta’s Mural Paintings)

अजंता के ये भित्ति चित्र (mural paintings) मुख्य रूप से महात्मा बुद्ध के जीवन और उनकी पूर्व जन्म की कहानियों, जिन्हें जातक कथाएं (Jataka tales) कहा जाता है, पर आधारित हैं। इन कहानियों के माध्यम से नैतिकता और करुणा का संदेश दिया गया है। इसके अलावा, इन चित्रों में उस समय के राजाओं, रानियों, आम लोगों, वनस्पतियों और जीवों का भी बहुत सुंदर चित्रण किया गया है, जो हमें तत्कालीन समाज और संस्कृति की एक झलक प्रदान करता है।

पद्मपाणि और वज्रपाणि के प्रसिद्ध चित्र (The Famous Paintings of Padmapani and Vajrapani)

अजंता की गुफा संख्या 1 में बोधिसत्व पद्मपाणि का चित्र भारतीय कला की उत्कृष्ट कृतियों में से एक माना जाता है। उनके चेहरे पर शांति, करुणा और गहरी सोच का भाव अद्भुत है। इसी तरह, वज्रपाणि का चित्र भी अपनी ऊर्जा और शाही अंदाज के लिए प्रसिद्ध है। इन चित्रों में कलाकारों ने मानव भावनाओं को इतनी गहराई से व्यक्त किया है कि वे आज भी जीवंत लगते हैं। यह चित्रकला अजंता की महारत का प्रतीक है।

बाघ की गुफाएं: अजंता की प्रतिध्वनि (Bagh Caves: Echoes of Ajanta)

मध्य प्रदेश में स्थित बघ (Bagh) की गुफाएं भी इसी काल की हैं और इनकी शैली अजंता से काफी मिलती-जुलती है। हालांकि, अजंता के चित्र मुख्य रूप से धार्मिक विषयों पर केंद्रित हैं, वहीं बाघ के चित्र अधिक लौकिक (secular) हैं। इनमें नृत्य, संगीत और रोजमर्रा की जिंदगी के दृश्य अधिक हैं। यहाँ के सबसे प्रसिद्ध चित्रों में से एक ‘हल्लीसक’ नृत्य का दृश्य है, जिसमें महिलाओं का एक समूह लयबद्ध तरीके से नाचता हुआ दिखाया गया है।

अन्य शास्त्रीय कला केंद्र (Other Classical Art Centers)

अजंता और बाघ के अलावा, इस काल में चित्रकला के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र भी थे। कर्नाटक में बादामी की गुफाओं और तमिलनाडु में सित्तनवासल की गुफाओं में भी सुंदर भित्ति चित्र पाए जाते हैं। बादामी के चित्र चालुक्य राजाओं के शाही दृश्यों को दर्शाते हैं, जबकि सित्तनवासल के जैन चित्र अपनी सादगी और सुंदरता के लिए जाने जाते हैं। यह सब मिलकर शास्त्रीय भारतीय चित्रकला की समृद्ध परंपरा को दर्शाते हैं।

4. मध्यकालीन चित्रकला: एक नए युग का सूत्रपात 📜 (Medieval Painting: The Beginning of a New Era)

परिवर्तन का दौर (A Period of Transition)

शास्त्रीय काल के बाद और मुगल काल से पहले का समय (लगभग 7वीं से 16वीं शताब्दी) भारतीय चित्रकला में एक संक्रमण काल था। इस दौरान, बड़ी-बड़ी गुफाओं और दीवारों पर भित्ति चित्र बनाने की परंपरा धीरे-धीरे कम हो गई और उसकी जगह एक नई शैली ने ले ली – लघु चित्रकला (miniature painting)। यह बदलाव राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों का परिणाम था। अब कला शाही महलों से निकलकर मठों और व्यापारियों के घरों तक पहुंचने लगी थी।

पाल शैली: पूर्वी भारत की कला (Pala School: The Art of Eastern India)

मध्यकालीन चित्रकला की शुरुआत में पूर्वी भारत (बंगाल और बिहार) में पाल शासकों के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण शैली विकसित हुई, जिसे पाल शैली के नाम से जाना जाता है। यह कला मुख्य रूप से ताड़ के पत्तों पर लिखी गई बौद्ध पांडुलिपियों (Buddhist manuscripts) में मिलती है। इन पांडुलिपियों को सचित्र बनाने के लिए छोटे-छोटे चित्र बनाए जाते थे। इन चित्रों में अजंता की कला की झलक दिखाई देती है, लेकिन रेखाएं अधिक कोणीय और सपाट होती हैं।

पाल शैली की विशेषताएं (Features of the Pala School)

पाल शैली के चित्रों में गहरे लाल, नीले, काले और सफेद रंगों का प्रयोग होता था। इसमें भगवान बुद्ध और अन्य बौद्ध देवी-देवताओं का चित्रण प्रमुख था। आकृतियों की आंखें बड़ी और उभरी हुई बनाई जाती थीं और शरीर की मुद्राओं में एक निश्चित लय होती थी। यह शैली न केवल भारत में बल्कि नेपाल, तिब्बत और बर्मा जैसे पड़ोसी देशों में भी फैली, जिससे बौद्ध कला के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ा। 🎨

अपभ्रंश शैली: पश्चिमी भारत का प्रभाव (Apabhramsha School: The Influence of Western India)

इसी समय, पश्चिमी भारत (गुजरात और राजस्थान) में एक और महत्वपूर्ण शैली विकसित हो रही थी, जिसे अपभ्रंश शैली कहा जाता है। इस शैली को जैन व्यापारियों का संरक्षण प्राप्त था और यह मुख्य रूप से जैन ग्रंथों की पांडुलिपियों में पाई जाती है। इस शैली की सबसे खास पहचान है ‘उभरी हुई दूसरी आंख’ (protruding farther eye), जिसमें चेहरे को एक तरफ से दिखाए जाने के बावजूद दूसरी आंख को भी प्रोफ़ाइल के बाहर दिखाया जाता था।

अपभ्रंश शैली के विषय और रंग (Themes and Colors of the Apabhramsha School)

अपभ्रंश शैली के चित्रों में चमकीले और भड़कीले रंगों, विशेषकर लाल और पीले रंग का भरपूर उपयोग किया गया है। चित्रों के विषय मुख्य रूप से जैन तीर्थंकरों के जीवन और जैन पौराणिक कथाओं पर आधारित होते थे। समय के साथ, इस शैली में लौकिक विषयों, जैसे ‘गीत गोविंद’ और ‘रतिरहस्य’ का भी चित्रण होने लगा। यही अपभ्रंश शैली आगे चलकर राजस्थानी चित्रकला के विकास का आधार बनी।

सल्तनत काल की चित्रकला (Painting during the Sultanate Period)

दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ, भारतीय कला में फारसी और मध्य एशियाई तत्वों का समावेश शुरू हुआ। इस काल की चित्रकला को सल्तनत चित्रकला के नाम से जाना जाता है। यह भारतीय और फारसी शैलियों का एक प्रारंभिक मिश्रण था। इस दौरान ‘नियामतनामा’ जैसी कई महत्वपूर्ण पांडुलिपियों को चित्रित किया गया। इस शैली ने उस जमीन को तैयार किया जिस पर आगे चलकर भव्य मुगल चित्रकला का महल खड़ा हुआ।

5. मुगल चित्रकला: शाही दरबारों की शान 👑 (Mughal Painting: The Glory of Royal Courts)

एक नई शैली का जन्म (Birth of a New Style)

मुगल चित्रकला (Mughal Painting) भारतीय कला के इतिहास का एक सुनहरा अध्याय है। यह शैली भारतीय और फारसी कला का एक अद्भुत संगम है। इसकी शुरुआत 16वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के साथ हुई, लेकिन इसकी असली नींव उसके बेटे हुमायूं ने रखी। हुमायूं जब फारस से लौटा, तो अपने साथ दो महान फारसी चित्रकारों – मीर सैयद अली और अब्दुस समद – को लाया। इन्हीं कलाकारों ने भारत में मुगल चित्रकला की नींव रखी।

अकबर: कला का महान संरक्षक (Akbar: The Great Patron of Art)

मुगल चित्रकला का वास्तविक विकास सम्राट अकबर के शासनकाल में हुआ। अकबर को कला से गहरा प्रेम था और उसने एक शाही ‘तस्वीरखाना’ (painting workshop) की स्थापना की, जहाँ सौ से भी अधिक भारतीय और फारसी चित्रकार एक साथ काम करते थे। अकबर के समय में ‘हम्जानामा’, ‘अकबरनामा’ और ‘महाभारत’ के फारसी अनुवाद ‘रज़्मनामा’ जैसे कई बड़े ग्रंथों को चित्रित किया गया। इन चित्रों में गति, ऊर्जा और कहानी कहने की अद्भुत क्षमता है।

अकबरकालीन चित्रों की विशेषताएं (Features of Akbar’s Era Paintings)

अकबर के काल की मुगल चित्रकला में भारतीय तत्वों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। चित्रों में चमकीले रंगों का प्रयोग होता था और उनमें दरबार, शिकार, युद्ध और निर्माण गतिविधियों जैसे गतिशील दृश्यों को प्रमुखता दी जाती थी। कलाकारों ने यूरोपीय चित्रों से प्रकाश और छाया (light and shadow) और परिप्रेक्ष्य (perspective) जैसी तकनीकों को भी अपनाना शुरू कर दिया था, जिससे चित्रों में गहराई और यथार्थवाद आया।

जहांगीर का स्वर्ण युग (The Golden Age of Jahangir)

सम्राट जहांगीर के काल को मुगल चित्रकला का स्वर्ण युग (golden age) कहा जाता है। जहांगीर खुद कला का बहुत बड़ा पारखी था और उसे प्रकृति से विशेष लगाव था। उसके समय में दरबारी दृश्यों की जगह पशु-पक्षियों, फूलों और पौधों के चित्रों ने ले ली। चित्रकला में यथार्थवाद अपने चरम पर पहुंच गया। जहांगीर दावा करता था कि वह किसी भी चित्र को देखकर यह बता सकता है कि उसे किस कलाकार ने बनाया है, और यदि एक ही चित्र को कई कलाकारों ने मिलकर बनाया हो, तो वह यह भी बता सकता है कि कौन सा हिस्सा किसने बनाया है।

जहांगीर के प्रमुख चित्रकार (Famous Painters of Jahangir)

जहांगीर के दरबार में कई महान चित्रकार थे, लेकिन उस्ताद मंसूर और अबुल हसन का नाम सबसे प्रमुख है। उस्ताद मंसूर को ‘नादिर-उल-असर’ (युग का आश्चर्य) की उपाधि दी गई थी और वह पशु-पक्षियों के चित्रण में माहिर थे। उनके द्वारा बनाया गया साइबेरियन क्रेन और बाज का चित्र विश्व प्रसिद्ध है। वहीं, अबुल हसन व्यक्ति चित्र (portraits) बनाने में निपुण थे। बिशनदास को जहांगीर ने अपने दूत के साथ फारस के शाह का चित्र बनाने के लिए भेजा था।

शाहजहां और कला का झुकाव (Shah Jahan and the Inclination of Art)

शाहजहां के समय में चित्रकला की तुलना में वास्तुकला (architecture) पर अधिक ध्यान दिया गया, जैसा कि ताजमहल और लाल किले जैसी भव्य इमारतों से स्पष्ट है। हालांकि, चित्रकला अभी भी जारी रही, लेकिन उसमें जहांगीर के काल जैसी सजीवता और स्वाभाविकता की कमी आने लगी। शाहजहां के समय के चित्रों में अत्यधिक अलंकरण, सोने का भरपूर प्रयोग और एक प्रकार की कठोरता दिखाई देती है। चित्रों के विषय अक्सर शाही वैभव और प्रेम कहानियों पर केंद्रित होते थे।

औरंगजेब और कला का पतन (Aurangzeb and the Decline of Art)

औरंगजेब एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उसकी कला में कोई रुचि नहीं थी। उसने शाही तस्वीरखानों को बंद करवा दिया और कलाकारों को संरक्षण देना बंद कर दिया। इस वजह से, मुगल दरबार के कई कलाकार काम की तलाश में राजस्थान और पंजाब के पहाड़ी राज्यों जैसे क्षेत्रीय दरबारों में चले गए। इस पलायन का एक सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि इन कलाकारों ने स्थानीय कला शैलियों के साथ मिलकर राजपूत चित्रकला (Rajput Painting) और पहाड़ी चित्रकला (Pahari Painting) जैसी अद्भुत क्षेत्रीय शैलियों के विकास में योगदान दिया।

6. राजपूत चित्रकला: भक्ति और वीरता के रंग 💖 (Rajput Painting: Colors of Devotion and Valor)

एक स्वदेशी कला शैली (An Indigenous Art Style)

राजपूत चित्रकला, जिसे राजस्थानी चित्रकला भी कहा जाता है, लगभग 16वीं से 19वीं शताब्दी के बीच राजस्थान और मध्य प्रदेश के राजपूत रजवाड़ों में विकसित हुई। यह एक विशुद्ध भारतीय शैली थी, जिसकी जड़ें अपभ्रंश शैली में थीं, लेकिन इसने मुगल कला से भी प्रेरणा ली। जहाँ मुगल चित्रकला यथार्थवादी और दरबारी विषयों पर केंद्रित थी, वहीं राजपूत चित्रकला का हृदय काव्यात्मक, भावनात्मक और धार्मिक था।

राजपूत चित्रकला के विषय (Themes of Rajput Painting)

इस शैली के मुख्य विषय हिंदू धर्मग्रंथों, जैसे रामायण, महाभारत, और पुराणों से लिए गए थे। कृष्ण लीला (life of Krishna) और राधा-कृष्ण का प्रेम इसके सबसे लोकप्रिय विषय थे। इसके अलावा, ‘गीत गोविंद’, ‘रसिकप्रिया’ और ‘बिहारी सतसई’ जैसे काव्यों पर आधारित चित्र भी बनाए गए। इन चित्रों में भक्ति, श्रृंगार और वीरता के भावों को बड़ी खूबसूरती से दर्शाया गया है। रागमाला श्रृंखला, जिसमें विभिन्न भारतीय संगीत रागों को चित्रित किया गया, भी इसकी एक अनूठी विशेषता है।

मेवाड़ शैली: परंपरा का गढ़ (Mewar School: A Bastion of Tradition)

मेवाड़ (उदयपुर) राजपूत चित्रकला का सबसे पुराना और महत्वपूर्ण केंद्र था। यहां की शैली में अपभ्रंश शैली के तत्व सबसे अधिक दिखाई देते हैं। मेवाड़ के चित्रों में चमकीले और भड़कीले रंगों, जैसे लाल और पीले, का प्रयोग होता था। आकृतियां सरल लेकिन भावनात्मक होती थीं। साहिबदीन मेवाड़ शैली के एक प्रसिद्ध चित्रकार थे, जिन्होंने ‘रसिकप्रिया’ और ‘भागवत पुराण’ पर आधारित सुंदर चित्र श्रृंखलाएं बनाईं।

बूंदी-कोटा शैली: प्रकृति और शिकार (Bundi-Kota School: Nature and Hunting)

बूंदी शैली अपनी प्राकृतिक सुंदरता के चित्रण के लिए जानी जाती है। इसमें घने जंगल, बहती नदियाँ, और रंग-बिरंगे फूलों का बहुत सजीव चित्रण किया गया है। यहाँ की रागमाला श्रृंखलाएं बहुत प्रसिद्ध हैं। कोटा शैली, जो बूंदी से ही निकली है, अपने शिकार के दृश्यों (hunting scenes) के लिए अद्वितीय है। इन चित्रों में राजाओं को घने जंगलों में बाघों और अन्य जंगली जानवरों का शिकार करते हुए बड़ी गति और रोमांच के साथ दिखाया गया है।

मारवाड़ शैली: रेगिस्तान के रंग (Marwar School: Colors of the Desert)

मारवाड़ (जोधपुर) शैली में भी जीवंत रंगों का प्रयोग होता था, लेकिन यहाँ पीले रंग का प्रभुत्व था जो थार रेगिस्तान की पृष्ठभूमि को दर्शाता है। इस शैली में लंबी, पतली आकृतियां और बादाम जैसी आंखें बनाई जाती थीं। यहाँ ढोला-मारू की प्रेम कथा का चित्रण बहुत लोकप्रिय था। समय के साथ, इस पर मुगल प्रभाव भी पड़ा, जिससे चित्रों में अधिक यथार्थवाद आया।

बीकानेर शैली: मुगल और दक्कनी संगम (Bikaner School: A Fusion of Mughal and Deccani)

बीकानेर के शासकों के मुगलों के साथ घनिष्ठ संबंध थे, इसलिए यहाँ की कला पर मुगल प्रभाव सबसे अधिक स्पष्ट है। बीकानेर के कई कलाकार मुगल दरबार में प्रशिक्षित हुए थे। इसलिए, यहाँ के चित्रों में मुगल शैली की बारीकी और परिष्कार के साथ राजस्थानी विषयों का सुंदर मिश्रण देखने को मिलता है। उस्ताद अली रज़ा और रुकनुद्दीन यहाँ के प्रमुख कलाकार थे।

किशनगढ़ शैली और बणी-ठणी (Kishangarh School and Bani Thani)

किशनगढ़ शैली को राजपूत चित्रकला का शिखर माना जाता है। राजा सावंत सिंह, जो ‘नागरीदास’ के नाम से कविता लिखते थे, के संरक्षण में यह शैली अपने चरम पर पहुंची। इस शैली का सबसे प्रसिद्ध चित्र ‘बणी-ठणी’ है, जिसे निहाल चंद ने बनाया था। बणी-ठणी को राधा के रूप में चित्रित किया गया है और इसे ‘भारत की मोनालिसा’ (Mona Lisa of India) भी कहा जाता है। इसकी विशेषता है लंबी, धनुषाकार भौंहें, कमल जैसी आंखें और पतले होंठ, जो एक अद्वितीय सौंदर्य का प्रतीक है।

7. पहाड़ी चित्रकला: पहाड़ों की शांत सुंदरता 🏞️ (Pahari Painting: The Serene Beauty of the Hills)

पहाड़ों में कला का विकास (Development of Art in the Hills)

पहाड़ी चित्रकला शैली का विकास 17वीं से 19वीं शताब्दी के बीच पश्चिमी हिमालय के पहाड़ी राज्यों, जैसे बसोहली, गुलेर, कांगड़ा, चंबा और गढ़वाल में हुआ। जब औरंगजेब के समय मुगल दरबार से कलाकारों का पलायन हुआ, तो उनमें से कई इन पहाड़ी रियासतों में आ गए। यहाँ उन्होंने स्थानीय कला परंपराओं के साथ मिलकर एक नई और आकर्षक शैली को जन्म दिया, जो अपनी कोमलता, गीतात्मकता और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जानी जाती है।

बसोहली शैली: रंगों की तीव्रता (Basohli School: The Intensity of Colors)

पहाड़ी चित्रकला की सबसे पुरानी शैली बसोहली शैली है। यह अपने बोल्ड और तीव्र रंगों के लिए पहचानी जाती है। इसमें पीले, लाल और नीले जैसे प्राथमिक रंगों का खुलकर प्रयोग किया गया है। आकृतियों की बड़ी-बड़ी expressive आंखें होती हैं और माथा पीछे की ओर ढलुआ होता है। बसोहली के कलाकारों ने ‘रसमंजरी’ और ‘गीत गोविंद’ जैसे ग्रंथों पर आधारित अद्भुत चित्र श्रृंखलाएं बनाईं, जो भावनाओं की गहरी अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं।

गुलेर शैली: एक नई कोमलता (Guler School: A New Delicacy)

18वीं शताब्दी के मध्य में, बसोहली की तीव्र शैली ने एक नई, अधिक कोमल और प्राकृतिक शैली को जन्म दिया, जिसे गुलेर शैली कहा जाता है। माना जाता है कि कश्मीरी चित्रकारों के एक परिवार ने, जो मुगल शैली में प्रशिक्षित थे, इस शैली के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुलेर के चित्रों में रंग नरम और सामंजस्यपूर्ण हो गए, और रेखाएं अधिक सूक्ष्म और लयबद्ध हो गईं। यहीं से प्रसिद्ध कांगड़ा शैली का विकास हुआ।

कांगड़ा शैली: पहाड़ी कला का शिखर (Kangra School: The Peak of Pahari Art)

कांगड़ा शैली पहाड़ी चित्रकला का चरमोत्कर्ष है। राजा संसार चंद के संरक्षण में यह शैली अपने शिखर पर पहुंची। कांगड़ा के चित्र अपनी गीतात्मक सुंदरता, कोमलता और स्त्री सौंदर्य के आदर्श चित्रण के लिए प्रसिद्ध हैं। इन चित्रों में प्रकृति को बहुत प्यार से चित्रित किया गया है, जिसमें घुमावदार पहाड़ियाँ, घने जंगल और कलकल करती नदियाँ दिखाई देती हैं। रंग ठंडे और सुखदायक होते हैं, जैसे हरा और नीला।

कांगड़ा शैली के प्रिय विषय (Favorite Themes of the Kangra School)

कांगड़ा शैली का सबसे प्रिय विषय राधा और कृष्ण का प्रेम है। कलाकारों ने ‘गीत गोविंद’, ‘बिहारी सतसई’ और ‘भागवत पुराण’ के आधार पर राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं को बड़े ही काव्यात्मक और रोमांटिक अंदाज में चित्रित किया है। इन चित्रों में प्रेम के विभिन्न भावों – संयोग, वियोग, प्रतीक्षा – को बड़ी संवेदनशीलता के साथ दर्शाया गया है। यह शैली स्त्री के आकर्षण और लालित्य को चित्रित करने में अद्वितीय है।

अन्य पहाड़ी केंद्र: चंबा और गढ़वाल (Other Pahari Centers: Chamba and Garhwal)

कांगड़ा के अलावा, चंबा और गढ़वाल जैसे अन्य पहाड़ी राज्यों में भी चित्रकला का विकास हुआ। चंबा की कला पर बसोहली और गुलेर दोनों का प्रभाव था। गढ़वाल शैली अपने प्राकृतिक दृश्यों और स्त्री चित्रण के लिए प्रसिद्ध थी। गढ़वाल के चित्रकार मौलाराम एक प्रसिद्ध कलाकार और कवि थे, जिन्होंने इस शैली के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ये सभी शैलियाँ मिलकर पहाड़ी चित्रकला की समृद्ध विरासत का निर्माण करती हैं।

8. आधुनिक काल की चित्रकला: परंपरा और नवीनता का संगम 🖌️ (Modern Period Painting: A Confluence of Tradition and Modernity)

एक नए युग का आगमन (The Arrival of a New Era)

19वीं शताब्दी में भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ, भारतीय कला में एक बड़ा परिवर्तन आया। सदियों से चली आ रही पारंपरिक संरक्षण प्रणाली (patronage system), जो राजाओं और नवाबों पर निर्भर थी, समाप्त होने लगी। इसकी जगह एक नई शैली ने ले ली, जो भारतीय और यूरोपीय कला का मिश्रण थी। यह आधुनिक भारतीय कला की शुरुआत थी, जिसने परंपरा और नवीनता के बीच एक नया रास्ता खोजा।

कंपनी शैली: एक संकर कला (Company School: A Hybrid Art)

आधुनिक काल की शुरुआत में कंपनी शैली (Company School) का उदय हुआ। यह शैली उन भारतीय कलाकारों द्वारा विकसित की गई थी जो ईस्ट इंडिया कंपनी के ब्रिटिश अधिकारियों के लिए काम करते थे। इन ब्रिटिश संरक्षकों को भारतीय जीवन, वनस्पतियों, जीवों, त्योहारों और व्यवसायों के चित्र चाहिए होते थे। इसलिए, भारतीय कलाकारों ने भारतीय विषयों को यूरोपीय यथार्थवादी तकनीक, जैसे जल रंग (watercolors) और परिप्रेक्ष्य, का उपयोग करके चित्रित करना शुरू किया।

कंपनी शैली की विशेषताएं (Features of the Company School)

कंपनी शैली के चित्र तकनीकी रूप से बहुत कुशल होते थे, लेकिन उनमें पारंपरिक भारतीय चित्रकला जैसी भावना और काव्यात्मकता की कमी थी। वे अक्सर दस्तावेजी (documentary) प्रकृति के होते थे। पटना, कलकत्ता, दिल्ली, और तंजौर इस शैली के प्रमुख केंद्र थे। तंजौर चित्रकला (Tanjore painting), जो अपनी कांच और कीमती पत्थरों की जड़ाई के लिए प्रसिद्ध है, पर भी कंपनी शैली का प्रभाव पड़ा।

राजा रवि वर्मा: परंपरा और तकनीक का मेल (Raja Ravi Varma: A Mix of Tradition and Technique)

राजा रवि वर्मा (1848-1906) आधुनिक भारतीय कला के सबसे महत्वपूर्ण कलाकारों में से एक हैं। वह पहले भारतीय कलाकार थे जिन्होंने यूरोपीय अकादमिक कला (European academic art) की तकनीकों में महारत हासिल की और उनका उपयोग भारतीय पौराणिक और साहित्यिक विषयों को चित्रित करने के लिए किया। उन्होंने तेल रंगों (oil paints) का प्रयोग करके रामायण और महाभारत के पात्रों को एक नए, यथार्थवादी रूप में प्रस्तुत किया।

रवि वर्मा का योगदान और आलोचना (Ravi Varma’s Contribution and Criticism)

राजा रवि वर्मा ने अपनी कला को कैलेंडर और प्रिंट के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचाया, जिससे वह बेहद लोकप्रिय हुए। उनके चित्रों ने भारतीयों को अपने देवी-देवताओं की एक नई छवि दी। हालांकि, कुछ आलोचकों ने उनकी कला को बहुत अधिक नाटकीय और पश्चिमी प्रभाव वाला कहकर आलोचना भी की। फिर भी, भारतीय कला को एक नई दिशा देने में उनका योगदान निर्विवाद है।

बंगाल स्कूल और राष्ट्रीय जागृति (The Bengal School and National Awakening)

20वीं शताब्दी की शुरुआत में, ब्रिटिश अकादमिक शैली और राजा रवि वर्मा की कला के खिलाफ एक प्रतिक्रिया के रूप में बंगाल स्कूल का उदय हुआ। इसका नेतृत्व अवनींद्रनाथ टैगोर (Abanindranath Tagore) ने किया। यह एक राष्ट्रवादी कला आंदोलन था, जिसका उद्देश्य पश्चिमी प्रभाव को नकार कर एक विशुद्ध भारतीय कला शैली को पुनर्जीवित करना था। बंगाल स्कूल के कलाकारों ने अजंता, मुगल और राजपूत कला से प्रेरणा ली।

बंगाल स्कूल की कला और कलाकार (Art and Artists of the Bengal School)

बंगाल स्कूल की सबसे बड़ी देन ‘वॉश’ तकनीक (wash technique) थी, जिसमें रंगों की कई पतली परतें लगाकर एक धुंधला और स्वप्निल प्रभाव पैदा किया जाता था। चित्रों के विषय भारतीय पौराणिक कथाओं, इतिहास और ग्रामीण जीवन से लिए जाते थे। अवनींद्रनाथ टैगोर के अलावा, नंदलाल बोस, असित कुमार हलदर, और जैमिनी रॉय इस स्कूल के प्रमुख कलाकार थे। जैमिनी रॉय ने बंगाल की लोक कला (folk art) से प्रेरणा लेकर एक अनूठी और सरल शैली विकसित की।

9. समकालीन भारतीय चित्रकला: आज की आवाज़ 🗣️ (Contemporary Indian Painting: The Voice of Today)

स्वतंत्रता के बाद का दौर (The Post-Independence Era)

1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, भारतीय कलाकारों ने अपनी पहचान और अभिव्यक्ति के नए तरीकों की तलाश शुरू की। वे अब बंगाल स्कूल के राष्ट्रवादी आदर्शों से बंधे नहीं रहना चाहते थे। वे एक ऐसी कला भाषा खोजना चाहते थे जो अंतरराष्ट्रीय होते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़ी हो। इस खोज ने भारत में समकालीन कला (contemporary art) के एक जीवंत और विविध परिदृश्य को जन्म दिया।

प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप (Progressive Artists’ Group)

इस नई सोच का सबसे बड़ा प्रतीक ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप’ (PAG) था, जिसकी स्थापना 1947 में बॉम्बे में हुई थी। इसके संस्थापक सदस्यों में एफ.एन. सूजा, एस.एच. रजा, एम.एफ. हुसैन, और के.एच. आरा जैसे कलाकार शामिल थे। उनका उद्देश्य पुरानी परंपराओं को तोड़ना और यूरोपीय आधुनिकतावाद (European Modernism) को भारतीय संदर्भ में अपनाना था। वे एक ऐसी कला बनाना चाहते थे जो वैश्विक और आधुनिक हो।

विविध शैलियों का उदय (The Rise of Diverse Styles)

प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप के कलाकारों ने अलग-अलग दिशाओं में काम किया। एम.एफ. हुसैन ने भारतीय विषयों को क्यूबिज्म (Cubism) से प्रेरित एक ऊर्जावान शैली में चित्रित किया। एस.एच. रजा ने फ्रांसीसी परिदृश्य चित्रण से शुरुआत की और बाद में भारतीय दर्शन से प्रेरित होकर ‘बिंदु’ पर आधारित अमूर्त (abstract) चित्र बनाने लगे। तैयब मेहता और अकबर पदमसी जैसे कलाकारों ने भी आधुनिक भारतीय कला को नई ऊंचाइयां दीं।

क्षेत्रीय कला आंदोलनों का महत्व (Importance of Regional Art Movements)

बॉम्बे के अलावा, मद्रास (चेन्नई) और बड़ौदा (वडोदरा) जैसे अन्य शहर भी कला के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में उभरे। मद्रास स्कूल ऑफ आर्ट्स के.सी.एस. पणिक्कर के नेतृत्व में, एक ऐसी शैली विकसित करने की कोशिश कर रहा था जो दक्षिण भारत की लोक और पारंपरिक कलाओं से प्रेरित हो। बड़ौदा स्कूल ने कला के इतिहास और शिक्षा पर जोर दिया और कई महत्वपूर्ण कलाकारों और कला इतिहासकारों को जन्म दिया।

महिला कलाकारों का योगदान (Contribution of Women Artists)

समकालीन भारतीय कला में महिला कलाकारों का योगदान भी बेहद महत्वपूर्ण रहा है। अमृता शेर-गिल (Amrita Sher-Gil), जो प्रोग्रेसिव ग्रुप से पहले की कलाकार थीं, को आधुनिक भारतीय कला की अग्रदूत माना जाता है। उन्होंने यूरोपीय और भारतीय कला का एक अनूठा संश्लेषण किया। बाद में, अंजलि इला मेनन, अर्पिता सिंह, और नसरीन मोहम्मदी जैसी कलाकारों ने अपनी विशिष्ट शैली और दृष्टिकोण से भारतीय कला को समृद्ध किया।

आज की भारतीय कला (Indian Art Today)

आज, भारतीय कला एक वैश्विक मंच पर खड़ी है। भारतीय कलाकार विभिन्न माध्यमों – पेंटिंग, मूर्तिकला, इंस्टॉलेशन, वीडियो आर्ट – में काम कर रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा प्राप्त कर रहे हैं। वे शहरीकरण, वैश्वीकरण, पहचान, और पर्यावरण जैसे समकालीन मुद्दों को अपनी कला का विषय बना रहे हैं। सुबोध गुप्ता, भारती खेर, और अतुल डोडिया जैसे कलाकार आज की भारतीय कला का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो आत्मविश्वास से भरी, प्रायोगिक और विश्व से जुड़ी हुई है।

10. निष्कर्ष: एक अंतहीन कलात्मक यात्रा ✨ (Conclusion: An Endless Artistic Journey)

एक सतत यात्रा (A Continuous Journey)

भीमबेटका की गुफाओं से लेकर आज की आधुनिक आर्ट गैलरी तक, भारतीय चित्रकला का इतिहास एक लंबी और शानदार यात्रा रही है। हमने देखा कि कैसे यह कला समय के साथ बदली है, विभिन्न संस्कृतियों और विचारों को अपने में समाहित किया है, और फिर भी अपनी एक अनूठी पहचान बनाए रखी है। यह एक जीवित परंपरा है जो आज भी लगातार विकसित हो रही है और नए रूप ले रही है।

कला का महत्व (The Importance of Art)

चित्रकला अजंता के शांत भावों से लेकर मुगल चित्रकला के शाही वैभव तक, और राजपूत चित्रकला की भक्ति से लेकर पहाड़ी चित्रकला की कोमलता तक, हर शैली हमें अपने इतिहास और संस्कृति के बारे में कुछ सिखाती है। यह हमें सौंदर्य की सराहना करना, भावनाओं को समझना और अपने अतीत से जुड़ना सिखाती है। यह हमारे समाज का एक अनिवार्य हिस्सा है जो हमारी पहचान को आकार देता है।

भविष्य की दिशा (The Direction for the Future)

भारतीय चित्रकला का भविष्य उज्ज्वल और संभावनाओं से भरा है। आज के युवा कलाकार नई तकनीकों और विचारों के साथ प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन वे अपनी समृद्ध विरासत से भी प्रेरणा ले रहे हैं। यह संतुलन ही भारतीय कला को अद्वितीय बनाता है। उम्मीद है कि यह लेख आपको भारतीय चित्रकला की इस अद्भुत दुनिया को समझने में मदद करेगा और आपको इस विषय पर और अधिक जानने के लिए प्रेरित करेगा। 🎨📚

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