मौर्योत्तर काल का परिचय (Introduction of Post-Mauryan Period)
मौर्योत्तर काल का परिचय (Introduction of Post-Mauryan Period)

मौर्योत्तर काल: शुंग, सातवाहन, कुषाण (Post-Mauryan Period)

विषय-सूची (Table of Contents) 📜

1. मौर्योत्तर काल का परिचय (Introduction to the Post-Mauryan Period) 🏛️

मौर्य साम्राज्य का पतन (Decline of the Mauryan Empire)

लगभग 185 ईसा पूर्व में अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या के साथ ही भारत के एक विशाल और केंद्रीकृत साम्राज्य का अंत हो गया। इस घटना ने भारतीय इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया, जिसे हम **मौर्योत्तर काल (Post-Mauryan Period)** के नाम से जानते हैं। यह काल लगभग 185 ईसा पूर्व से लेकर 300 ईस्वी तक फैला हुआ है। यह वह समय था जब मौर्यों की विशाल सत्ता बिखर गई और भारत के राजनीतिक मानचित्र पर कई छोटे-बड़े देशी और विदेशी राज्यों का उदय हुआ।

राजनीतिक विखंडन का युग (An Era of Political Fragmentation)

मौर्योत्तर काल की सबसे बड़ी विशेषता राजनीतिक विखंडन थी। जहाँ एक ओर मध्य और पूर्वी भारत में शुंग, काण्व और सातवाहन जैसे स्थानीय राजवंशों ने अपनी सत्ता स्थापित की, वहीं दूसरी ओर पश्चिमोत्तर भारत विदेशी आक्रमणकारियों के लिए एक प्रवेश द्वार बन गया। इंडो-ग्रीक, शक, पार्थियन और अंत में कुषाणों ने इस क्षेत्र में अपने शक्तिशाली राज्य स्थापित किए। यह काल निरंतर संघर्षों और राजनीतिक अस्थिरता का गवाह रहा, लेकिन इसने एक अभूतपूर्व सांस्कृतिक आदान-प्रदान को भी जन्म दिया।

सांस्कृतिक संश्लेषण की अवधि (A Period of Cultural Synthesis)

राजनीतिक उथल-पुथल के बावजूद, मौर्योत्तर काल भारतीय संस्कृति के विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ। इस दौर में भारतीय और विदेशी संस्कृतियों का अद्भुत संगम देखने को मिलता है, जिसे कला, धर्म, और समाज के हर पहलू में महसूस किया जा सकता है। गांधार कला इसका सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ भारतीय विषय-वस्तु को यूनानी शैली में ढाला गया। इस अवधि में व्यापार और वाणिज्य (trade and commerce) में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई।

अध्ययन का महत्व (Importance of Study)

छात्रों के लिए मौर्योत्तर काल का अध्ययन करना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हमें समझाता है कि कैसे एक विशाल साम्राज्य के पतन के बाद भी भारतीय सभ्यता ने न केवल अपनी निरंतरता बनाए रखी, बल्कि बाहरी प्रभावों को आत्मसात कर और भी समृद्ध हुई। यह हमें उन राजवंशों और शासकों के बारे में जानकारी देता है जिन्होंने गुप्त साम्राज्य के उदय से पहले भारतीय इतिहास को आकार दिया। यह काल प्राचीन भारत की जीवंतता और अनुकूलन क्षमता का प्रतीक है।

2. शुंग वंश (185-73 ईसा पूर्व) (Shunga Dynasty) ⚔️

शुंग वंश की स्थापना (Establishment of the Shunga Dynasty)

शुंग वंश की स्थापना मौर्य साम्राज्य के खंडहरों पर हुई थी। इसके संस्थापक पुष्यमित्र शुंग थे, जो अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ के सेनापति थे। 185 ईसा पूर्व में पुष्यमित्र ने एक सैन्य परेड के दौरान सार्वजनिक रूप से बृहद्रथ की हत्या कर दी और मगध के सिंहासन पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार, उन्होंने भारत में पहले ब्राह्मण राजवंश की नींव रखी। यह घटना मौर्यों की बौद्ध-अनुकूल नीतियों के खिलाफ एक ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया का प्रतीक भी मानी जाती है।

पुष्यमित्र शुंग (Pushyamitra Shunga)

पुष्यमित्र शुंग एक योग्य शासक और सेनापति थे। उन्होंने अपने शासनकाल में मौर्य साम्राज्य की सीमाओं को सुरक्षित करने का प्रयास किया। उनका सामना पश्चिमोत्तर से हो रहे यवन (इंडो-ग्रीक) आक्रमणों से हुआ। कालिदास के नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ से पता चलता है कि पुष्यमित्र के पोते वसुमित्र ने सिंधु नदी के तट पर यवनों को पराजित किया था। पुष्यमित्र ने अपने प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए दो **अश्वमेध यज्ञ (Ashvamedha Yajna)** भी करवाए, जिनकी पुष्टि अयोध्या अभिलेख से होती है।

ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान (Revival of Brahmanism)

शुंग काल को ब्राह्मण धर्म या वैदिक हिंदू धर्म के पुनरुत्थान का काल माना जाता है। पुष्यमित्र ने वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों को राजकीय संरक्षण प्रदान किया, जो मौर्य काल में पृष्ठभूमि में चले गए थे। प्रसिद्ध व्याकरणविद् पतंजलि, जिन्होंने ‘महाभाष्य’ की रचना की, पुष्यमित्र शुंग के समकालीन थे और माना जाता है कि उन्होंने उनके यज्ञों में पुरोहित की भूमिका निभाई थी। हालांकि, कुछ बौद्ध ग्रंथ उन्हें बौद्धों के उत्पीड़क के रूप में चित्रित करते हैं, लेकिन पुरातात्विक साक्ष्य इस बात का खंडन करते हैं।

कला और स्थापत्य में योगदान (Contribution to Art and Architecture)

बौद्ध ग्रंथों में नकारात्मक चित्रण के बावजूद, शुंग शासकों ने बौद्ध कला और स्थापत्य को भी संरक्षण दिया। उन्होंने भरहुत और सांची के प्रसिद्ध स्तूपों की वेदिकाओं (रेलिंग) और तोरण द्वारों का निर्माण और विस्तार करवाया। शुंग कला में मौर्यकालीन कला की तुलना में लोक कला के तत्व अधिक स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसमें जातक कथाओं के दृश्यों और यक्ष-यक्षिणियों का जीवंत चित्रण मिलता है, जो इसे और भी आकर्षक बनाता है।

पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी (Successors of Pushyamitra)

पुष्यमित्र के बाद उनके पुत्र अग्निमित्र शासक बने, जो कालिदास के नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ के नायक हैं। उनके बाद वसुमित्र, वज्रमित्र, भागभद्र और देवभूति जैसे शासकों ने शासन किया। भागभद्र के शासनकाल में, तक्षशिला के यवन शासक अंतलिखित (Antialcidas) के राजदूत हेलियोडोरस ने विदिशा (आधुनिक बेसनगर) का दौरा किया और भगवान वासुदेव के सम्मान में एक गरुड़ स्तंभ की स्थापना की। यह इस बात का प्रमाण है कि विदेशी भी वैष्णव धर्म अपना रहे थे।

शुंग वंश का पतन (Decline of the Shunga Dynasty)

समय के साथ, शुंग शासक कमजोर होते गए और उनका साम्राज्य सिकुड़ता गया। अंतिम शुंग शासक देवभूति एक विलासी और अयोग्य शासक थे। लगभग 73 ईसा पूर्व में, उनके ही मंत्री वासुदेव काण्व ने उनकी हत्या कर दी और मगध में **काण्व वंश (Kanva Dynasty)** की नींव रखी। इस प्रकार शुंग वंश का अंत हो गया, लेकिन उन्होंने ब्राह्मण धर्म को पुनर्जीवित करने और कला को संरक्षण देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

3. काण्व वंश (73-28 ईसा पूर्व) (Kanva Dynasty) 📜

काण्व वंश की स्थापना (Establishment of the Kanva Dynasty)

काण्व वंश, शुंग वंश के पतन के बाद मगध में स्थापित एक और ब्राह्मण राजवंश था। इसकी स्थापना 73 ईसा पूर्व में वासुदेव काण्व ने की थी। वासुदेव अंतिम शुंग शासक देवभूति के अमात्य (मंत्री) थे। उन्होंने देवभूति की कमजोरी और विलासिता का फायदा उठाकर उन्हें रास्ते से हटा दिया और स्वयं सिंहासन पर बैठ गए। इस राजवंश ने मगध पर बहुत कम समय के लिए शासन किया।

काण्व वंश के शासक (Rulers of the Kanva Dynasty)

काण्व वंश ने लगभग 45 वर्षों तक शासन किया, और इस दौरान कुल चार शासक हुए। वासुदेव के बाद उनके पुत्र भूमिमित्र, फिर नारायण और अंत में सुशर्मन ने शासन किया। इन शासकों के बारे में ऐतिहासिक जानकारी बहुत सीमित है और मुख्य रूप से पुराणों से ही मिलती है। उनके शासनकाल में शुंगों के समय की राजनीतिक और सांस्कृतिक परंपराएं संभवतः जारी रहीं।

एक अल्पकालिक राजवंश (A Short-lived Dynasty)

काण्व शासकों का प्रभाव क्षेत्र बहुत छोटा था और वे संभवतः पाटलिपुत्र और उसके आसपास के क्षेत्रों तक ही सीमित थे। वे शुंगों की तरह कोई बड़ा साम्राज्य स्थापित नहीं कर पाए। उनके समय में भारत के अन्य हिस्सों में, जैसे दक्कन में **सातवाहन (Satavahanas)** और पश्चिमोत्तर में विदेशी शक्तियां, अधिक शक्तिशाली हो रही थीं। काण्व शासक इन शक्तिशाली पड़ोसियों के सामने टिक नहीं सके।

काण्व वंश का अंत (End of the Kanva Dynasty)

लगभग 28 ईसा पूर्व में, दक्कन की एक शक्तिशाली शक्ति, सातवाहनों ने मगध पर आक्रमण किया। सातवाहन शासकों ने अंतिम काण्व शासक सुशर्मन को पराजित कर उनकी हत्या कर दी और मगध पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इस घटना के साथ ही काण्व वंश का अंत हो गया और मगध का राजनीतिक महत्व कुछ समय के लिए कम हो गया, क्योंकि सत्ता का केंद्र अब दक्कन की ओर स्थानांतरित हो गया था।

4. सातवाहन वंश (60 ईसा पूर्व – 225 ईस्वी) (Satavahana Dynasty) 🛡️

सातवाहनों का उदय (Rise of the Satavahanas)

सातवाहन वंश मौर्योत्तर काल में दक्कन (दक्षिण भारत) की सबसे महत्वपूर्ण और शक्तिशाली शक्ति थी। उन्हें पुराणों में ‘आंध्र’ भी कहा गया है। इस वंश की स्थापना सिमुक ने लगभग 60 ईसा पूर्व में की थी। उन्होंने अपनी राजधानी प्रतिष्ठान (आधुनिक पैठण, महाराष्ट्र) में स्थापित की। सातवाहनों ने मौर्यों के पतन के बाद दक्कन में एक बड़े और स्थायी साम्राज्य का निर्माण किया, जो लगभग 300 वर्षों तक चला।

प्रमुख सातवाहन शासक (Prominent Satavahana Rulers)

सातवाहन वंश में कई महान शासक हुए। शातकर्णी प्रथम एक प्रारंभिक शक्तिशाली शासक थे, जिन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया और ‘दक्षिणापथपति’ (दक्षिण के स्वामी) की उपाधि धारण की। हाल (Hala) एक अन्य प्रसिद्ध शासक थे, जो एक महान कवि भी थे और उन्होंने प्राकृत भाषा में ‘गाथासप्तशती’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की। इस वंश के सबसे महान शासक **गौतमीपुत्र शातकर्णी (Gautamiputra Satakarni)** थे।

गौतमीपुत्र शातकर्णी (Gautamiputra Satakarni)

गौतमीपुत्र शातकर्णी (लगभग 106-130 ईस्वी) ने सातवाहन वंश की खोई हुई प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित किया। उनकी मां गौतमी बालश्री के नासिक प्रशस्ति (Nashik Prashasti) में उनकी विजयों का शानदार वर्णन है। उन्होंने पश्चिमी क्षत्रपों (शकों) को हराया, विशेषकर नहपान को, और उनके साम्राज्य के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। उनका साम्राज्य उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक और पूर्व में आंध्र से लेकर पश्चिम में कोंकण तक फैला हुआ था।

मातृसत्तात्मक समाज की झलक (Glimpse of a Matrilineal Society)

सातवाहन समाज की एक अनूठी विशेषता यह थी कि शासक अपने नाम के आगे अपनी माँ का नाम लगाते थे, जैसे गौतमीपुत्र (गौतमी का पुत्र) और वासिष्ठीपुत्र (वासिष्ठी का पुत्र)। यह समाज में महिलाओं के उच्च सम्मान को दर्शाता है। हालांकि, उत्तराधिकार का नियम पितृसत्तात्मक ही था, यानी सिंहासन पिता के बाद पुत्र को ही मिलता था। यह प्रथा उनके समाज की एक विशिष्ट पहचान है।

आर्थिक समृद्धि और व्यापार (Economic Prosperity and Trade)

सातवाहन काल आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध था। उन्होंने भारत के आंतरिक और बाहरी व्यापार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका साम्राज्य पूर्वी और पश्चिमी तटों तक फैला हुआ था, जिससे उन्हें समुद्री व्यापार पर नियंत्रण रखने में मदद मिली। उन्होंने रोम के साथ مربح व्यापारिक संबंध स्थापित किए, जिसका प्रमाण भारत में पाए गए कई रोमन सिक्कों से मिलता है। उन्होंने सीसे, पोटीन, तांबे और कांसे के सिक्के भी जारी किए।

धर्म और स्थापत्य को संरक्षण (Patronage to Religion and Architecture)

सातवाहन शासक वैदिक धर्म के अनुयायी थे और उन्होंने ब्राह्मणों को भूमि अनुदान (land grants) देने की प्रथा शुरू की। फिर भी, वे अन्य धर्मों के प्रति बहुत सहिष्णु थे। उन्होंने बौद्ध धर्म और जैन धर्म को भी उदारतापूर्वक संरक्षण दिया। उनके शासनकाल में पश्चिमी घाट में कई शानदार चैत्य (पूजा हॉल) और विहार (मठ) चट्टानों को काटकर बनाए गए, जैसे कि कार्ले, भाजा, कन्हेरी और नासिक की गुफाएं। अमरावती और नागार्जुनकोंडा के स्तूप भी उनके संरक्षण में फले-फूले।

5. विदेशी आक्रमणकारी और शासक (Foreign Invaders and Rulers) 🌏

मौर्योत्तर काल में भारत के पश्चिमोत्तर सीमांत पर राजनीतिक अस्थिरता ने विदेशी आक्रमणकारियों के लिए द्वार खोल दिए। मध्य एशिया में चल रही उथल-पुथल के कारण कई जनजातियों और समूहों ने भारत की ओर रुख किया। इनमें इंडो-ग्रीक, शक, पार्थियन और कुषाण प्रमुख थे। इन शासकों ने न केवल भारत में अपने राज्य स्थापित किए बल्कि भारतीय संस्कृति के साथ एक गहरा संबंध भी बनाया।

5.1. इंडो-ग्रीक शासक (Indo-Greek Rulers)

बैक्टीरियन यूनानी (Bactrian Greeks)

इंडो-ग्रीक या हिंद-यवन शासक मूल रूप से बैक्ट्रिया (उत्तरी अफगानिस्तान) के यूनानी थे, जो सिकंदर के उत्तराधिकारियों के साम्राज्य का हिस्सा था। लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में, उन्होंने हिंदूकुश पर्वत को पार कर पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण किया। डेमेट्रियस इस आक्रमण का नेतृत्व करने वाले पहले यूनानी शासकों में से एक थे। उन्होंने पंजाब और सिंध के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की।

मिनांडर (मिलिंद) (Menander (Milinda))

सबसे प्रसिद्ध इंडो-ग्रीक शासक मिनांडर (लगभग 165-145 ईसा पूर्व) थे, जिन्हें बौद्ध ग्रंथों में ‘मिलिंद’ के नाम से जाना जाता है। उनकी राजधानी साकल (आधुनिक सियालकोट) थी। वह एक न्यायप्रिय और लोकप्रिय राजा थे। प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ **’मिलिंदपन्हो’ (Milinda Panho)** में बौद्ध भिक्षु नागसेन और राजा मिलिंद के बीच दार्शनिक प्रश्नों पर एक गहन संवाद दर्ज है। माना जाता है कि इस संवाद के बाद मिनांडर ने बौद्ध धर्म अपना लिया था।

इंडो-ग्रीक का योगदान (Contribution of the Indo-Greeks)

इंडो-ग्रीक शासकों का भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान है। वे पहले शासक थे जिन्होंने भारत में ऐसे सिक्के जारी किए जिन पर शासक का चित्र और नाम स्पष्ट रूप से अंकित होता था। इस प्रथा ने भविष्य के भारतीय सिक्कों के लिए एक मानक स्थापित किया। उन्होंने भारतीय खगोल विज्ञान और ज्योतिष को भी प्रभावित किया। उनकी कला, जिसे हेलेनिस्टिक कला (Hellenistic Art) कहा जाता है, ने बाद में गांधार कला के विकास की नींव रखी।

5.2. शक शासक (Saka Rulers)

शकों का आगमन (Arrival of the Sakas)

शकों, जिन्हें सीथियन भी कहा जाता है, मध्य एशिया की एक खानाबदोश जनजाति थी। यू-ची जनजाति (कुषाणों के पूर्वज) द्वारा अपने मूल स्थान से खदेड़े जाने के बाद, वे भारत की ओर बढ़े। उन्होंने इंडो-ग्रीक शासकों को हराकर पश्चिमोत्तर भारत, पंजाब और पश्चिमी भारत में अपनी सत्ता स्थापित की। शकों की भारत में पाँच शाखाएँ थीं, जिनकी राजधानियाँ तक्षशिला, मथुरा, नासिक, उज्जैन और अफगानिस्तान में थीं।

रुद्रदामन प्रथम (Rudradaman I)

शक शासकों में सबसे प्रसिद्ध पश्चिमी क्षत्रप शाखा के रुद्रदामन प्रथम (लगभग 130-150 ईस्वी) थे। उनका साम्राज्य सिंध, गुजरात, कोंकण, मालवा और काठियावाड़ तक फैला हुआ था। उनकी उपलब्धियों का वर्णन जूनागढ़ (गिरनार) शिलालेख में मिलता है, जो विशुद्ध संस्कृत में लिखा गया पहला लंबा शिलालेख है। इस शिलालेख में उनके द्वारा प्रसिद्ध सुदर्शन झील (Sudarshan Lake) के पुनर्निर्माण का भी उल्लेख है, जिसका निर्माण मूल रूप से चंद्रगुप्त मौर्य के समय में हुआ था।

शक-सातवाहन संघर्ष (Saka-Satavahana Conflict)

पश्चिमी भारत में शक और दक्कन में सातवाहन पड़ोसी थे, और उनके बीच अपने-अपने क्षेत्रों पर प्रभुत्व के लिए लंबा संघर्ष चला। गौतमीपुत्र शातकर्णी ने शक शासक नहपान को बुरी तरह पराजित किया था। हालांकि, बाद में रुद्रदामन ने सातवाहन शासक वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी को दो बार हराया, लेकिन वैवाहिक संबंधों के कारण उन्हें नष्ट नहीं किया। यह संघर्ष मौर्योत्तर काल की राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।

5.3. पार्थियन (पह्लव) शासक (Parthian Rulers)

पार्थियनों का शासन (Rule of the Parthians)

पार्थियन या पह्लव मूल रूप से ईरान के थे। उन्होंने पश्चिमोत्तर भारत में शकों के बाद अपनी सत्ता स्थापित की। उनका शासन काल बहुत छोटा था और उनका प्रभाव क्षेत्र भी सीमित था। उनका शासन मुख्य रूप से गांधार क्षेत्र (आधुनिक पाकिस्तान और अफगानिस्तान) में केंद्रित था। भारतीय इतिहास में उनका उल्लेख बहुत कम मिलता है।

गोंडोफर्नेस (Gondophares)

पार्थियन शासकों में सबसे प्रसिद्ध गोंडोफर्नेस (लगभग 20-41 ईस्वी) थे। उनके शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना ईसाई धर्म प्रचारक सेंट थॉमस (St. Thomas) के भारत आगमन से जुड़ी है। ईसाई परंपरा के अनुसार, सेंट थॉमस उनके दरबार में आए थे ताकि वे ईसाई धर्म का प्रचार कर सकें। माना जाता है कि बाद में उनकी मृत्यु दक्षिण भारत में हुई। इस प्रकार, पार्थियन काल भारत में ईसाई धर्म के आगमन का साक्षी बना।

6. कुषाण साम्राज्य और कनिष्क (Kushan Empire and Kanishka) 👑

कुषाणों का उदय (Rise of the Kushans)

कुषाण, यू-ची (Yuezhi) नामक कबीले की एक शाखा थे जो मूल रूप से चीन के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के निवासी थे। शकों की तरह उन्हें भी वहां से खदेड़ दिया गया था, जिसके बाद वे मध्य एशिया और फिर भारत आए। भारत में कुषाण वंश की स्थापना कुजुल कडफिसेस ने की थी। उन्होंने पार्थियनों और शकों को हराकर काबुल और कश्मीर पर अधिकार कर लिया। उनके बाद उनके पुत्र विम कडफिसेस ने साम्राज्य का विस्तार किया और भारत में बड़े पैमाने पर सोने के सिक्के जारी करने वाले पहले शासक बने।

कनिष्क महान (Kanishka the Great)

कुषाण वंश का सबसे महान शासक कनिष्क (लगभग 78-101 ईस्वी) था। उनके राज्यारोहण की तिथि (78 ईस्वी) को **शक संवत् (Saka Era)** की शुरुआत माना जाता है, जिसका उपयोग आज भी भारत सरकार द्वारा किया जाता है। कनिष्क का साम्राज्य बहुत विशाल था, जो मध्य एशिया के ऑक्सस से लेकर भारत में गंगा के मैदानों तक और कश्मीर से लेकर सिंध तक फैला हुआ था। उनकी दो राजधानियाँ थीं – पुरुषपुर (आधुनिक पेशावर) और मथुरा।

रेशम मार्ग पर नियंत्रण (Control over the Silk Road)

कनिष्क के साम्राज्य की भौगोलिक स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण थी। उनका साम्राज्य प्रसिद्ध **रेशम मार्ग (Silk Road)** के एक बड़े हिस्से को नियंत्रित करता था, जो चीन को पश्चिमी दुनिया से जोड़ता था। इस मार्ग से गुजरने वाले कारवां पर कर लगाकर कुषाणों ने immense wealth (अत्यधिक धन) अर्जित किया। इस आर्थिक समृद्धि ने उनके साम्राज्य को स्थिरता प्रदान की और कला तथा संस्कृति के विकास में मदद की।

बौद्ध धर्म का संरक्षक (Patron of Buddhism)

कनिष्क को भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म के एक महान संरक्षक के रूप में याद किया जाता है। उन्होंने सम्राट अशोक की तरह बौद्ध धर्म को अपनाया और उसके प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके शासनकाल में कश्मीर के कुंडलवन में चौथी बौद्ध संगीति (Fourth Buddhist Council) का आयोजन किया गया। इसी संगीति में बौद्ध धर्म स्पष्ट रूप से दो संप्रदायों – हीनयान और महायान – में विभाजित हो गया। कनिष्क ने महायान बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया।

कला और विद्वानों का संरक्षण (Patronage of Art and Scholars)

कनिष्क का दरबार कई महान विद्वानों से सुशोभित था। अश्वघोष (जिन्होंने ‘बुद्धचरित’ लिखी), वसुमित्र (जिन्होंने चौथी बौद्ध संगीति की अध्यक्षता की), और महान दार्शनिक नागार्जुन उनके दरबार में थे। प्रसिद्ध आयुर्वेद चिकित्सक चरक, जिन्होंने ‘चरक संहिता’ की रचना की, भी कनिष्क के राजवैद्य थे। उनके शासनकाल में कला की दो महान शैलियों – **गांधार शैली (Gandhara School)** और **मथुरा शैली (Mathura School)** – का भी जबरदस्त विकास हुआ।

कनिष्क के उत्तराधिकारी और पतन (Successors of Kanishka and Decline)

कनिष्क के बाद वासिष्क, हुविष्क और वासुदेव जैसे शासकों ने शासन किया। वासुदेव के शासनकाल तक कुषाण साम्राज्य का पतन शुरू हो गया था। आंतरिक कमजोरियों और बाहरी आक्रमणों, विशेष रूप से ईरान के सासानियन साम्राज्य के उदय ने कुषाण शक्ति को कमजोर कर दिया। तीसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य तक, उनका विशाल साम्राज्य छोटे-छोटे राज्यों में बिखर गया, जिससे बाद में गुप्त साम्राज्य के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ।

7. मौर्योत्तर काल का प्रशासन (Administration in the Post-Mauryan Period) ⚖️

केंद्रीकृत से विकेंद्रीकृत प्रणाली (From Centralized to Decentralized System)

मौर्य प्रशासन अपनी अत्यधिक केंद्रीकृत प्रकृति के लिए जाना जाता था, जहाँ सम्राट के पास सभी शक्तियाँ होती थीं। इसके विपरीत, मौर्योत्तर काल में प्रशासनिक ढांचा काफी हद तक विकेंद्रीकृत था। इस काल के शासकों ने सामंती व्यवस्था के बीज बोए। राजा अब भी सर्वोच्च अधिकारी होता था, लेकिन वह अपने अधीन कई छोटे राजाओं और सामंतों (feudatories) के माध्यम से शासन करता था, जो उसे कर और सैन्य सहायता प्रदान करते थे।

विदेशी प्रशासनिक तत्वों का समावेश (Inclusion of Foreign Administrative Elements)

शक और कुषाण जैसे विदेशी शासक अपने साथ अपनी प्रशासनिक प्रणालियाँ भी लेकर आए। उन्होंने ‘क्षत्रप’ (Satrap) प्रणाली को अपनाया, जिसमें साम्राज्य को प्रांतों में विभाजित किया जाता था और प्रत्येक प्रांत पर एक क्षत्रप या महाक्षत्रप शासन करता था। यह प्रणाली ईरानी (Achaemenid) प्रशासन से प्रेरित थी। कुषाण शासकों ने ‘देवपुत्र’ (Son of God) जैसी दिव्य उपाधियाँ भी धारण कीं, जो चीनी और रोमन परंपराओं से प्रभावित थीं।

सातवाहन प्रशासन (Satavahana Administration)

सातवाहनों ने मौर्य प्रशासन के कुछ तत्वों को बनाए रखा लेकिन उनमें महत्वपूर्ण बदलाव किए। उन्होंने अपने साम्राज्य को ‘आहार’ (Aharas) नामक जिलों में विभाजित किया, जो मौर्यकालीन ‘विषय’ के समान थे। इन जिलों का प्रशासन ‘अमात्य’ और ‘महामात्य’ जैसे अधिकारियों द्वारा किया जाता था। सातवाहनों ने ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं को कर-मुक्त भूमि अनुदान देने की प्रथा शुरू की, जिसका भविष्य की भारतीय राजव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा।

सैन्य संगठन (Military Organization)

मौर्योत्तर काल निरंतर सैन्य संघर्षों का युग था, इसलिए एक मजबूत सेना रखना सभी राज्यों के लिए आवश्यक था। सेना में पैदल सेना, घुड़सवार सेना, हाथी और रथ शामिल थे। कुषाणों ने मध्य एशियाई युद्ध तकनीकों को भारतीय सेना में शामिल किया, जैसे कि बेहतर घुड़सवारी और कवच का उपयोग। यह सैन्य संगठन काफी हद तक सामंती था, जहाँ अधीनस्थ शासक आवश्यकता पड़ने पर राजा को सैन्य टुकड़ियाँ प्रदान करते थे।

न्याय और राजस्व प्रणाली (Judicial and Revenue System)

न्याय प्रशासन के शीर्ष पर राजा होता था। ग्रामीण स्तर पर, ग्राम सभाएं और स्थानीय नेता छोटे-मोटे विवादों का निपटारा करते थे। राजस्व का मुख्य स्रोत भू-राजस्व (land revenue) था, जो आमतौर पर उपज का 1/6 हिस्सा होता था। इसके अलावा, व्यापार, खानों, जंगलों और विभिन्न शिल्पों पर भी कर लगाए जाते थे। कुषाणों ने रेशम मार्ग से होने वाले व्यापार पर भारी कर लगाकर अपनी आय में काफी वृद्धि की।

8. समाज और अर्थव्यवस्था (Society and Economy) 💰

सामाजिक संरचना और वर्ण व्यवस्था (Social Structure and Varna System)

मौर्योत्तर काल में भारतीय समाज में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। ‘मनुस्मृति’ जैसे धर्मशास्त्रों की रचना इसी काल में हुई, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को और अधिक कठोर बनाने का प्रयास किया। ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च बना रहा, जबकि विभिन्न शिल्पों और व्यवसायों के आधार पर कई नई जातियों और उप-जातियों का उदय हुआ। समाज में चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – का विभाजन स्पष्ट रूप से स्थापित था।

विदेशियों का भारतीय समाज में विलय (Assimilation of Foreigners into Indian Society)

इस काल की एक प्रमुख सामाजिक विशेषता बड़ी संख्या में विदेशियों का भारतीय समाज में समावेश था। इंडो-ग्रीक, शक, पार्थियन और कुषाण जो भारत में बस गए, उन्होंने धीरे-धीरे भारतीय धर्म, भाषा और रीति-रिवाजों को अपना लिया। धर्मशास्त्रों ने उन्हें ‘व्रात्य क्षत्रिय’ (पतित क्षत्रिय) का दर्जा दिया, जिससे उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल होने में मदद मिली। यह भारतीय समाज की आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है।

महिलाओं की स्थिति (Status of Women)

इस काल में सामान्यतः महिलाओं की स्थिति में गिरावट आई। बाल विवाह को प्रोत्साहित किया गया और विधवा पुनर्विवाह को हतोत्साहित किया गया। हालांकि, उच्च वर्गों की महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने की स्वतंत्रता थी। सातवाहन राजवंश में महिलाओं को उच्च सम्मान प्राप्त था, जैसा कि शासकों द्वारा अपनी माँ का नाम धारण करने की प्रथा से स्पष्ट है। कुछ सातवाहन रानियों ने प्रशासन में भी सक्रिय भूमिका निभाई।

शिल्प और व्यापारिक संघ (Crafts and Trade Guilds)

मौर्योत्तर काल शहरी शिल्प और वाणिज्य के विकास का स्वर्ण युग था। कपड़ा बनाना, धातु का काम, आभूषण बनाना, हाथीदांत का काम और कई अन्य शिल्प उन्नत अवस्था में थे। कारीगरों और व्यापारियों ने अपने हितों की रक्षा के लिए **’श्रेणी’ (Shreni)** या गिल्ड नामक संघों का गठन किया। ये श्रेणियां बहुत शक्तिशाली थीं; वे बैंकों के रूप में भी काम करती थीं, धन जमा करती थीं और ऋण पर ब्याज देती थीं।

आंतरिक और बाह्य व्यापार (Internal and External Trade)

इस काल में व्यापार अपने चरम पर था। भारत के भीतर, ‘उत्तरापथ’ (उत्तर का मार्ग) और ‘दक्षिणापथ’ (दक्षिण का मार्ग) जैसे प्रमुख व्यापारिक मार्गों से माल का परिवहन होता था। बाह्य व्यापार भी बहुत फला-फूला, विशेष रूप से रोमन साम्राज्य के साथ। भारत से मसाले, मलमल, रेशम, कीमती पत्थर और इत्र जैसी विलासिता की वस्तुएं निर्यात की जाती थीं, जबकि रोम से शराब, सोने और चांदी के सिक्के आयात किए जाते थे।

सिक्कों का प्रचलन (Circulation of Coins)

बढ़ते व्यापार और वाणिज्य ने सिक्कों के व्यापक उपयोग को बढ़ावा दिया। मौर्यों के आहत सिक्कों (punch-marked coins) के विपरीत, इस काल में विभिन्न राजवंशों ने अपने स्वयं के सुंदर और सुव्यवस्थित सिक्के जारी किए। इंडो-ग्रीक ने शासक के चित्र वाले सिक्के पेश किए। कुषाणों ने बड़ी संख्या में सोने के सिक्के जारी किए, जो रोमन सिक्कों की नकल पर आधारित थे। सातवाहनों ने मुख्य रूप से सीसे और पोटीन के सिक्के चलाए, जो दक्कन में व्यापार के लिए महत्वपूर्ण थे।

9. धर्म और संस्कृति (Religion and Culture) 🕉️☸️

ब्राह्मण धर्म का विकास और भक्ति आंदोलन (Development of Brahmanism and Bhakti Movement)

मौर्योत्तर काल में ब्राह्मण या हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। शुंग और सातवाहन जैसे शासकों के संरक्षण में वैदिक यज्ञ और अनुष्ठान फिर से लोकप्रिय हुए। इसी समय, दो प्रमुख संप्रदायों – वैष्णव धर्म (भगवान विष्णु की पूजा) और शैव धर्म (भगवान शिव की पूजा) – का उदय हुआ। इस काल की सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक अवधारणा **भक्ति (Bhakti)** का विकास थी, जिसका अर्थ है ईश्वर के प्रति पूर्ण प्रेम और समर्पण।

बौद्ध धर्म का विभाजन: हीनयान और महायान (Division of Buddhism: Hinayana and Mahayana)

बौद्ध धर्म में इस काल में सबसे बड़ा परिवर्तन आया। कनिष्क के समय में हुई चौथी बौद्ध संगीति में, यह दो मुख्य शाखाओं में विभाजित हो गया। हीनयान (‘छोटा वाहन’) शाखा ने बुद्ध की मूल शिक्षाओं और आत्म-अनुशासन पर जोर दिया, जबकि **महायान (Mahayana)** (‘बड़ा वाहन’) शाखा ने बुद्ध को एक देवता के रूप में पूजना शुरू कर दिया और बोधिसत्व (जो दूसरों की मदद के लिए निर्वाण स्थगित करते हैं) की अवधारणा को विकसित किया। महायान अधिक लोकप्रिय हुआ क्योंकि यह आम लोगों के लिए सरल और आकर्षक था।

जैन धर्म का प्रसार (Spread of Jainism)

जैन धर्म को भी इस काल में संरक्षण मिलता रहा। यह मुख्य रूप से पश्चिमी भारत (गुजरात और राजस्थान) और दक्षिणी भारत (कर्नाटक और तमिलनाडु) में फला-फूला। मथुरा इस अवधि में जैन कला और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। उड़ीसा के राजा खारवेल जैन धर्म के एक महान संरक्षक थे, जैसा कि उनके हाथीगुम्फा शिलालेख से पता चलता है।

साहित्यिक विकास: संस्कृत और प्राकृत (Literary Development: Sanskrit and Prakrit)

इस काल में साहित्य के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई। संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ। पतंजलि ने पाणिनि के व्याकरण पर ‘महाभाष्य’ लिखा। अश्वघोष ने संस्कृत में ‘बुद्धचरित’ (बुद्ध की जीवनी) और ‘सौन्दरानन्द’ जैसे महाकाव्य लिखे। भास जैसे नाटककारों ने संस्कृत में कई प्रसिद्ध नाटक लिखे। इसके साथ ही, प्राकृत भाषा भी साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित हुई। सातवाहन राजा हाल ने प्राकृत में ‘गाथासप्तशती’ की रचना की और गुणाढ्य ने ‘बृहत्कथा’ लिखी।

वैज्ञानिक प्रगति (Scientific Progress)

विज्ञान के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण विकास हुआ। यूनानियों के संपर्क में आने से खगोल विज्ञान और ज्योतिष में प्रगति हुई। भारतीय खगोलविदों ने यूनानी अवधारणाओं को अपनाया। चिकित्सा के क्षेत्र में, चरक ने ‘चरक संहिता’ की रचना की, जो आयुर्वेद का एक मौलिक ग्रंथ है। यह ग्रंथ विभिन्न रोगों, उनके निदान और उपचार का विस्तृत वर्णन करता है और भारतीय चिकित्सा पद्धति की नींव रखता है।

10. कला और स्थापत्य (Art and Architecture) 🎨

मौर्योत्तर कला की विशेषताएँ (Characteristics of Post-Mauryan Art)

मौर्योत्तर काल की कला मौर्यकालीन दरबारी कला से भिन्न है। इसमें लोक कला के तत्व और आम जीवन के विषयों का अधिक समावेश है। इस काल में मूर्ति कला का अभूतपूर्व विकास हुआ और तीन प्रमुख कला शैलियों का उदय हुआ: गांधार, मथुरा और अमरावती। स्थापत्य के क्षेत्र में, स्तूपों का विस्तार और चैत्य तथा विहारों का निर्माण प्रमुख था। यह कला धर्म से गहराई से जुड़ी हुई थी, विशेषकर बौद्ध धर्म से।

गांधार कला शैली (Gandhara School of Art)

गांधार कला शैली का विकास पश्चिमोत्तर भारत के गांधार क्षेत्र (आधुनिक पेशावर और अफगानिस्तान) में कुषाणों के संरक्षण में हुआ। इसे ग्रीको-बौद्ध (Greco-Buddhist) कला भी कहा जाता है क्योंकि इसमें विषय-वस्तु तो भारतीय (बौद्ध) थी, लेकिन निर्माण शैली यूनानी और रोमन थी। इस शैली में बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियों को यूनानी देवता अपोलो की तरह घुंघराले बालों, मांसल शरीर और पारदर्शी वस्त्रों में दिखाया गया है। इसमें नीले-धूसर बलुआ पत्थर का उपयोग किया जाता था।

मथुरा कला शैली (Mathura School of Art)

मथुरा कला शैली कुषाण काल में मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्रों में विकसित हुई। यह पूरी तरह से एक स्वदेशी शैली थी। इस शैली के कलाकारों ने स्थानीय रूप से उपलब्ध लाल चित्तीदार बलुआ पत्थर का उपयोग किया। मथुरा कला की सबसे बड़ी देन यह है कि इसने पहली बार बुद्ध की मानवीय रूप में मूर्तियाँ बनाईं। बुद्ध को यहाँ एक योगी के रूप में, प्रसन्न मुख, मुंडित सिर और शरीर से चिपके वस्त्रों में दिखाया गया है। इस शैली में बौद्ध, जैन और हिंदू तीनों धर्मों से संबंधित मूर्तियाँ बनाई गईं।

अमरावती कला शैली (Amaravati School of Art)

अमरावती कला शैली का विकास सातवाहनों के संरक्षण में आंध्र प्रदेश में कृष्णा और गोदावरी नदियों की घाटी में हुआ। यह भी एक स्वदेशी शैली थी, जिसमें सफेद संगमरमर का उपयोग किया जाता था। इस शैली की मुख्य विशेषता इसकी कथात्मक प्रकृति है, जिसमें बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं की घटनाओं को बहुत ही जीवंत और भीड़-भाड़ वाले दृश्यों में उकेरा गया है। यहाँ बुद्ध को अक्सर प्रतीकों (जैसे खाली सिंहासन या पदचिह्न) के माध्यम से दर्शाया गया है, हालांकि बाद में मानवीय रूप भी बनाए गए।

स्थापत्य: स्तूप, चैत्य और विहार (Architecture: Stupas, Chaityas, and Viharas)

इस काल में स्तूप निर्माण की कला और भी विकसित हुई। सांची और भरहुत के स्तूपों में सुंदर पत्थर की वेदिकाएं (रेलिंग) और तोरण द्वार (गेटवे) जोड़े गए, जिन पर जातक कथाओं के दृश्य उकेरे गए हैं। दक्कन में, सातवाहनों ने चट्टानों को काटकर विशाल चैत्य (बौद्ध पूजा हॉल) और विहार (बौद्ध भिक्षुओं के रहने का स्थान) बनवाए। कार्ले का चैत्य अपनी भव्यता और विशालता के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें एक विशाल घोड़े की नाल के आकार की खिड़की और अलंकृत स्तंभ हैं।

11. मौर्योत्तर काल का ऐतिहासिक महत्व (Historical Significance of the Post-Mauryan Period) ✨

राजनीतिक संक्रमण का काल (A Period of Political Transition)

मौर्योत्तर काल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण संक्रमण काल था। यह मौर्यों के केंद्रीकृत साम्राज्य और गुप्तों के शास्त्रीय साम्राज्य के बीच की कड़ी है। इस काल ने दिखाया कि कैसे एक विशाल साम्राज्य के पतन के बाद भारत छोटी-छोटी शक्तियों में बंट गया, लेकिन सभ्यता की निरंतरता बनी रही। इसने क्षेत्रीय शक्तियों के उदय और एक विकेंद्रीकृत राजनीतिक संरचना के विकास को चिह्नित किया, जो मध्ययुगीन भारत की विशेषता बनने वाली थी।

सांस्कृतिक संश्लेषण और वैश्वीकरण (Cultural Synthesis and Globalization)

इस काल का सबसे बड़ा महत्व विभिन्न संस्कृतियों के बीच हुए आदान-प्रदान और संश्लेषण में निहित है। भारतीय, यूनानी, ईरानी और मध्य एशियाई संस्कृतियों के मेल ने एक अनूठी **समन्वित संस्कृति (syncretic culture)** को जन्म दिया। यह संगम कला (गांधार शैली), प्रशासन (क्षत्रप प्रणाली), धर्म (विदेशियों द्वारा भारतीय धर्मों को अपनाना) और विज्ञान (खगोल विज्ञान) में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यह प्राचीन भारत में वैश्वीकरण का एक प्रारंभिक रूप था।

आर्थिक समृद्धि का युग (An Era of Economic Prosperity)

राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद, यह काल अभूतपूर्व आर्थिक समृद्धि का युग था। रोमन साम्राज्य और दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार ने भारत को बहुत धनी बना दिया। शहरी केंद्रों, शिल्पों और व्यापारिक संघों के विकास ने अर्थव्यवस्था को एक नई गति दी। इस आर्थिक आधार ने कला, साहित्य और धर्म के विकास के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान किए और भारत को ‘सोने की चिड़िया’ बनाने में योगदान दिया।

धर्म में स्थायी परिवर्तन (Lasting Changes in Religion)

मौर्योत्तर काल ने भारतीय धार्मिक परिदृश्य को स्थायी रूप से बदल दिया। महायान बौद्ध धर्म का उदय और उसका मध्य एशिया और चीन में प्रसार इसी काल की देन है। हिंदू धर्म में भक्ति आंदोलन की शुरुआत और वैष्णव तथा शैव संप्रदायों का विकास भी इसी दौरान हुआ। इन परिवर्तनों ने आज तक भारतीय लोगों के धार्मिक जीवन को प्रभावित किया है और भारत की आध्यात्मिक विरासत को आकार दिया है।

कला और साहित्य की विरासत (Legacy of Art and Literature)

इस काल की कलात्मक और साहित्यिक उपलब्धियाँ भारतीय सभ्यता की अमूल्य धरोहर हैं। गांधार और मथुरा कला शैलियों ने बुद्ध की छवि को परिभाषित किया, जो आज पूरी दुनिया में पहचानी जाती है। संस्कृत और प्राकृत में रचे गए ग्रंथ भारतीय साहित्य के मील के पत्थर हैं। यह सांस्कृतिक विरासत गुप्त काल के ‘स्वर्ण युग’ के लिए एक मजबूत नींव के रूप में काम करती है, यह दर्शाती है कि मौर्योत्तर काल केवल एक ‘अंधकार युग’ नहीं, बल्कि एक रचनात्मक और गतिशील अवधि थी।

12. निष्कर्ष (Conclusion) 🏁

एक गतिशील और रचनात्मक युग (A Dynamic and Creative Era)

मौर्योत्तर काल, जो लगभग पांच शताब्दियों तक चला, भारतीय इतिहास का एक अत्यंत गतिशील और रचनात्मक चरण था। यह केवल राजनीतिक विखंडन और विदेशी आक्रमणों का युग नहीं था, बल्कि यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान, आर्थिक समृद्धि और गहन धार्मिक-दार्शनिक मंथन का भी काल था। इस अवधि में भारत ने बाहरी प्रभावों को न केवल सहन किया, बल्कि उन्हें अपनी सभ्यता के ताने-बाने में सफलतापूर्वक बुन लिया, जिससे एक और भी समृद्ध और विविध संस्कृति का निर्माण हुआ।

भविष्य की नींव (Foundation for the Future)

इस काल में शुंग, सातवाहन, कुषाण और अन्य शक्तियों ने जो राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नींव रखी, उसी पर गुप्त साम्राज्य का भव्य भवन खड़ा हुआ। भक्ति आंदोलन, महायान बौद्ध धर्म, संस्कृत साहित्य का पुनरुत्थान और कला की महान शैलियाँ, ये सभी मौर्योत्तर काल की देन हैं जिनका प्रभाव आज भी महसूस किया जा सकता है। इसलिए, यह काल भारतीय इतिहास की समझ के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो हमें भारत की अद्भुत अनुकूलन क्षमता और सांस्कृतिक जीवंतता की कहानी बताता है।

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