विषय सूची (Table of Contents) 📜
- यूरोपियों का आगमन: एक परिचय (Arrival of Europeans: An Introduction)
- पोर्तुगीज का आगमन और गोवा का कब्जा (Arrival of the Portuguese and the Capture of Goa)
- डच ईस्ट इंडिया कंपनी और व्यापारिक केंद्र (Dutch East India Company and Trading Centers)
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन और स्थापना (Arrival and Establishment of the British East India Company)
- फ्रांसीसी और अन्य यूरोपीय राष्ट्रों का प्रभाव (Influence of the French and Other European Nations)
- यूरोपीय व्यापार और आर्थिक नियंत्रण (European Trade and Economic Control)
- राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रभुत्व की स्थापना (Political Intervention and Establishment of Dominance)
- सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव (Social, Religious, and Cultural Impact)
- ऐतिहासिक महत्व और निष्कर्ष (Historical Significance and Conclusion)
1. यूरोपियों का आगमन: एक परिचय (Arrival of Europeans: An Introduction) 🗺️
प्राचीन काल से भारत के व्यापारिक संबंध (India’s Trade Relations Since Ancient Times)
प्राचीन काल से ही भारत अपने मसालों, रेशम, और कीमती रत्नों के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध था। यूरोप के साथ भारत का व्यापार सदियों पुराना था, जो मुख्य रूप से ज़मीनी मार्गों, जैसे कि प्रसिद्ध रेशम मार्ग (Silk Route), और समुद्री मार्गों से होता था। ये व्यापारिक संबंध न केवल आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण थे, बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान का भी एक बड़ा माध्यम थे, जिसने दोनों सभ्यताओं को समृद्ध किया। भारत की समृद्धि की कहानियाँ यूरोपीय व्यापारियों और नाविकों को हमेशा आकर्षित करती थीं।
नए समुद्री मार्गों की खोज की आवश्यकता (The Need to Discover New Sea Routes)
15वीं शताब्दी के मध्य में एक महत्वपूर्ण घटना घटी जिसने यूरोप और भारत के बीच व्यापार का समीकरण बदल दिया। 1453 में, उस्मानी साम्राज्य (Ottoman Empire) ने कुस्तुनतुनिया (Constantinople) पर कब्ज़ा कर लिया। इस घटना के कारण यूरोप और एशिया के बीच के पारंपरिक ज़मीनी व्यापारिक मार्ग बाधित हो गए। यूरोपीय व्यापारियों को अब भारतीय सामानों के लिए अरब व्यापारियों को भारी कर देना पड़ता था, जिससे उनका मुनाफा बहुत कम हो गया था। इसी कारण यूरोप के राष्ट्रों ने भारत तक पहुँचने के लिए एक नए और सीधे समुद्री मार्ग (sea route) की खोज शुरू कर दी।
पुनर्जागरण और वैज्ञानिक प्रगति का योगदान (Contribution of Renaissance and Scientific Progress)
इसी दौर में यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance) का दौर चल रहा था, जिससे वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति को बढ़ावा मिला। जहाज निर्माण की बेहतर तकनीक, दिशा सूचक यंत्र (मैग्नेटिक कंपास) का विकास, और खगोल विज्ञान में हुई प्रगति ने लंबी समुद्री यात्राओं को संभव बना दिया। साहसी नाविकों और राजाओं ने इस नई तकनीक का उपयोग करके अज्ञात समुद्रों की खोज करने का बीड़ा उठाया, जिसमें भारत की खोज एक प्रमुख लक्ष्य था।
यूरोपीय शक्तियों का उद्देश्य (Objective of the European Powers)
यूरोपीय शक्तियों का भारत आने का प्राथमिक उद्देश्य व्यापार करना और मुनाफा कमाना था। वे भारत के मसालों, विशेषकर काली मिर्च, लौंग, और दालचीनी पर एकाधिकार स्थापित करना चाहते थे, जिनकी यूरोप में बहुत अधिक मांग थी। इसके अलावा, ईसाई धर्म का प्रचार भी उनके उद्देश्यों में से एक था। समय के साथ, उनका उद्देश्य केवल व्यापार तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वे भारत की राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर यहाँ अपने उपनिवेश (colonies) स्थापित करने की महत्वाकांक्षा भी पालने लगे।
भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति (The Political Situation in India at that Time)
जिस समय यूरोपीय भारत आए, उस समय भारत राजनीतिक रूप से विखंडित था। उत्तर में शक्तिशाली मुग़ल साम्राज्य का पतन शुरू हो चुका था और देश कई छोटे-छोटे राज्यों और रजवाड़ों में बंटा हुआ था। ये राज्य अक्सर आपस में लड़ते रहते थे, जिससे एक केंद्रीय शक्ति का अभाव था। इस राजनीतिक फूट और आपसी संघर्ष ने यूरोपीय शक्तियों को भारत में अपने पैर जमाने का सुनहरा अवसर प्रदान किया, जिसका उन्होंने भरपूर फायदा उठाया।
यूरोपीय आगमन का क्रम (The Sequence of European Arrival)
भारत में यूरोपीय शक्तियों का आगमन एक क्रम में हुआ, जिसने भारतीय इतिहास की दिशा बदल दी। सबसे पहले 1498 में पुर्तगाली आए, जिनके बाद 17वीं शताब्दी की शुरुआत में डच और अंग्रेज आए। इनके कुछ समय बाद डेनिश और फ्रांसीसी भी व्यापार के उद्देश्य से भारत पहुँचे। इन सभी शक्तियों के बीच व्यापारिक और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए एक लंबा संघर्ष चला, जिसमें अंततः ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी विजयी हुई और उसने भारत पर अपना शासन स्थापित किया।
2. पोर्तुगीज का आगमन और गोवा का कब्जा (Arrival of the Portuguese and the Capture of Goa) ⛵
वास्को डी गामा का ऐतिहासिक आगमन (The Historic Arrival of Vasco da Gama)
भारत के लिए नए समुद्री मार्ग की खोज का श्रेय पुर्तगाली नाविक वास्को डी गामा (Vasco da Gama) को जाता है। 1497 में पुर्तगाल के लिस्बन से अपनी यात्रा शुरू करने के बाद, वह अफ्रीका के दक्षिणी सिरे ‘केप ऑफ गुड होप’ का चक्कर लगाकर हिंद महासागर में पहुँचा। एक गुजराती व्यापारी, अब्दुल मजीद की मदद से, वास्को डी गामा 20 मई, 1498 को भारत के मालाबार तट पर स्थित कालीकट (Calicut) बंदरगाह पर पहुँचा। यह घटना भारतीय और यूरोपीय इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुई।
कालीकट के शासक जमोरिन से मुलाकात (Meeting with Zamorin, the Ruler of Calicut)
कालीकट पहुँचने पर, वास्को डी गामा का स्वागत वहाँ के स्थानीय हिंदू शासक जमोरिन (Zamorin) ने किया। शुरुआत में, जमोरिन ने पुर्तगालियों को व्यापार करने की अनुमति दी, लेकिन जल्द ही अरब व्यापारियों के दबाव और पुर्तगालियों के अहंकारपूर्ण व्यवहार के कारण संबंध खराब हो गए। वास्को डी गामा जब मसालों से भरा जहाज लेकर वापस पुर्तगाल लौटा, तो उसे यात्रा की लागत से 60 गुना अधिक मुनाफा हुआ, जिसने अन्य यूरोपीय शक्तियों को भी भारत आने के लिए प्रेरित किया।
पुर्तगाली शक्ति की स्थापना: पेड्रो अल्वारेस कैब्राल (Establishment of Portuguese Power: Pedro Álvares Cabral)
वास्को डी गामा की सफलता के बाद, 1500 ईस्वी में पेड्रो अल्वारेस कैब्राल के नेतृत्व में एक दूसरा पुर्तगाली अभियान भारत पहुँचा। कैब्राल ने कालीकट में एक फैक्ट्री स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन स्थानीय अरब व्यापारियों के साथ संघर्ष के कारण यह प्रयास विफल रहा। इस संघर्ष के बाद, कैब्राल ने कोचीन और कन्ननोर के शासकों के साथ मित्रता की और वहाँ अपनी व्यापारिक कोठियाँ (trading posts) स्थापित कीं, जो भारत में पुर्तगाली शक्ति की नींव बनीं।
प्रथम पुर्तगाली वायसराय: फ्रांसिस्को डी अल्मेडा (The First Portuguese Viceroy: Francisco de Almeida)
भारत में पुर्तगाली हितों की रक्षा के लिए, पुर्तगाल के राजा ने 1505 में फ्रांसिस्को डी अल्मेडा को भारत का पहला पुर्तगाली गवर्नर या वायसराय नियुक्त किया। अल्मेडा का मुख्य उद्देश्य हिंद महासागर में पुर्तगाली नौसैनिक प्रभुत्व स्थापित करना था। इसी उद्देश्य से उसने ‘ब्लू वॉटर पॉलिसी’ (Blue Water Policy) या ‘शांत जल की नीति’ अपनाई, जिसका अर्थ था कि समुद्र पर नियंत्रण करके ही भारत में पुर्तगाली शक्ति को सुरक्षित रखा जा सकता है।
अल्फांसो डी अल्बुकर्क और पुर्तगाली साम्राज्य का विस्तार (Afonso de Albuquerque and the Expansion of the Portuguese Empire)
फ्रांसिस्को डी अल्मेडा के बाद, अल्फांसो डी अल्बुकर्क 1509 में भारत का दूसरा पुर्तगाली वायसराय बना। अल्बुकर्क को भारत में पुर्तगाली साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक (real founder) माना जाता है। उसने केवल व्यापारिक हितों पर ही नहीं, बल्कि भारत में एक स्थायी पुर्तगाली उपनिवेश स्थापित करने पर भी ध्यान केंद्रित किया। उसने पुर्तगालियों को भारतीय महिलाओं से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि एक स्थायी पुर्तगाली आबादी बसाई जा सके।
गोवा पर ऐतिहासिक कब्जा (The Historic Capture of Goa)
अल्बुकर्क की सबसे बड़ी उपलब्धि 1510 में बीजापुर के सुल्तान, यूसुफ आदिल शाह से गोवा को जीतना थी। गोवा का बंदरगाह सामरिक और व्यापारिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। गोवा पर कब्जा (Capture of Goa) करने के बाद, यह भारत में पुर्तगाली गतिविधियों का केंद्र बन गया और 1961 तक पुर्तगाली शासन के अधीन रहा। गोवा की विजय ने हिंद महासागर में पुर्तगालियों के प्रभुत्व को मजबूती से स्थापित कर दिया।
पुर्तगालियों की व्यापारिक नीति: कार्टाज प्रणाली (Portuguese Trade Policy: The Cartaz System)
हिंद महासागर पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के बाद, पुर्तगालियों ने एक लाइसेंस प्रणाली शुरू की जिसे ‘कार्टाज’ (Cartaz) कहा जाता था। इस प्रणाली के तहत, भारतीय और अन्य एशियाई जहाजों को हिंद महासागर में व्यापार करने के लिए पुर्तगालियों से एक परमिट या लाइसेंस लेना पड़ता था। जिन जहाजों के पास कार्टाज नहीं होता था, उन्हें लूट लिया जाता था या डुबो दिया जाता था। इस प्रणाली के माध्यम से उन्होंने समुद्र पर अपना व्यापारिक एकाधिकार (trade monopoly) स्थापित कर लिया।
धार्मिक नीतियां और उनका प्रभाव (Religious Policies and their Impact)
पुर्तगालियों की धार्मिक नीतियां बहुत आक्रामक थीं। वे अपने व्यापारिक उद्देश्यों के साथ-साथ ईसाई धर्म का प्रचार भी करना चाहते थे। उन्होंने गोवा और अन्य क्षेत्रों में हिंदू मंदिरों और मस्जिदों को नष्ट किया और लोगों को जबरन ईसाई बनाने का प्रयास किया। उनकी इस असहिष्णु धार्मिक नीति के कारण उन्हें स्थानीय लोगों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा, जो उनके पतन का एक प्रमुख कारण बना।
पुर्तगाली शक्ति का पतन (Decline of Portuguese Power)
17वीं शताब्दी की शुरुआत तक, पुर्तगाली शक्ति का पतन शुरू हो गया। इसके कई कारण थे, जैसे कि उनकी आक्रामक धार्मिक नीतियां, भ्रष्टाचार, और समुद्री डकैती में संलिप्तता। इसके अलावा, डच और अंग्रेजों जैसी नई और अधिक शक्तिशाली यूरोपीय शक्तियों के आगमन ने उनकी शक्ति को कड़ी चुनौती दी। 1622 में फारस की मदद से अंग्रेजों ने उनसे होर्मुज बंदरगाह छीन लिया, जो उनके लिए एक बड़ा झटका था। धीरे-धीरे, वे गोवा, दमन और दीव जैसे कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह गए।
3. डच ईस्ट इंडिया कंपनी और व्यापारिक केंद्र (Dutch East India Company and Trading Centers) 🇳🇱
डच लोगों का भारत में आगमन (Arrival of the Dutch in India)
पुर्तगालियों की सफलता से प्रेरित होकर, हॉलैंड (वर्तमान में नीदरलैंड) के डच व्यापारियों ने भी पूर्व के साथ व्यापार करने में रुचि दिखाई। 1596 में, कॉर्नेलिस डी हाउटमैन (Cornelis de Houtman) के नेतृत्व में पहला डच अभियान इंडोनेशिया के सुमात्रा और बेंटम पहुँचा। भारत में उन्होंने अपनी पहली फैक्ट्री 1605 में मसूलीपट्टनम (आंध्र प्रदेश) में स्थापित की। पुर्तगालियों के विपरीत, डचों का मुख्य ध्यान भारत के बजाय इंडोनेशिया के मसाला द्वीपों पर था।
डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना (Establishment of the Dutch East India Company)
1602 में, नीदरलैंड की सरकार के एक चार्टर द्वारा ‘यूनाइटेड डच ईस्ट इंडिया कंपनी’ (Verenigde Oostindische Compagnie – VOC) की स्थापना की गई। यह दुनिया की पहली बहुराष्ट्रीय कंपनी थी जिसे युद्ध छेड़ने, संधियाँ करने, किले बनाने और अपने क्षेत्र पर शासन करने जैसे व्यापक अधिकार दिए गए थे। इस कंपनी ने डच व्यापार को संगठित किया और उन्हें पुर्तगालियों और बाद में अंग्रेजों के खिलाफ एक मजबूत प्रतिस्पर्धी बनाया।
भारत में डच व्यापारिक केंद्र (Dutch Trading Centers in India)
डचों ने भारत के विभिन्न हिस्सों में अपने व्यापारिक केंद्र (trading centers) स्थापित किए। उनकी प्रमुख फैक्ट्रियाँ पुलिकट (1610), सूरत (1616), बिमलीपट्टम (1641), कराईकल (1645), चिनसुरा (1653), कासिमबाजार, पटना, बालासोर और नागापट्टिनम में थीं। पुलिकट 1690 तक भारत में डच गतिविधियों का मुख्य केंद्र था, जिसके बाद नागापट्टिनम को मुख्यालय बनाया गया। इन केंद्रों से वे मुख्य रूप से रेशम, सूती वस्त्र, अफीम, और शोरा का व्यापार करते थे।
डचों की व्यापारिक रणनीति (The Trading Strategy of the Dutch)
डचों की व्यापारिक रणनीति बहुत सुविचारित थी। वे ‘इंट्रा-एशियन ट्रेड’ (Intra-Asian trade) पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करते थे, जिसका अर्थ था कि वे एक एशियाई देश से सामान खरीदकर दूसरे एशियाई देश में बेचते थे। उदाहरण के लिए, वे भारत के कोरोमंडल तट से सूती वस्त्र खरीदते थे और उन्हें इंडोनेशिया के मसाला द्वीपों में मसालों के बदले बेचते थे। इस रणनीति ने उन्हें बहुत अधिक मुनाफा दिलाया और यूरोप से सोना-चाँदी लाने की उनकी निर्भरता को कम किया।
पुर्तगालियों के साथ संघर्ष (Conflict with the Portuguese)
17वीं शताब्दी में, डचों ने व्यवस्थित रूप से पुर्तगालियों को मसाला व्यापार से बाहर कर दिया। उनकी नौसैनिक शक्ति पुर्तगालियों से कहीं बेहतर थी। उन्होंने पुर्तगालियों से मलक्का (1641), श्रीलंका (1658) और मालाबार तट पर स्थित उनके कई किलों को छीन लिया। इस संघर्ष ने हिंद महासागर में पुर्तगाली एकाधिकार को समाप्त कर दिया और डचों को एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया।
अंग्रेजों के साथ प्रतिस्पर्धा और संघर्ष (Competition and Conflict with the English)
जैसे-जैसे भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभाव बढ़ने लगा, डचों और अंग्रेजों के बीच प्रतिस्पर्धा भी तेज हो गई। यह प्रतिस्पर्धा 1623 में इंडोनेशिया के अंबोयना में हुए एक नरसंहार के बाद और बढ़ गई, जहाँ डचों ने कई अंग्रेज और जापानी व्यापारियों को मार डाला था। इसके बाद, दोनों शक्तियों ने एक अनौपचारिक समझौते के तहत अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र बांट लिए, जिसमें डचों ने इंडोनेशिया पर और अंग्रेजों ने भारत पर ध्यान केंद्रित किया।
बेदारा का निर्णायक युद्ध (The Decisive Battle of Bedara)
भारत में डच शक्ति के पतन का एक महत्वपूर्ण मोड़ 1759 में हुआ ‘बेदारा का युद्ध’ (Battle of Bedara) था। यह युद्ध बंगाल में अंग्रेजों और डचों के बीच लड़ा गया था। बंगाल के नवाब मीर जाफ़र ने अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए डचों से मदद मांगी, लेकिन रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने डचों को बुरी तरह पराजित किया। इस हार ने भारत में डचों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को समाप्त कर दिया।
भारत से डच शक्ति का पतन (Decline of Dutch Power from India)
बेदारा की हार के बाद, भारत में डचों का प्रभाव तेजी से कम होने लगा। उनकी प्राथमिकता हमेशा से इंडोनेशिया के मसाले रहे, और उन्होंने भारत पर कभी भी उतना ध्यान केंद्रित नहीं किया जितना अंग्रेजों ने किया। 18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं शताब्दी की शुरुआत में हुए एंग्लो-डच युद्धों ने उनकी बची-खुची शक्ति को भी समाप्त कर दिया। अंततः, 1824 की एंग्लो-डच संधि के तहत, डचों ने भारत में अपनी सभी बस्तियाँ अंग्रेजों को सौंप दीं और बदले में इंडोनेशिया पर अपना पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया।
4. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन और स्थापना (Arrival and Establishment of the British East India Company) 🇬🇧
ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन (Formation of the East India Company)
डचों की तरह, अंग्रेज व्यापारी भी पूर्व के साथ व्यापार करके मुनाफा कमाना चाहते थे। 31 दिसंबर, 1600 को, महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने ‘द गवर्नर एंड कंपनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ लंदन ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इंडीज’, जिसे आमतौर पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (British East India Company) के नाम से जाना जाता है, को एक रॉयल चार्टर प्रदान किया। इस चार्टर ने कंपनी को पूर्व के साथ व्यापार करने का 15 वर्षों का एकाधिकार (monopoly) दिया, जिसे बाद में अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दिया गया।
मुगल दरबार में पहला प्रयास: कैप्टन हॉकिन्स (First Attempt at the Mughal Court: Captain Hawkins)
कंपनी ने भारत में व्यापारिक कोठी स्थापित करने की अनुमति प्राप्त करने के लिए प्रयास शुरू किए। 1608 में, कैप्टन विलियम हॉकिन्स ‘हेक्टर’ नामक जहाज से सूरत बंदरगाह पर पहुँचे। वह मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में पहुँचे और उनसे सूरत में एक फैक्ट्री स्थापित करने की अनुमति मांगी। हालाँकि जहांगीर शुरू में हॉकिन्स से प्रभावित हुए, लेकिन पुर्तगालियों के दबाव के कारण उन्होंने अनुमति नहीं दी।
सर थॉमस रो और व्यापारिक रियायतें (Sir Thomas Roe and Trade Concessions)
कंपनी ने हार नहीं मानी और 1615 में, इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम के राजदूत के रूप में सर थॉमस रो को जहांगीर के दरबार में भेजा। रो एक कुशल राजनयिक थे और उन्होंने मुगल बादशाह को यह समझाने में सफलता प्राप्त की कि अंग्रेजों के साथ व्यापार करना मुगल साम्राज्य के लिए फायदेमंद होगा। 1618 में, वह मुगल साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में व्यापार करने और फैक्ट्रियाँ स्थापित करने के लिए एक शाही फरमान (royal decree) प्राप्त करने में सफल रहे।
भारत में ब्रिटिश बस्तियों की स्थापना (Establishment of British Settlements in India)
शाही फरमान मिलने के बाद, अंग्रेजों ने तेजी से भारत में अपने पैर पसारे। उन्होंने अपनी पहली स्थायी फैक्ट्री 1613 में सूरत में स्थापित की। इसके बाद, उन्होंने दक्षिण में मसूलीपट्टनम (1611) और फिर मद्रास (1639) में अपनी बस्ती बसाई, जहाँ उन्होंने फोर्ट सेंट जॉर्ज का निर्माण किया। 1668 में, उन्हें पुर्तगाल से दहेज के रूप में बंबई (अब मुंबई) द्वीप मिला। पूर्व में, उन्होंने हुगली (1651) और बाद में कलकत्ता (अब कोलकाता) में अपनी बस्ती स्थापित की, जहाँ फोर्ट विलियम का निर्माण किया गया।
व्यापारिक कंपनी से राजनीतिक शक्ति तक का सफर (The Journey from a Trading Company to a Political Power)
18वीं शताब्दी के मध्य तक, भारत में मुगल साम्राज्य का पतन हो चुका था और देश में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस स्थिति का फायदा उठाया और धीरे-धीरे भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। उन्होंने भारतीय शासकों के आपसी झगड़ों में एक पक्ष का समर्थन करके अपने प्रभाव का विस्तार किया। उनकी महत्वाकांक्षा अब केवल व्यापार तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे भारत में एक साम्राज्य स्थापित करने का सपना देख रहे थे।
प्लासी का युद्ध: एक निर्णायक मोड़ (Battle of Plassey: A Decisive Turning Point)
1757 में हुआ प्लासी का युद्ध (Battle of Plassey) भारतीय इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। यह युद्ध बंगाल के नवाब सिराज-उद-दौला और रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच लड़ा गया। इस युद्ध में, क्लाइव ने नवाब के सेनापति मीर जाफ़र के साथ मिलकर एक षड्यंत्र रचा, जिसके कारण नवाब की सेना युद्ध में लड़ी ही नहीं। इस “युद्ध” में अंग्रेजों की जीत ने उन्हें बंगाल का वास्तविक शासक बना दिया और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखी।
बक्सर का युद्ध और दीवानी अधिकार (Battle of Buxar and the Diwani Rights)
प्लासी के बाद, 1764 में बक्सर का युद्ध (Battle of Buxar) हुआ। यह युद्ध एक तरफ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और दूसरी तरफ बंगाल के नवाब मीर कासिम, अवध के नवाब शुजा-उद-दौला, और मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना के बीच लड़ा गया। इस युद्ध में अंग्रेजों की निर्णायक जीत ने उनकी सैन्य श्रेष्ठता को सिद्ध कर दिया। 1765 में हुई इलाहाबाद की संधि के तहत, मुगल बादशाह ने कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के ‘दीवानी अधिकार’ (Diwani rights) प्रदान किए, जिसका अर्थ था कि अब कंपनी इन क्षेत्रों में राजस्व वसूल सकती थी।
भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व का विस्तार (Expansion of British Dominance in India)
बक्सर की जीत के बाद, अंग्रेजों ने विभिन्न नीतियों और युद्धों के माध्यम से पूरे भारत में अपने प्रभुत्व का विस्तार किया। उन्होंने मैसूर के साथ चार युद्ध लड़े, मराठों को तीन युद्धों में पराजित किया, और पंजाब पर भी कब्जा कर लिया। लॉर्ड वेलेजली की ‘सहायक संधि प्रणाली’ (Subsidiary Alliance System) और लॉर्ड डलहौजी की ‘व्यपगत का सिद्धांत’ (Doctrine of Lapse) जैसी नीतियों ने कई भारतीय राज्यों को कंपनी के अधीन ला दिया। 19वीं शताब्दी के मध्य तक, लगभग पूरा भारतीय उपमहाद्वीप प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश नियंत्रण में आ चुका था।
5. फ्रांसीसी और अन्य यूरोपीय राष्ट्रों का प्रभाव (Influence of the French and Other European Nations) 🇫🇷
फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना (Establishment of the French East India Company)
भारत में आने वाली यूरोपीय शक्तियों में फ्रांसीसी सबसे अंत में थे। 1664 में, फ्रांस के सम्राट लुई चौदहवें के मंत्री, कोल्बर्ट के प्रयासों से ‘फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी’ (Compagnie des Indes Orientales) की स्थापना हुई। यह एक सरकारी कंपनी थी और सीधे फ्रांसीसी सरकार के नियंत्रण में थी। 1668 में, उन्होंने सूरत में अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की, और इसके बाद 1669 में मसूलीपट्टनम में दूसरी फैक्ट्री खोली।
भारत में फ्रांसीसी बस्तियाँ (French Settlements in India)
1674 में, फ्रांसीसियों ने बीजापुर के सुल्तान से एक गाँव प्राप्त किया और वहाँ पांडिचेरी (Pondicherry) शहर की स्थापना की, जो बाद में भारत में फ्रांसीसी गतिविधियों का मुख्य केंद्र बना। उन्होंने बंगाल में चंद्रनगर (1690), मालाबार तट पर माहे (1725), और कोरोमंडल तट पर कराईकल (1739) पर भी अधिकार कर लिया। पांडिचेरी को फ्रांसीसी गवर्नर फ्रांस्वा मार्टिन ने एक महत्वपूर्ण और समृद्ध शहर के रूप में विकसित किया।
आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष की शुरुआत (The Beginning of Anglo-French Rivalry)
18वीं शताब्दी में, भारत में व्यापारिक और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच एक तीव्र संघर्ष शुरू हो गया। यह संघर्ष वास्तव में यूरोप में चल रही उनकी पारंपरिक शत्रुता का ही एक विस्तार था। जब भी यूरोप में ब्रिटेन और फ्रांस के बीच युद्ध होता, भारत में भी उनकी कंपनियां एक-दूसरे से लड़ने लगती थीं। इस संघर्ष का मुख्य अखाड़ा दक्षिण भारत का कर्नाटक क्षेत्र बना।
कर्नाटक युद्ध और डुप्ले की भूमिका (The Carnatic Wars and the Role of Dupleix)
अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच भारत में तीन प्रमुख युद्ध हुए, जिन्हें कर्नाटक युद्ध (Carnatic Wars) के नाम से जाना जाता है। पहला कर्नाटक युद्ध (1746-48) ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार युद्ध का परिणाम था। दूसरा कर्नाटक युद्ध (1749-54) हैदराबाद और कर्नाटक के सिंहासन के लिए उत्तराधिकार के विवादों के कारण हुआ। इस दौरान, फ्रांसीसी गवर्नर जोसेफ फ्रांस्वा डुप्ले (Joseph François Dupleix) ने भारतीय शासकों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करके फ्रांसीसी प्रभाव बढ़ाने की नीति अपनाई, जिसे बाद में अंग्रेजों ने भी अपनाया।
वांडीवाश का युद्ध और फ्रांसीसी शक्ति का अंत (Battle of Wandiwash and the End of French Power)
तीसरा कर्नाटक युद्ध (1758-63) यूरोप में चल रहे सप्तवर्षीय युद्ध का हिस्सा था। इस युद्ध के दौरान 1760 में हुआ ‘वांडीवाश का युद्ध’ (Battle of Wandiwash) निर्णायक साबित हुआ। इस युद्ध में, ब्रिटिश जनरल सर आयर कूट ने फ्रांसीसी सेना को बुरी तरह पराजित किया। 1761 में अंग्रेजों ने पांडिचेरी पर भी कब्जा कर लिया। 1763 की पेरिस की संधि के तहत, पांडिचेरी और चंद्रनगर फ्रांसीसियों को वापस कर दिए गए, लेकिन उन्हें किलेबंदी करने या सेना रखने की अनुमति नहीं थी। इस हार ने भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना की महत्वाकांक्षाओं को समाप्त कर दिया।
भारत में डेनिश उपस्थिति (Danish Presence in India)
डेनमार्क के व्यापारी भी भारत के साथ व्यापार करने के लिए आए थे। उन्होंने 1616 में ‘डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी’ की स्थापना की। 1620 में, उन्होंने तमिलनाडु के त्रांकेबार (Tranquebar) में अपनी पहली बस्ती स्थापित की। उनकी दूसरी महत्वपूर्ण बस्ती बंगाल में सेरामपुर (Serampore) थी। हालाँकि, डेनिश कभी भी एक बड़ी राजनीतिक या आर्थिक शक्ति नहीं बन पाए। उनका मुख्य योगदान ईसाई मिशनरी गतिविधियों और शिक्षा के क्षेत्र में था। 1845 में, उन्होंने अपनी सभी बस्तियाँ अंग्रेजों को बेच दीं।
अन्य यूरोपीय शक्तियों का संक्षिप्त प्रभाव (Brief Impact of Other European Powers)
पुर्तगालियों, डचों, अंग्रेजों, फ्रांसीसियों और डेनिशों के अलावा, स्वीडन और ऑस्ट्रिया जैसी कुछ अन्य यूरोपीय शक्तियों ने भी भारत के साथ व्यापार करने के लिए कंपनियां बनाईं, लेकिन वे कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं डाल सकीं। अंततः, भारत में यूरोपीय शक्तियों के बीच चले लंबे संघर्ष में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी बेहतर नौसैनिक शक्ति, मजबूत वित्तीय स्थिति, कुशल नेतृत्व और कूटनीति के कारण विजयी हुई।
6. यूरोपीय व्यापार और आर्थिक नियंत्रण (European Trade and Economic Control) 💰
प्रारंभिक यूरोपीय व्यापार की प्रकृति (Nature of Early European Trade)
शुरुआत में, यूरोपीय व्यापार भारत के पक्ष में था। यूरोपीय व्यापारियों को भारतीय सामान, जैसे मसाले, उच्च गुणवत्ता वाले सूती और रेशमी वस्त्र, शोरा (बारूद बनाने के लिए), और नील खरीदने के लिए अपने देशों से बड़ी मात्रा में सोना और चाँदी (bullion) लाना पड़ता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि उस समय यूरोप में ऐसा कुछ भी नहीं बनता था जिसकी भारत में मांग हो। इस व्यापार ने भारतीय कारीगरों, बुनकरों और व्यापारियों को बहुत समृद्ध बनाया।
व्यापार संतुलन में बदलाव (Shift in the Balance of Trade)
1757 में प्लासी के युद्ध के बाद, जब अंग्रेजों ने बंगाल पर नियंत्रण कर लिया, तो व्यापार का संतुलन नाटकीय रूप से बदल गया। अब कंपनी को भारतीय सामान खरीदने के लिए इंग्लैंड से सोना-चाँदी लाने की जरूरत नहीं थी। वे बंगाल से वसूले गए राजस्व (revenue) का उपयोग करके ही भारतीय माल खरीदते थे और उसे इंग्लैंड भेजकर भारी मुनाफा कमाते थे। यह प्रक्रिया ‘धन की निकासी’ (Drain of Wealth) की शुरुआत थी, जिसने भारत को आर्थिक रूप से खोखला कर दिया।
धन की निकासी का सिद्धांत (The Theory of Drain of Wealth)
‘धन की निकासी’ का सिद्धांत सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक “पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया” में प्रस्तुत किया था। इसका मतलब था कि भारत के संसाधनों और धन को ब्रिटेन भेजा जा रहा था, लेकिन बदले में भारत को कोई आर्थिक लाभ नहीं मिल रहा था। यह धन कंपनी के अधिकारियों के वेतन, इंग्लैंड में कंपनी के खर्चों, और ब्रिटिश सरकार के प्रशासनिक और सैन्य खर्चों के रूप में भारत से बाहर जा रहा था। इस निकासी ने भारत की पूंजी को समाप्त कर दिया और देश में गरीबी को बढ़ाया।
भारतीय उद्योगों का विनाश (De-industrialization of India)
19वीं शताब्दी में ब्रिटेन में हुई औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) ने भारत की अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव डाला। ब्रिटिश कारखानों में मशीनों से बने सस्ते कपड़े भारतीय बाजार में बड़ी मात्रा में आने लगे। ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटेन में भारतीय वस्त्रों के आयात पर भारी शुल्क लगाया, जबकि भारत में ब्रिटिश माल के आयात को कर-मुक्त कर दिया। इस भेदभावपूर्ण नीति के कारण, भारत का विश्व प्रसिद्ध कपड़ा उद्योग नष्ट हो गया, और लाखों बुनकर और कारीगर बेरोजगार हो गए। भारत एक निर्माता देश से कच्चे माल का निर्यातक और तैयार माल का आयातक बनकर रह गया।
कृषि का वाणिज्यीकरण (Commercialization of Agriculture)
ब्रिटिश शासन के तहत, भारतीय कृषि का भी वाणिज्यीकरण कर दिया गया। अब किसानों को खाद्यान्न फसलों के बजाय नकदी फसलों (cash crops) जैसे कपास, नील, अफीम, और जूट उगाने के लिए मजबूर किया जाने लगा, क्योंकि इन फसलों की ब्रिटेन के कारखानों को कच्चे माल के रूप में आवश्यकता थी। इससे देश में खाद्यान्न का उत्पादन कम हो गया, जो बार-बार पड़ने वाले अकालों का एक प्रमुख कारण बना। किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य भी नहीं मिलता था, जिससे उनकी गरीबी और कर्जदारी बढ़ती गई।
नई भू-राजस्व प्रणालियाँ (New Land Revenue Systems)
अधिक से अधिक राजस्व प्राप्त करने के लिए, अंग्रेजों ने भारत में कई नई भू-राजस्व प्रणालियाँ लागू कीं। बंगाल में उन्होंने 1793 में ‘स्थायी बंदोबस्त’ (Permanent Settlement) लागू किया, जिसमें जमींदारों को भूमि का मालिक बना दिया गया और राजस्व की दर स्थायी रूप से तय कर दी गई। दक्षिण भारत में ‘रैयतवाड़ी प्रणाली’ (Ryotwari System) लागू की गई, जिसमें सरकार सीधे किसानों (रैयतों) से कर वसूलती थी। उत्तर भारत में ‘महालवाड़ी प्रणाली’ (Mahalwari System) लागू की गई। इन सभी प्रणालियों में राजस्व की दरें बहुत अधिक थीं, जिससे किसानों का अत्यधिक शोषण हुआ।
रेलवे का विकास और उसका उद्देश्य (Development of Railways and its Purpose)
अंग्रेजों ने भारत में रेलवे का विकास किया, जिसे अक्सर एक सकारात्मक कदम के रूप में देखा जाता है। हालाँकि, रेलवे के विकास का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश आर्थिक और प्रशासनिक हितों को पूरा करना था। रेलवे का उपयोग भारत के भीतरी इलाकों से कच्चे माल को बंदरगाहों तक पहुँचाने, ब्रिटिश तैयार माल को देश के कोने-कोने में बेचने, और विद्रोह की स्थिति में सेना को तेजी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने के लिए किया जाता था। इसका लाभ आम भारतीयों को बहुत कम मिला।
7. राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रभुत्व की स्थापना (Political Intervention and Establishment of Dominance) 👑
भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप (Interference in the Internal Affairs of Indian States)
ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए एक सोची-समझी रणनीति के तहत भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू किया। वे अक्सर उत्तराधिकार के विवादों में एक पक्ष का समर्थन करते थे और बदले में उनसे व्यापारिक और क्षेत्रीय रियायतें प्राप्त करते थे। फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले ने इस नीति की शुरुआत की थी, लेकिन अंग्रेजों ने इसे और भी प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया। इस नीति ने भारतीय शासकों को कमजोर किया और कंपनी के लिए राजनीतिक शक्ति हासिल करने का मार्ग प्रशस्त किया।
घेरे की नीति (Policy of Ring-Fence)
वारेन हेस्टिंग्स के समय में, कंपनी ने ‘घेरे की नीति’ या ‘रिंग-फेंस’ नीति अपनाई। इस नीति का उद्देश्य कंपनी के क्षेत्रों को पड़ोसी शत्रु राज्यों से बचाने के लिए बफर जोन (buffer zones) बनाना था। इसके तहत, कंपनी अपने पड़ोसी राज्यों की सीमाओं की रक्षा करने का वचन देती थी, बशर्ते कि वह राज्य अपनी सेना का खर्च वहन करे। यह वास्तव में अपनी रक्षा का बोझ दूसरे राज्य पर डालने की एक चालाक नीति थी, जैसा कि उन्होंने अवध के साथ किया।
सहायक संधि प्रणाली (Subsidiary Alliance System)
लॉर्ड वेलेजली ने 1798 में ‘सहायक संधि प्रणाली’ (Subsidiary Alliance System) की शुरुआत की, जो भारतीय राज्यों पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित करने का एक बहुत प्रभावी साधन साबित हुई। इस संधि को स्वीकार करने वाले भारतीय शासक को अपनी रियासत में एक ब्रिटिश सेना रखनी पड़ती थी, जिसका खर्च उसे स्वयं उठाना पड़ता था। साथ ही, उसे अपने दरबार में एक ब्रिटिश रेजिडेंट रखना होता था और वह अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी अन्य यूरोपीय शक्ति से संबंध नहीं रख सकता था। बदले में, कंपनी उस राज्य की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करने का वादा करती थी।
सहायक संधि के परिणाम (Consequences of the Subsidiary Alliance)
सहायक संधि ने भारतीय राज्यों को पूरी तरह से कंपनी पर निर्भर बना दिया। शासकों ने अपनी संप्रभुता और सैन्य शक्ति खो दी। ब्रिटिश सेना की उपस्थिति के कारण वे बाहरी और आंतरिक दोनों तरह से सुरक्षित महसूस करने लगे, जिससे वे विलासी और प्रशासन के प्रति लापरवाह हो गए। सेना का भारी खर्च उठाने के कारण राज्य की आर्थिक स्थिति खराब हो गई। हैदराबाद का निजाम 1798 में इस संधि को स्वीकार करने वाला पहला शासक था, जिसके बाद मैसूर, अवध, और कई मराठा सरदारों ने भी इसे स्वीकार कर लिया।
व्यपगत का सिद्धांत या हड़प नीति (Doctrine of Lapse)
लॉर्ड डलहौजी, जो 1848 से 1856 तक भारत के गवर्नर-जनरल रहे, ने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए ‘व्यपगत का


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