विषय-सूची (Table of Contents) 📋
- 1. भारतीय विधायिका का परिचय (Introduction to the Indian Legislature)
- 2. संसद: भारत की सर्वोच्च विधायी संस्था (Parliament: The Supreme Legislative Body of India)
- 3. विधायी प्रक्रिया: कानून कैसे बनता है? (Legislative Procedure: How is a Law Made?)
- 4. संसदीय समितियाँ: संसद की सूक्ष्म जाँचकर्ता (Parliamentary Committees: The Micro-Investigators of Parliament)
- 5. राज्य विधानमंडल: राज्यों में कानून निर्माण (State Legislatures: Law-making in the States)
- 6. संसदीय विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ (Parliamentary Privileges and Immunities)
- 7. दल-बदल विरोधी कानून और किहोटो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू केस (Anti-Defection Law and the Kihoto Hollohan v. Zachillhu Case)
- 8. निष्कर्ष (Conclusion)
1. भारतीय विधायिका का परिचय (Introduction to the Indian Legislature) 🏛️
लोकतंत्र का आधार (Foundation of Democracy)
नमस्ते दोस्तों! 👋 आज हम भारतीय राजनीति (Indian polity) के एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्तंभ के बारे में बात करने जा रहे हैं – भारत की विधायिका (Legislature of India)। किसी भी लोकतांत्रिक देश में सरकार के तीन मुख्य अंग होते हैं: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। विधायिका का काम देश के लिए कानून बनाना है, कार्यपालिका उन कानूनों को लागू करती है, और न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या करती है। यह शक्ति का पृथक्करण (separation of powers) सुनिश्चित करता है कि कोई भी एक अंग बहुत अधिक शक्तिशाली न हो जाए।
विधायिका का अर्थ (Meaning of Legislature)
सरल शब्दों में, विधायिका नागरिकों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का एक समूह है। इन प्रतिनिधियों को संसद सदस्य (Member of Parliament) या विधान सभा सदस्य (Member of Legislative Assembly) कहा जाता है। इनका मुख्य दायित्व जनता की इच्छाओं और आकांक्षाओं को कानूनों का रूप देना है। भारत ने अपनी शासन प्रणाली के लिए संसदीय लोकतंत्र (parliamentary democracy) को अपनाया है, जिसका अर्थ है कि कार्यपालिका (सरकार) विधायिका के प्रति जवाबदेह होती है।
भारत की संघीय संरचना (Federal Structure of India)
भारत एक विशाल और विविधताओं वाला देश है, इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने एक संघीय प्रणाली (federal system) अपनाई। इसका मतलब है कि कानून बनाने की शक्ति केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच बंटी हुई है। राष्ट्रीय महत्व के विषयों, जैसे रक्षा, विदेश मामले, और मुद्रा पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार यानी संसद को है। वहीं, स्थानीय महत्व के विषयों, जैसे पुलिस, कृषि, और स्वास्थ्य पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों यानी राज्य विधानमंडलों को है।
द्विसदनीय प्रणाली का महत्व (Importance of Bicameralism)
भारत में केंद्र स्तर पर द्विसदनीय विधायिका (bicameral legislature) है, जिसका अर्थ है कि संसद के दो सदन हैं: लोकसभा और राज्यसभा। इस प्रणाली को अपनाने का मुख्य कारण यह सुनिश्चित करना था कि किसी भी कानून को जल्दबाजी में पारित न किया जाए। दूसरा सदन, यानी राज्यसभा, एक पुनर्विचार सदन (revising house) के रूप में कार्य करता है जो लोकसभा द्वारा पारित विधेयकों की समीक्षा करता है और राज्यों के हितों का भी प्रतिनिधित्व करता है, जिससे देश का संघीय संतुलन बना रहता है।
2. संसद: भारत की सर्वोच्च विधायी संस्था (Parliament: The Supreme Legislative Body of India) 🇮🇳
संसद के तीन अंग (Three Components of Parliament)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, संघ के लिए एक संसद होगी, जिसमें राष्ट्रपति और दो सदन शामिल होंगे, जिन्हें क्रमशः राज्यों की परिषद (Council of States) यानी राज्यसभा और लोगों का सदन (House of the People) यानी लोकसभा के रूप में जाना जाएगा। यह एक आम गलतफहमी है कि संसद में केवल दो सदन होते हैं। वास्तव में, भारत के राष्ट्रपति (President of India) भी संसद का एक अभिन्न अंग हैं, क्योंकि उनकी सहमति के बिना कोई भी विधेयक कानून नहीं बन सकता।
लोकसभा: जनता का सदन (Lok Sabha: The House of the People) 👥
लोकसभा को ‘निचला सदन’ भी कहा जाता है, हालांकि यह राज्यसभा से अधिक शक्तिशाली है। इसके सदस्य सीधे भारत की जनता द्वारा सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (universal adult suffrage) के माध्यम से चुने जाते हैं। इसका मतलब है कि 18 वर्ष से अधिक आयु का कोई भी भारतीय नागरिक मतदान कर सकता है। लोकसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 552 निर्धारित की गई है, जिसमें से 530 सदस्य राज्यों से, 20 केंद्र शासित प्रदेशों से चुने जाते हैं, और 2 सदस्य एंग्लो-इंडियन समुदाय से राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते थे (यह प्रावधान 104वें संशोधन द्वारा समाप्त कर दिया गया है)।
लोकसभा का कार्यकाल और अध्यक्ष (Term and Speaker of Lok Sabha)
लोकसभा का कार्यकाल सामान्यतः 5 वर्ष का होता है, लेकिन इसे राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह पर समय से पहले भी भंग किया जा सकता है। आपातकाल की स्थिति में इसके कार्यकाल को एक बार में एक वर्ष के लिए बढ़ाया जा सकता है। लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता अध्यक्ष (Speaker) करते हैं, जिन्हें लोकसभा के सदस्य अपने में से ही चुनते हैं। अध्यक्ष सदन की कार्यवाही का संचालन करते हैं और सदन में अनुशासन बनाए रखते हैं। धन विधेयक (Money Bill) कोई विधेयक है या नहीं, इसका निर्णय भी अध्यक्ष ही करते हैं।
राज्यसभा: राज्यों की परिषद (Rajya Sabha: The Council of States) 🏛️
राज्यसभा को ‘उच्च सदन’ कहा जाता है। यह एक स्थायी सदन है, जिसका मतलब है कि इसे कभी भंग नहीं किया जा सकता। इसके सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है, और हर दो साल में इसके एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त हो जाते हैं। राज्यसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 250 है, जिसमें से 238 सदस्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (proportional representation system) के माध्यम से चुने जाते हैं और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों में से मनोनीत किए जाते हैं।
राज्यसभा के सभापति और विशेष शक्तियाँ (Chairman and Special Powers of Rajya Sabha)
भारत के उपराष्ट्रपति (Vice-President of India) राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं। वे सदन की कार्यवाही का संचालन करते हैं। राज्यसभा के पास कुछ विशेष शक्तियाँ भी हैं जो लोकसभा के पास नहीं हैं। अनुच्छेद 249 के तहत, यह राज्य सूची के किसी विषय पर राष्ट्रीय हित में कानून बनाने के लिए संसद को अधिकृत कर सकती है। अनुच्छेद 312 के तहत, यह नई अखिल भारतीय सेवाओं (All-India Services) के निर्माण की सिफारिश कर सकती है। यह राज्यों के हितों की रक्षक के रूप में कार्य करती है।
संसद सदस्यों की योग्यताएँ (Qualifications for Members of Parliament)
संविधान के अनुच्छेद 84 में संसद सदस्य बनने के लिए कुछ योग्यताएँ निर्धारित की गई हैं। उम्मीदवार को भारत का नागरिक होना चाहिए। राज्यसभा की सदस्यता के लिए उसकी आयु कम से कम 30 वर्ष और लोकसभा की सदस्यता के लिए कम से कम 25 वर्ष होनी चाहिए। इसके अलावा, उसे संसद द्वारा निर्धारित अन्य योग्यताओं को भी पूरा करना होता है, जो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) में उल्लिखित हैं।
सदस्यों की अयोग्यता के आधार (Grounds for Disqualification)
कोई भी व्यक्ति संसद का सदस्य नहीं बन सकता या सदस्य नहीं रह सकता यदि वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन कोई लाभ का पद (office of profit) धारण करता है। यदि वह विकृत-चित्त है और सक्षम न्यायालय ने ऐसी घोषणा की है, यदि वह दिवालिया है, या यदि वह भारत का नागरिक नहीं है। इसके अतिरिक्त, दल-बदल विरोधी कानून (anti-defection law) के तहत भी किसी सदस्य को अयोग्य ठहराया जा सकता है, जिसकी चर्चा हम आगे विस्तार से करेंगे।
3. विधायी प्रक्रिया: कानून कैसे बनता है? (Legislative Procedure: How is a Law Made?) 📜✍️
विधेयक का परिचय (Introduction of a Bill)
कानून बनाने की प्रक्रिया एक प्रस्ताव के साथ शुरू होती है, जिसे ‘विधेयक’ (Bill) कहा जाता है। एक विधेयक कानून का मसौदा होता है। जब यह विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है और राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त कर लेता है, तब यह एक ‘अधिनियम’ (Act) यानी कानून बन जाता है। विधायी प्रक्रिया (legislative process) थोड़ी जटिल लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि हर कानून पर पूरी तरह से बहस और विचार-विमर्श हो।
विधेयकों के प्रकार (Types of Bills)
मुख्य रूप से विधेयक चार प्रकार के होते हैं। पहला, साधारण विधेयक (Ordinary Bill), जो वित्तीय मामलों के अलावा किसी भी अन्य मामले से संबंधित होता है। दूसरा, धन विधेयक (Money Bill), जो विशेष रूप से कर लगाने, भारत की संचित निधि से धन निकालने जैसे वित्तीय मामलों से संबंधित होता है। तीसरा, वित्त विधेयक (Financial Bill), जो राजस्व या व्यय से संबंधित होता है लेकिन धन विधेयक से थोड़ा अलग होता है। और चौथा, संविधान संशोधन विधेयक (Constitutional Amendment Bill), जिसका उद्देश्य संविधान के प्रावधानों में संशोधन करना होता है।
एक साधारण विधेयक की यात्रा: प्रथम वाचन (Journey of an Ordinary Bill: First Reading)
कानून बनने की यात्रा का पहला कदम विधेयक को संसद के किसी भी सदन (लोकसभा या राज्यसभा) में प्रस्तुत करना है। इसे ‘प्रथम वाचन’ (First Reading) कहा जाता है। इस चरण में, विधेयक प्रस्तुत करने वाला मंत्री या सदस्य विधेयक का शीर्षक और उद्देश्य बताता है। इस स्तर पर कोई विस्तृत चर्चा नहीं होती है। विधेयक को प्रस्तुत करने की अनुमति के लिए सदन में मतदान हो सकता है, और यदि अनुमति मिल जाती है, तो विधेयक को भारत के राजपत्र (Gazette of India) में प्रकाशित किया जाता है।
द्वितीय वाचन: सबसे महत्वपूर्ण चरण (Second Reading: The Most Crucial Stage)
यह विधायी प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण और विस्तृत चरण है। इसमें दो उप-चरण होते हैं। पहला है ‘समिति चरण’ (Committee Stage), जहाँ विधेयक को आमतौर पर एक प्रवर समिति (Select Committee) या संयुक्त समिति (Joint Committee) को भेजा जाता है। यह समिति विधेयक के प्रत्येक खंड पर गहनता से विचार-विमर्श करती है और विशेषज्ञों व हितधारकों से राय भी ले सकती है। समिति अपनी रिपोर्ट सदन को सौंपती है।
द्वितीय वाचन: विचार-विमर्श चरण (Second Reading: Consideration Stage)
समिति से रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद, ‘विचार-विमर्श चरण’ (Consideration Stage) शुरू होता है। इस चरण में, सदन समिति द्वारा दिए गए सुझावों के साथ विधेयक के प्रत्येक खंड (clause-by-clause) पर चर्चा करता है। सदस्य संशोधनों का प्रस्ताव कर सकते हैं। प्रत्येक खंड और प्रस्तावित संशोधन पर मतदान होता है। यह चरण बहुत लंबा चल सकता है, खासकर यदि विधेयक विवादास्पद हो। यहीं पर विधेयक को अंतिम रूप दिया जाता है।
तृतीय वाचन: अंतिम स्वीकृति (Third Reading: Final Approval)
द्वितीय वाचन में विधेयक को अंतिम रूप दिए जाने के बाद, ‘तृतीय वाचन’ (Third Reading) होता है। इस चरण में बहस केवल इस प्रस्ताव तक सीमित रहती है कि विधेयक को पारित किया जाए या नहीं। यहाँ विधेयक के सार पर चर्चा होती है, न कि उसके विवरण पर। कोई महत्वपूर्ण संशोधन इस चरण में नहीं किया जा सकता, केवल औपचारिक या व्याकरण संबंधी सुधार किए जा सकते हैं। यदि साधारण बहुमत से सदन विधेयक को स्वीकार कर लेता है, तो इसे पारित माना जाता है।
दूसरे सदन में प्रक्रिया (Procedure in the Second House)
जब एक सदन में विधेयक पारित हो जाता है, तो इसे दूसरे सदन में भेजा जाता है। दूसरे सदन में भी विधेयक उन्हीं तीन चरणों (प्रथम, द्वितीय और तृतीय वाचन) से गुजरता है। दूसरे सदन के पास चार विकल्प होते हैं: (1) वह विधेयक को बिना किसी संशोधन के पारित कर सकता है; (2) वह संशोधनों के साथ विधेयक को पारित कर सकता है और पहले सदन को पुनर्विचार के लिए भेज सकता है; (3) वह विधेयक को पूरी तरह से अस्वीकार कर सकता है; या (4) वह कोई कार्रवाई नहीं कर सकता और विधेयक को 6 महीने तक लंबित रख सकता है।
राष्ट्रपति की सहमति (President’s Assent)
जब कोई विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है, तो इसे राष्ट्रपति की सहमति (President’s assent) के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति के पास तीन विकल्प होते हैं (अनुच्छेद 111 के तहत): (1) वह विधेयक पर अपनी सहमति दे सकते हैं, जिसके बाद यह कानून बन जाता है; (2) वह अपनी सहमति रोक सकते हैं, जिससे विधेयक समाप्त हो जाता है; या (3) वह विधेयक को (यदि यह धन विधेयक नहीं है) पुनर्विचार के लिए संसद को वापस भेज सकते हैं। यदि संसद विधेयक को संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के फिर से पारित कर राष्ट्रपति को भेजती है, तो राष्ट्रपति को उस पर सहमति देनी ही पड़ती है।
धन विधेयक की विशेष प्रक्रिया (Special Procedure for Money Bills)
धन विधेयक (Money Bill) के मामले में प्रक्रिया अलग होती है। इसे केवल लोकसभा में और राष्ट्रपति की पूर्व सिफारिश पर ही प्रस्तुत किया जा सकता है। लोकसभा में पारित होने के बाद, इसे राज्यसभा को भेजा जाता है। राज्यसभा धन विधेयक को अस्वीकार या संशोधित नहीं कर सकती। वह केवल सिफारिशें दे सकती है और उसे 14 दिनों के भीतर विधेयक को लोकसभा को लौटाना होता है। लोकसभा राज्यसभा की सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र है। यदि 14 दिनों में राज्यसभा विधेयक नहीं लौटाती है, तो इसे पारित मान लिया जाता है।
संसद की संयुक्त बैठक (Joint Sitting of Parliament)
यदि किसी साधारण विधेयक पर दोनों सदनों के बीच गतिरोध उत्पन्न हो जाता है (जैसे, एक सदन द्वारा पारित विधेयक को दूसरा सदन अस्वीकार कर दे), तो राष्ट्रपति इस गतिरोध को हल करने के लिए दोनों सदनों की एक संयुक्त बैठक (joint sitting) बुला सकते हैं। संयुक्त बैठक की अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करते हैं। इसमें निर्णय उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत से लिया जाता है। चूँकि लोकसभा की सदस्य संख्या राज्यसभा से लगभग दोगुनी है, इसलिए आमतौर पर संयुक्त बैठक में लोकसभा की राय ही प्रबल होती है।
4. संसदीय समितियाँ: संसद की सूक्ष्म जाँचकर्ता (Parliamentary Committees: The Micro-Investigators of Parliament) 🔍📝
संसदीय समितियों की आवश्यकता क्यों? (Why are Parliamentary Committees needed?)
संसद के पास बहुत सारे काम होते हैं और उसके सत्र का समय सीमित होता है। इसलिए, संसद के लिए हर विधेयक, हर बजट और हर नीति की गहराई से जाँच करना संभव नहीं है। इस समस्या को हल करने के लिए, संसदीय समितियों (Parliamentary Committees) की प्रणाली विकसित की गई है। ये समितियाँ छोटे-छोटे सांसदों के समूह होती हैं जो किसी विशेष मामले पर विस्तार से विचार-विमर्श करती हैं। इन्हें ‘लघु संसद’ (Mini Parliament) भी कहा जाता है क्योंकि इनमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के सदस्य होते हैं।
समितियों के प्रकार (Types of Committees)
संसदीय समितियों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है: स्थायी समितियाँ (Standing Committees) और तदर्थ समितियाँ (Ad-hoc Committees)। स्थायी समितियाँ स्थायी प्रकृति की होती हैं, जिनका गठन समय-समय पर या वार्षिक आधार पर किया जाता है। दूसरी ओर, तदर्थ समितियाँ किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए बनाई जाती हैं और जब वे अपना काम पूरा कर लेती हैं और अपनी रिपोर्ट सौंप देती हैं, तो उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
प्रमुख स्थायी समितियाँ: वित्तीय समितियाँ (Key Standing Committees: Financial Committees)
तीन सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय समितियाँ हैं। पहली, लोक लेखा समिति (Public Accounts Committee – PAC), जो भारत सरकार के खर्चों की लेखा-परीक्षा करती है और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट की जाँच करती है। दूसरी, प्राक्कलन समिति (Estimates Committee), जो बजट में शामिल अनुमानों की जाँच करती है और सार्वजनिक व्यय में मितव्ययिता के लिए सुझाव देती है। तीसरी, सार्वजनिक उपक्रमों संबंधी समिति (Committee on Public Undertakings), जो सरकारी कंपनियों और निगमों के खातों और रिपोर्टों की जाँच करती है।
विभागीय स्थायी समितियाँ (Departmental Standing Committees)
1993 में, विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के कार्यों की अधिक प्रभावी जाँच के लिए 17 विभागीय स्थायी समितियाँ (Departmental Standing Committees – DSCs) स्थापित की गईं, जिनकी संख्या अब 24 है। प्रत्येक समिति एक विशिष्ट मंत्रालय के अनुदान मांगों, संबंधित विधेयकों, और वार्षिक रिपोर्टों की जाँच करती है। ये समितियाँ सरकार को संसद के प्रति अधिक जवाबदेह बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे विधेयकों की गहन जाँच करके विधायी प्रक्रिया (legislative process) की गुणवत्ता में भी सुधार करती हैं।
तदर्थ समितियाँ: प्रवर और संयुक्त समितियाँ (Ad-hoc Committees: Select and Joint Committees)
जब कोई विवादास्पद या महत्वपूर्ण विधेयक सदन में पेश किया जाता है, तो उसे अक्सर गहन जाँच के लिए एक तदर्थ समिति को भेजा जाता है। यदि समिति में केवल एक सदन के सदस्य होते हैं, तो उसे ‘प्रवर समिति’ (Select Committee) कहा जाता है। यदि इसमें दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के सदस्य होते हैं, तो इसे ‘संयुक्त समिति’ (Joint Committee) कहा जाता है। ये समितियाँ विधेयक के प्रावधानों पर विस्तृत विचार-विमर्श करती हैं और अपनी रिपोर्ट सदन को सौंपती हैं, जो कानून बनाने की प्रक्रिया में बहुत सहायक होती है।
समितियों का महत्व और प्रभाव (Importance and Impact of Committees)
संसदीय समितियाँ भारतीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे कार्यपालिका पर वित्तीय नियंत्रण सुनिश्चित करती हैं, विस्तृत विधायी जाँच प्रदान करती हैं, और विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर गहन चर्चा के लिए एक मंच प्रदान करती हैं। इन समितियों की कार्यवाही दलीय राजनीति से अपेक्षाकृत मुक्त होती है, जिससे मुद्दों पर अधिक वस्तुनिष्ठ और गहन विचार-विमर्श संभव हो पाता है। वे सरकार के कामकाज पर संसद की निगरानी को प्रभावी बनाती हैं।
5. राज्य विधानमंडल: राज्यों में कानून निर्माण (State Legislatures: Law-making in the States) 🗺️
राज्यों में विधायी संरचना (Legislative Structure in States)
जैसे केंद्र में संसद होती है, वैसे ही राज्यों में कानून बनाने के लिए राज्य विधानमंडल (State Legislature) होता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार, प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमंडल होगा। अधिकांश राज्यों में एकसदनीय प्रणाली (unicameral system) है, यानी वहाँ केवल एक सदन है – विधान सभा (Legislative Assembly)। हालाँकि, कुछ बड़े राज्यों में द्विसदनीय प्रणाली (bicameral system) है, जहाँ विधान सभा के साथ-साथ एक विधान परिषद (Legislative Council) भी होती है।
विधान सभा: राज्यों का लोकप्रिय सदन (Legislative Assembly: The Popular House of the States)
विधान सभा (जिसे विधानसभा भी कहा जाता है) राज्य विधानमंडल का निचला और अधिक शक्तिशाली सदन है। यह लोकसभा की तरह ही है। इसके सदस्यों, जिन्हें विधायक (MLA – Member of Legislative Assembly) कहा जाता है, को राज्य के नागरिकों द्वारा सीधे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर 5 साल के लिए चुना जाता है। राज्य की वास्तविक कार्यकारी शक्ति, यानी मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद, विधानसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है।
विधान परिषद: उच्च सदन (Legislative Council: The Upper House)
विधान परिषद (जिसे विधान परिषद भी कहा जाता है) राज्यसभा की तरह राज्य का उच्च सदन है। यह एक स्थायी सदन है और इसे भंग नहीं किया जा सकता। इसके सदस्यों का चुनाव सीधे जनता द्वारा नहीं किया जाता, बल्कि एक विशेष निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है जिसमें स्थानीय निकायों, स्नातकों, शिक्षकों के प्रतिनिधि और विधानसभा के सदस्य शामिल होते हैं। कुछ सदस्यों को राज्यपाल द्वारा मनोनीत भी किया जाता है। विधान परिषद का निर्माण या विघटन संसद द्वारा संबंधित राज्य विधानसभा की सिफारिश पर किया जा सकता है।
राज्य स्तर पर विधायी प्रक्रिया (Legislative Procedure at the State Level)
राज्यों में कानून बनाने की प्रक्रिया काफी हद तक संसद की प्रक्रिया के समान है। साधारण विधेयक किसी भी सदन में (यदि दो सदन हैं) पेश किए जा सकते हैं, जबकि धन विधेयक केवल विधानसभा में ही पेश किए जा सकते हैं। विधेयक को कानून बनने के लिए दोनों सदनों (द्विसदनीय राज्यों में) से पारित होना पड़ता है और अंत में राज्यपाल की सहमति (Governor’s assent) प्राप्त करनी होती है। विधानसभा के पास धन विधेयकों और अन्य मामलों में विधान परिषद की तुलना में अधिक शक्तियाँ होती हैं।
राज्यपाल की भूमिका (Role of the Governor)
राज्यपाल राज्य विधानमंडल का एक अभिन्न अंग होता है, ठीक वैसे ही जैसे राष्ट्रपति संसद का अंग है। किसी भी विधेयक को कानून बनने के लिए राज्यपाल की सहमति आवश्यक है। राज्यपाल विधेयक पर सहमति दे सकता है, सहमति रोक सकता है, या (यदि यह धन विधेयक नहीं है) उसे पुनर्विचार के लिए विधानमंडल को वापस भेज सकता है। इसके अलावा, राज्यपाल के पास एक विशेष शक्ति होती है – वह कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित (reserve for the consideration of the President) कर सकता है।
6. संसदीय विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ (Parliamentary Privileges and Immunities) 🛡️
विशेषाधिकार का अर्थ (Meaning of Privileges)
संसदीय विशेषाधिकार (Parliamentary Privileges) कुछ विशेष अधिकार, उन्मुक्तियाँ और छूट हैं जो संसद के दोनों सदनों, उनकी समितियों और उनके सदस्यों को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से प्राप्त हैं। इन विशेषाधिकारों का उद्देश्य संसद की स्वतंत्रता, अधिकार और गरिमा को बनाए रखना है ताकि सदस्य बिना किसी डर या पक्षपात के अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। ये विशेषाधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 (संसद के लिए) और अनुच्छेद 194 (राज्य विधानमंडलों के लिए) से प्राप्त होते हैं।
सामूहिक विशेषाधिकार (Collective Privileges)
ये वे विशेषाधिकार हैं जो संसद के प्रत्येक सदन को सामूहिक रूप से प्राप्त हैं। इनमें अपनी बहसों, रिपोर्टों और कार्यवाहियों को प्रकाशित करने और दूसरों को प्रकाशित करने से रोकने का अधिकार शामिल है। सदन को अपनी कार्यवाही से अजनबियों (जैसे दर्शक, प्रेस) को बाहर करने और गुप्त बैठकें करने का अधिकार है। सदन अपनी अवमानना (contempt) या विशेषाधिकार के हनन (breach of privilege) के लिए किसी को भी दंडित कर सकता है, चाहे वह सदस्य हो या बाहरी व्यक्ति।
व्यक्तिगत विशेषाधिकार (Individual Privileges)
ये वे विशेषाधिकार हैं जो प्रत्येक सदस्य को व्यक्तिगत रूप से प्राप्त हैं। सबसे महत्वपूर्ण विशेषाधिकारों में से एक है भाषण की स्वतंत्रता (freedom of speech)। संसद या उसकी किसी समिति में किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। इसके अलावा, सदस्यों को संसद के सत्र के दौरान और सत्र शुरू होने के 40 दिन पहले और 40 दिन बाद तक दीवानी मामलों (civil cases) में गिरफ्तारी से छूट प्राप्त है। यह छूट आपराधिक मामलों में उपलब्ध नहीं है।
विशेषाधिकारों का हनन (Breach of Privilege)
जब कोई व्यक्ति या प्राधिकरण किसी सदस्य या सदन के विशेषाधिकारों की अवहेलना करता है या उन पर हमला करता है, तो इसे ‘विशेषाधिकार का हनन’ (breach of privilege) कहा जाता है। उदाहरण के लिए, सदन की कार्यवाही की गलत रिपोर्टिंग करना, अध्यक्ष के चरित्र पर आक्षेप लगाना, या किसी सदस्य को उसके संसदीय कर्तव्यों के निर्वहन में बाधा डालना विशेषाधिकार का हनन माना जा सकता है। सदन ऐसे मामलों को अपनी विशेषाधिकार समिति (Committee of Privileges) को भेज सकता है और दोषी पाए जाने पर चेतावनी, फटकार या कारावास का दंड दे सकता है।
न्यायालय और विशेषाधिकार (Courts and Privileges)
संसदीय विशेषाधिकारों और मौलिक अधिकारों के बीच टकराव की स्थिति में किसकी प्रधानता होगी, यह एक बहस का विषय रहा है। न्यायालयों ने माना है कि संसदीय विशेषाधिकार न्यायिक समीक्षा (judicial review) के अधीन हैं। न्यायालय यह तय कर सकते हैं कि कोई विशेष विशेषाधिकार मौजूद है या नहीं, लेकिन सदन द्वारा अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कैसे किया जाता है, इसमें वे आमतौर पर हस्तक्षेप नहीं करते। यह शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत को संतुलित करने का एक प्रयास है।
7. दल-बदल विरोधी कानून और किहोटो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू केस (Anti-Defection Law and the Kihoto Hollohan v. Zachillhu Case) ⚖️
दल-बदल की समस्या (The Problem of Defection)
1960 और 70 के दशक में भारतीय राजनीति में एक बड़ी समस्या उभरी, जिसे ‘आया राम गया राम’ की राजनीति कहा गया। इसमें निर्वाचित प्रतिनिधि व्यक्तिगत लाभ या मंत्री पद के लालच में बार-बार अपनी राजनीतिक पार्टी बदलते थे। इस दल-बदल (defection) की वजह से सरकारें अस्थिर हो जाती थीं और जनादेश का अपमान होता था। इस राजनीतिक अवसरवाद को रोकने के लिए एक मजबूत कानून की आवश्यकता महसूस की गई।
दसवीं अनुसूची का परिचय (Introduction of the Tenth Schedule)
इस समस्या से निपटने के लिए, 1985 में संसद ने 52वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया। इस संशोधन के माध्यम से संविधान में एक नई अनुसूची – दसवीं अनुसूची (Tenth Schedule) – जोड़ी गई, जिसे लोकप्रिय रूप से ‘दल-बदल विरोधी कानून’ (Anti-Defection Law) के नाम से जाना जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य विधायकों और सांसदों को अपनी पार्टी बदलने से रोकना और राजनीतिक दलों में अनुशासन को बढ़ावा देना था।
अयोग्यता के आधार (Grounds for Disqualification)
दसवीं अनुसूची के अनुसार, किसी सदस्य को दल-बदल के आधार पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है यदि: (1) वह स्वेच्छा से अपनी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है; (2) वह अपनी पार्टी के व्हिप (निर्देश) के विरुद्ध सदन में मतदान करता है या मतदान से अनुपस्थित रहता है, और 15 दिनों के भीतर पार्टी से माफी नहीं पाता है। हालाँकि, इस कानून में कुछ अपवाद भी हैं। यदि किसी पार्टी के कम से कम दो-तिहाई विधायक किसी दूसरी पार्टी में विलय कर लेते हैं, तो इसे दल-बदल नहीं माना जाएगा।
अध्यक्ष/सभापति का निर्णय (Decision of the Speaker/Chairman)
दल-बदल के आधार पर किसी सदस्य की अयोग्यता के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार सदन के पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer) – यानी लोकसभा में अध्यक्ष और राज्यसभा में सभापति – को दिया गया। मूल कानून में यह प्रावधान था कि पीठासीन अधिकारी का निर्णय अंतिम होगा और इसे किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। इस प्रावधान ने एक बड़े संवैधानिक विवाद को जन्म दिया, क्योंकि यह न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत पर सवाल खड़ा करता था।
प्रमुख केस: किहोटो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू (1992) (Landmark Case: Kihoto Hollohan v. Zachillhu)
यही विवाद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कIHOTO HOLLOHAN V. ZACHILLHU मामले में आया। इस ऐतिहासिक मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने दसवीं अनुसूची की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। न्यायालय ने कहा कि यह कानून राजनीतिक नैतिकता को बनाए रखने और लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए आवश्यक है। यह कानून सदस्यों की भाषण की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं करता है क्योंकि एक सदस्य अपनी पार्टी के टिकट पर चुना जाता है और उसे पार्टी के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए।
न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत (The Principle of Judicial Review)
इस केस का सबसे महत्वपूर्ण पहलू पीठासीन अधिकारी के निर्णय की न्यायिक समीक्षा (judicial review) से संबंधित था। सर्वोच्च न्यायालय ने दसवीं अनुसूची के उस पैराग्राफ को असंवैधानिक घोषित कर दिया जो पीठासीन अधिकारी के निर्णय को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखता था। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि जब पीठासीन अधिकारी दल-बदल के तहत अयोग्यता का फैसला करता है, तो वह एक न्यायाधिकरण (tribunal) के रूप में कार्य करता है। इसलिए, उसके निर्णय को दुर्भावना, प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन या अधिकार क्षेत्र से बाहर होने के आधार पर अदालतों में चुनौती दी जा सकती है।
कानून का प्रभाव और आलोचना (Impact and Criticism of the Law)
कIHOTO HOLLOHAN V. ZACHILLHU केस ने दल-बदल विरोधी कानून को एक मजबूत कानूनी आधार प्रदान किया और यह सुनिश्चित किया कि पीठासीन अधिकारी की शक्ति निरंकुश न हो। हालाँकि, इस कानून की आलोचना भी की जाती है। आलोचकों का तर्क है कि यह कानून पार्टी के आलाकमान को बहुत अधिक शक्तिशाली बनाता है और विधायकों को अपने विवेक या अपने निर्वाचन क्षेत्र के हितों के अनुसार मतदान करने से रोकता है। यह भी तर्क दिया जाता है कि पीठासीन अधिकारी, जो आमतौर पर सत्ताधारी दल से होता है, निष्पक्ष रूप से कार्य नहीं कर सकता। इन चुनौतियों के बावजूद, यह कानून भारतीय राजनीति में स्थिरता लाने में एक महत्वपूर्ण उपकरण बना हुआ है।
8. निष्कर्ष (Conclusion) ✨
लोकतंत्र की धड़कन (The Heartbeat of Democracy)
भारत की विधायिका (Legislature of India), जिसमें संसद और राज्य विधानमंडल शामिल हैं, हमारे लोकतंत्र की धड़कन है। यह वह मंच है जहाँ देश के भविष्य को आकार देने वाले कानून बनाए जाते हैं, जहाँ सरकार की नीतियों पर बहस होती है, और जहाँ कार्यपालिका को जनता के प्रति जवाबदेह ठहराया जाता है। संसद की संरचना (structure of Parliament), जिसमें लोकसभा और राज्यसभा शामिल हैं, यह सुनिश्चित करती है कि कानून बनाने में जन-आकांक्षाओं और राज्यों के हितों के बीच एक संतुलन बना रहे।
एक जीवंत प्रक्रिया (A Vibrant Process)
हमने देखा कि विधायी प्रक्रिया (legislative procedure) कितनी विस्तृत और विचार-विमर्श से भरी है। विधेयकों का कई चरणों से गुजरना, संसदीय समितियों (parliamentary committees) द्वारा उनकी गहन जाँच, और दोनों सदनों में बहस यह सुनिश्चित करती है कि कानून व्यापक सोच-विचार के बाद ही बनें। यह प्रक्रिया भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता और जीवंतता को दर्शाती है, जहाँ विभिन्न विचारों और मतों को सुना और समायोजित किया जाता है।
चुनौतियाँ और आगे की राह (Challenges and the Way Forward)
हालांकि, हमारी विधायी प्रणाली चुनौतियों से रहित नहीं है। संसद की बैठकों में व्यवधान, बहस के गिरते स्तर, और दल-बदल विरोधी कानून के संभावित दुरुपयोग जैसी समस्याएं मौजूद हैं। इन चुनौतियों से निपटने के लिए निरंतर सुधार की आवश्यकता है। एक जागरूक नागरिक के रूप में, यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने प्रतिनिधियों के काम पर नजर रखें और विधायी प्रक्रिया में सक्रिय रूप से रुचि लें ताकि हमारी विधायिका भारतीय लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में अपनी भूमिका को और भी प्रभावी ढंग से निभा सके। 🇮🇳


Pingback: Indian Polity Syllabus