विषयसूची (Table of Contents)
- 1. परिचय: एक कहानी से शुरुआत (Introduction: Starting with a Story)
- 2. शिक्षा के अधिकार का ऐतिहासिक सफर (The Historical Journey of the Right to Education)
- 3. शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE Act, 2009) की मुख्य बातें (Key Features of the RTE Act, 2009)
- 4. RTE अधिनियम का भारतीय समाज पर प्रभाव: सकारात्मक और नकारात्मक पहलू (Impact of the RTE Act on Indian Society: Positive and Negative Aspects)
- 5. शिक्षा के अधिकार के सामने खड़ी चुनौतियाँ (Challenges Facing the Right to Education)
- 6. RTE को हकीकत बनाने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? (What Steps are Being Taken to Make RTE a Reality?)
- 7. शिक्षा के अधिकार का भविष्य और हमारी भूमिका (The Future of the Right to Education and Our Role)
- 8. निष्कर्ष (Conclusion)
- 9. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (Frequently Asked Questions – FAQs)
1. परिचय: एक कहानी से शुरुआत (Introduction: Starting with a Story)
राजस्थान के एक छोटे से गाँव में, 10 साल की मीरा हर सुबह स्कूल जाती हुई बस को हसरत भरी निगाहों से देखती थी। उसके माता-पिता दिहाड़ी मजदूर थे और उनके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना ही एक बड़ी चुनौती थी। वे मीरा को पढ़ाना तो चाहते थे, लेकिन गाँव के सरकारी स्कूल की हालत खस्ता थी और पास के निजी स्कूल की फीस भरना उनके बस की बात नहीं थी। मीरा के सपने, उसकी आँखों में ही दबे जा रहे थे। फिर एक दिन, एक सामाजिक कार्यकर्ता ने उन्हें शिक्षा का अधिकार (Right to Education) कानून के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि इस कानून के तहत, मीरा जैसे बच्चों को भी पास के निजी स्कूल में मुफ्त में पढ़ने का हक़ है। थोड़ी भागदौड़ के बाद, मीरा का दाखिला उसी चमचमाते स्कूल में हो गया, जिसे वह रोज़ दूर से देखती थी। यह कहानी सिर्फ मीरा की नहीं है, बल्कि भारत के लाखों बच्चों की है, जिनके लिए शिक्षा का अधिकार एक उम्मीद की किरण बनकर आया है। लेकिन क्या यह किरण हर बच्चे तक पहुँच पा रही है? क्या यह कानून वाकई एक हकीकत है या सिर्फ किताबों में लिखा एक खूबसूरत फसाना?
शिक्षा का अधिकार: एक मौलिक संकल्प (Right to Education: A Fundamental Resolve)
शिक्षा का अधिकार (RTE), जिसे आधिकारिक तौर पर ‘बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009’ के नाम से जाना जाता है, एक ऐतिहासिक कानून है। यह कानून भारत के 6 से 14 वर्ष की आयु के हर बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को एक मौलिक अधिकार (fundamental right) के रूप में सुनिश्चित करता है। इसका मतलब है कि यह सरकार का कर्तव्य है कि वह हर बच्चे को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करे और यह सुनिश्चित करे कि कोई भी बच्चा आर्थिक या सामाजिक कारणों से शिक्षा से वंचित न रहे। यह कानून सिर्फ सरकारी स्कूलों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह निजी स्कूलों पर भी एक महत्वपूर्ण सामाजिक जिम्मेदारी डालता है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम शिक्षा का अधिकार के हर पहलू की गहराई से पड़ताल करेंगे – इसके इतिहास से लेकर इसके वर्तमान स्वरूप तक, इसकी सफलताओं से लेकर इसकी चुनौतियों तक, और यह जानने की कोशिश करेंगे कि इस सपने को पूरी तरह से हकीकत में बदलने के लिए अभी और कितना लंबा सफर तय करना बाकी है।
2. शिक्षा के अधिकार का ऐतिहासिक सफर (The Historical Journey of the Right to Education)
आज जिसे हम शिक्षा का अधिकार के रूप में जानते हैं, वह रातों-रात नहीं बना। इसके पीछे एक लंबा और संघर्षपूर्ण इतिहास छिपा है, जिसमें समाज सुधारकों, स्वतंत्रता सेनानियों, न्यायविदों और नीति निर्माताओं का महत्वपूर्ण योगदान है। इस अधिकार की जड़ें भारत के स्वतंत्रता संग्राम और संविधान निर्माण की प्रक्रिया में गहराई से जुड़ी हुई हैं।
स्वतंत्रता से पहले की स्थिति (Pre-Independence Scenario)
भारत में सार्वभौमिक शिक्षा की मांग ब्रिटिश शासन के दौरान ही उठने लगी थी।
- ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले: 19वीं सदी में, उन्होंने लड़कियों और दलित समुदायों के लिए शिक्षा के द्वार खोले, जब शिक्षा कुछ विशेष वर्गों तक ही सीमित थी। उन्होंने शिक्षा को सामाजिक न्याय (social justice) का एक शक्तिशाली उपकरण माना।
- गोपाल कृष्ण गोखले: 1910 में, गोखले ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में ‘मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा’ प्रदान करने के लिए एक विधेयक पेश करने का साहसिक प्रयास किया, हालांकि यह सफल नहीं हो सका।
- महात्मा गांधी: गांधीजी ने ‘बुनियादी शिक्षा’ या ‘नई तालीम’ की अवधारणा पेश की, जिसमें बच्चों को हस्तशिल्प के माध्यम से व्यावहारिक ज्ञान देने पर जोर दिया गया, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें।
संविधान सभा की बहस और अनुच्छेद 45 (Constituent Assembly Debates and Article 45)
जब भारत का संविधान बन रहा था, तो संविधान सभा में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने पर जोरदार बहस हुई।
- कई सदस्य शिक्षा को तुरंत एक मौलिक अधिकार बनाना चाहते थे, लेकिन उस समय देश के पास इतने संसाधन नहीं थे कि इस अधिकार को तुरंत लागू किया जा सके।
- इसलिए, एक बीच का रास्ता निकाला गया। शिक्षा को संविधान के भाग IV में ‘राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों’ (Directive Principles of State Policy) के तहत अनुच्छेद 45 में शामिल किया गया।
- अनुच्छेद 45 में कहा गया कि “राज्य, इस संविधान के लागू होने के दस साल के भीतर, सभी बच्चों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा।”
- यह एक कानूनी रूप से बाध्यकारी अधिकार नहीं था, बल्कि सरकार के लिए एक नैतिक दायित्व था। यह एक वादा था जिसे पूरा करने में कई दशक लग गए।
न्यायिक सक्रियता की महत्वपूर्ण भूमिका (The Important Role of Judicial Activism)
समय के साथ, भारतीय न्यायपालिका ने शिक्षा का अधिकार को एक वास्तविकता बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य (1992): इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘जीवन के अधिकार’ (अनुच्छेद 21) में ‘गरिमा के साथ जीवन का अधिकार’ भी शामिल है, और बिना शिक्षा के यह संभव नहीं है।
- उन्नी कृष्णन, जे.पी. बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993): यह एक ऐतिहासिक फैसला था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट रूप से कहा कि 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक अभिन्न अंग है।
- इस फैसले ने सरकार पर एक मजबूत दबाव बनाया कि वह शिक्षा के अधिकार को एक कानूनी रूप दे। इसने नीति निर्माताओं को यह महसूस कराया कि अब इस मुद्दे को और टाला नहीं जा सकता।
86वां संवैधानिक संशोधन, 2002 (86th Constitutional Amendment, 2002)
न्यायिक दबाव और नागरिक समाज के लगातार प्रयासों के परिणामस्वरूप, भारतीय संसद ने 2002 में 86वां संवैधानिक संशोधन पारित किया। यह शिक्षा का अधिकार की यात्रा में एक मील का पत्थर था।
- अनुच्छेद 21-A का समावेश: इस संशोधन ने संविधान में एक नया अनुच्छेद, 21-A, जोड़ा। इसने 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिए शिक्षा को एक मौलिक अधिकार बना दिया।
- अनुच्छेद 45 में संशोधन: मूल अनुच्छेद 45 को बदलकर अब यह “छह वर्ष से कम आयु के बच्चों की प्रारंभिक देखभाल और शिक्षा” पर केंद्रित हो गया, जिसे हम आज आंगनवाड़ी के रूप में जानते हैं।
- अनुच्छेद 51-A(k) का जुड़ना: एक नया मौलिक कर्तव्य (fundamental duty) भी जोड़ा गया, जिसमें प्रत्येक माता-पिता या अभिभावक का यह कर्तव्य निर्धारित किया गया कि वे अपने 6 से 14 वर्ष के बच्चे को शिक्षा के अवसर प्रदान करें।
3. शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE Act, 2009) की मुख्य बातें (Key Features of the RTE Act, 2009)
संविधान में अनुच्छेद 21-A को शामिल करने के बाद, इस मौलिक अधिकार को जमीनी स्तर पर लागू करने के लिए एक विस्तृत कानून की आवश्यकता थी। इसी जरूरत को पूरा करने के लिए 2009 में संसद ने ‘बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम’ पारित किया, जो 1 अप्रैल 2010 से पूरे देश में (जम्मू और कश्मीर को छोड़कर) लागू हुआ। यह अधिनियम शिक्षा का अधिकार को हकीकत में बदलने का एक विस्तृत खाका प्रस्तुत करता है। आइए इसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं पर नजर डालें।
मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान (Provision of Free and Compulsory Education)
यह अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण और केंद्रीय प्रावधान है।
- आयु वर्ग: यह कानून 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे पर लागू होता है।
- अनिवार्य (Compulsory): इसका मतलब है कि यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह हर बच्चे का स्कूल में दाखिला सुनिश्चित करे, उनकी उपस्थिति बनाए रखे और उनकी प्रारंभिक शिक्षा पूरी कराए।
- मुफ्त (Free): ‘मुफ्त’ का मतलब सिर्फ ट्यूशन फीस की माफी नहीं है। इसके तहत सरकार को बच्चों को पाठ्यपुस्तकें, यूनिफॉर्म, लिखने की सामग्री और अन्य आवश्यक शिक्षण सामग्री भी मुफ्त में उपलब्ध करानी होती है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि गरीबी शिक्षा के रास्ते में बाधा न बने।
पड़ोस के स्कूल में दाखिला (Admission in Neighbourhood School)
इस कानून के तहत हर बच्चे को अपने घर के पास के स्कूल में दाखिला पाने का अधिकार है।
- सरकार को यह सुनिश्चित करना होता है कि निर्धारित दूरी के भीतर स्कूल उपलब्ध हों (आमतौर पर प्राथमिक स्तर के लिए 1 किलोमीटर और उच्च प्राथमिक के लिए 3 किलोमीटर)।
- किसी भी बच्चे को उम्र के प्रमाण पत्र (birth certificate) या स्थानांतरण प्रमाण पत्र (transfer certificate) की कमी के कारण दाखिले से मना नहीं किया जा सकता है।
- अगर कोई बच्चा अपनी उम्र के हिसाब से किसी कक्षा में दाखिला लेने से चूक गया है, तो उसे उसकी उम्र के अनुसार उपयुक्त कक्षा में दाखिला दिया जाएगा और उसे अन्य बच्चों के बराबर लाने के लिए विशेष प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाएगा। यह शिक्षा का अधिकार की समावेशी भावना को दर्शाता है।
निजी स्कूलों में 25% आरक्षण का ऐतिहासिक कदम (The Historic Step of 25% Reservation in Private Schools)
यह RTE अधिनियम का एक क्रांतिकारी और सबसे चर्चित प्रावधान है।
- इस प्रावधान के तहत, सभी गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों (अल्पसंख्यक संस्थानों को छोड़कर) को अपनी प्रवेश स्तर की कक्षा (जैसे कि पहली कक्षा या प्री-स्कूल) में 25% सीटें ‘आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग’ (Economically Weaker Section – EWS) और ‘वंचित समूह’ (Disadvantaged Group) के बच्चों के लिए आरक्षित रखनी होंगी।
- सरकार इन बच्चों की शिक्षा पर होने वाले खर्च की प्रतिपूर्ति (reimbursement) स्कूलों को करती है।
- इसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक समावेशन (social inclusion) को बढ़ावा देना है, ताकि विभिन्न सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चे एक साथ पढ़ सकें, जिससे वर्ग-भेद और जाति-भेद की दीवारें कमजोर हों। यह शिक्षा का अधिकार को सामाजिक न्याय का एक माध्यम बनाता है।
स्कूलों और शिक्षकों के लिए मानक (Norms for Schools and Teachers)
यह अधिनियम केवल दाखिले पर ही नहीं, बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता पर भी ध्यान केंद्रित करता है।
- बुनियादी ढाँचा: अधिनियम में स्कूलों के लिए न्यूनतम मानक तय किए गए हैं, जैसे कि हर मौसम के लिए उपयुक्त इमारत, लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय, पीने का साफ पानी, खेल का मैदान और पुस्तकालय।
- छात्र-शिक्षक अनुपात (Pupil-Teacher Ratio): प्राथमिक स्तर पर 30:1 और उच्च प्राथमिक स्तर पर 35:1 का छात्र-शिक्षक अनुपात अनिवार्य किया गया है।
- शिक्षक योग्यता: कोई भी व्यक्ति बिना निर्धारित न्यूनतम योग्यता (जैसे D.El.Ed. या B.Ed. और TET पास) के शिक्षक के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता है। शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों (जैसे चुनाव ड्यूटी, आपदा राहत और जनगणना को छोड़कर) में नहीं लगाया जा सकता।
पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रक्रिया (Curriculum and Evaluation Process)
RTE अधिनियम सीखने की प्रक्रिया को बाल-केंद्रित बनाने पर जोर देता है।
- पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो बच्चे के सर्वांगीण विकास (all-round development) पर केंद्रित हो, न कि केवल रटने पर। इसे बच्चों को भय, आघात और चिंता से मुक्त बनाना चाहिए।
- बच्चों के शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न पर पूरी तरह से रोक है।
- मूल्यांकन प्रक्रिया सतत और व्यापक (Continuous and Comprehensive Evaluation – CCE) होनी चाहिए, ताकि बच्चे की प्रगति का लगातार आकलन किया जा सके।
- प्रारंभ में, कक्षा 8 तक किसी भी बच्चे को फेल न करने की ‘नो-डिटेंशन पॉलिसी’ थी, हालांकि 2019 में इसमें संशोधन कर राज्यों को यह अधिकार दे दिया गया है कि वे 5वीं और 8वीं कक्षा में नियमित परीक्षा आयोजित कर सकते हैं और बच्चों को फेल होने पर रोक सकते हैं।
स्कूल प्रबंधन समिति (School Management Committee – SMC)
यह कानून स्कूलों के प्रबंधन में स्थानीय समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित करता है।
- प्रत्येक सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूल में एक स्कूल प्रबंधन समिति (SMC) का गठन अनिवार्य है।
- इस समिति में 75% सदस्य बच्चों के माता-पिता या अभिभावक होंगे, और इसमें महिलाओं और वंचित समूहों के माता-पिता को भी उचित प्रतिनिधित्व दिया जाएगा।
- SMC का काम स्कूल के कामकाज की निगरानी करना, स्कूल विकास योजना तैयार करना और सरकारी अनुदानों के उपयोग पर नजर रखना है। यह शिक्षा का अधिकार को एक जन-आंदोलन बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
4. RTE अधिनियम का भारतीय समाज पर प्रभाव: सकारात्मक और नकारात्मक पहलू (Impact of the RTE Act on Indian Society: Positive and Negative Aspects)
किसी भी बड़े कानून की तरह, शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 का भारतीय समाज और शिक्षा प्रणाली पर मिला-जुला प्रभाव पड़ा है। एक दशक से अधिक समय के बाद, अब हम इसके प्रभावों का निष्पक्ष रूप से विश्लेषण कर सकते हैं। यह कानून कई मायनों में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया है, लेकिन इसकी राह में कई बाधाएं भी आई हैं, जिससे इसकी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं हो पाया है। आइए, इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करें।
सकारात्मक पहलू (Positive Aspects)
RTE अधिनियम ने निश्चित रूप से भारतीय शिक्षा के परिदृश्य को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
- नामांकन दर में वृद्धि: सबसे बड़ी और स्पष्ट सफलता स्कूलों में नामांकन दर (enrollment rate) में वृद्धि है। कानून लागू होने के बाद, 6-14 आयु वर्ग के बच्चों का स्कूलों में नामांकन 96% से भी ऊपर पहुँच गया है। विशेष रूप से, लड़कियों और अनुसूचित जाति/जनजाति के बच्चों के नामांकन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
- बुनियादी ढांचे में सुधार: अधिनियम के तहत निर्धारित मानकों को पूरा करने के लिए, कई सरकारी स्कूलों के बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ है। आज अधिक स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय, पीने के पानी की सुविधा और रैंप जैसी व्यवस्थाएं हैं, जिससे स्कूलों का माहौल अधिक समावेशी बना है।
- सामाजिक समावेशन को बढ़ावा: निजी स्कूलों में 25% आरक्षण के प्रावधान ने एक ऐतिहासिक सामाजिक प्रयोग को जन्म दिया है। इसने आर्थिक रूप से कमजोर और वंचित समूहों के बच्चों को उन स्कूलों में पढ़ने का अवसर दिया है, जहाँ पहले वे जाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इससे विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चों के बीच बातचीत बढ़ी है, जो एक समतामूलक समाज (egalitarian society) के निर्माण के लिए आवश्यक है।
- जागरूकता और सशक्तिकरण: शिक्षा का अधिकार ने शिक्षा को एक दान या एहसान के बजाय एक अधिकार के रूप में स्थापित किया है। इससे माता-पिता और समुदायों में अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है। स्कूल प्रबंधन समितियों (SMCs) ने स्थानीय लोगों को स्कूलों के कामकाज में अपनी आवाज उठाने का एक मंच प्रदान किया है, जिससे वे अधिक सशक्त महसूस करते हैं।
नकारात्मक पहलू (Negative Aspects)
सकारात्मक प्रभावों के बावजूद, इस कानून के कार्यान्वयन में कई गंभीर कमियां और चुनौतियां भी सामने आई हैं।
- गुणवत्ता पर मात्रा को प्राथमिकता: आलोचकों का तर्क है कि RTE का ध्यान मुख्य रूप से बच्चों को स्कूल में लाने (नामांकन) पर रहा है, न कि उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा (quality education) प्रदान करने पर। कई रिपोर्टें, जैसे कि ASER (Annual Status of Education Report), लगातार यह दर्शाती हैं कि स्कूलों में नामांकित होने के बावजूद, कई बच्चे अपनी कक्षा के स्तर की बुनियादी पठन और गणित कौशल में भी पीछे हैं।
- 25% आरक्षण के कार्यान्वयन में समस्याएं: यह प्रावधान कागजों पर जितना अच्छा लगता है, जमीन पर इसे लागू करना उतना ही मुश्किल साबित हुआ है। कई निजी स्कूल विभिन्न बहाने बनाकर EWS छात्रों को प्रवेश देने से हिचकते हैं। सरकार द्वारा स्कूलों को दी जाने वाली प्रतिपूर्ति राशि में अक्सर देरी होती है या वह अपर्याप्त होती है, जिससे स्कूलों और सरकार के बीच टकराव की स्थिति बनी रहती है। साथ ही, इन स्कूलों में प्रवेश पाने वाले बच्चों को कभी-कभी सामाजिक भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है।
- ‘नो-डिटेंशन’ नीति का विवाद: कक्षा 8 तक किसी भी बच्चे को फेल न करने की नीति का उद्देश्य बच्चों को स्कूल छोड़ने से रोकना था, लेकिन इसके अनपेक्षित परिणाम हुए। कई शिक्षकों और स्कूलों ने इसे ‘पढ़ाने की कोई जिम्मेदारी नहीं’ के रूप में लिया, जिससे सीखने के स्तर में गिरावट आई। हालांकि अब इस नीति में संशोधन कर दिया गया है, लेकिन इसके द्वारा हुए नुकसान की भरपाई में समय लगेगा।
- शिक्षकों की कमी और प्रशिक्षण का अभाव: शिक्षा का अधिकार की सफलता योग्य और प्रेरित शिक्षकों पर निर्भर करती है। लेकिन भारत अभी भी प्रशिक्षित शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहा है। कई स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात निर्धारित मानकों से बहुत अधिक है। शिक्षकों को नियमित और गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण का भी अभाव है।
- सरकारी स्कूलों की अनदेखी: एक तर्क यह भी दिया जाता है कि 25% आरक्षण ने सरकार का ध्यान अपनी खुद की शिक्षा प्रणाली, यानी सरकारी स्कूलों को सुधारने से हटा दिया है। सरकार निजी स्कूलों को प्रतिपूर्ति देने पर तो ध्यान केंद्रित कर रही है, लेकिन सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता को विश्वस्तरीय बनाने के लिए पर्याप्त निवेश नहीं कर रही है।
5. शिक्षा के अधिकार के सामने खड़ी चुनौतियाँ (Challenges Facing the Right to Education)
शिक्षा का अधिकार को कानून बनाना एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी, लेकिन इसे हर बच्चे के लिए एक जीवंत हकीकत बनाना कहीं अधिक बड़ी चुनौती है। कानून के लागू होने के एक दशक से अधिक समय बाद भी, इसके रास्ते में कई बाधाएं खड़ी हैं जो इसे अपनी पूरी क्षमता तक पहुंचने से रोकती हैं। इन चुनौतियों को समझना और उनका समाधान खोजना इस अधिकार को सफल बनाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
जागरूकता की व्यापक कमी (Widespread Lack of Awareness)
सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक यह है कि जिन लोगों के लिए यह कानून बनाया गया है, वे ही इसके बारे में पूरी तरह से नहीं जानते हैं।
- विशेष रूप से ग्रामीण, आदिवासी और दूर-दराज के इलाकों में, कई माता-पिता को यह नहीं पता कि उनके बच्चे का मुफ्त शिक्षा पाना एक मौलिक अधिकार है।
- उन्हें 25% आरक्षण के प्रावधान, स्कूल प्रबंधन समितियों में उनकी भूमिका, या शिकायत निवारण तंत्र (grievance redressal mechanism) के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है।
- जागरूकता की इस कमी के कारण, वे अपने बच्चों के अधिकारों के लिए आवाज नहीं उठा पाते और अक्सर भ्रष्टाचार और उदासीनता का शिकार हो जाते हैं। यह शिक्षा का अधिकार के प्रभावी कार्यान्वयन में एक बड़ी बाधा है।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का गंभीर अभाव (Serious Lack of Quality Education)
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, RTE का ध्यान बच्चों को स्कूलों में लाने पर अधिक रहा है, लेकिन स्कूल के अंदर क्या हो रहा है, यह एक बड़ी चिंता का विषय है।
- रटने पर आधारित शिक्षा: अधिकांश स्कूल अभी भी रटने वाली शिक्षा प्रणाली का पालन करते हैं, जो बच्चों की रचनात्मकता और महत्वपूर्ण सोच (critical thinking) को बढ़ावा नहीं देती। पाठ्यक्रम अक्सर बच्चों के दैनिक जीवन से जुड़ा नहीं होता।
- अपर्याप्त शिक्षण सामग्री: कई सरकारी स्कूलों में पुस्तकालय, विज्ञान प्रयोगशाला, कंप्यूटर और अन्य आधुनिक शिक्षण सहायक सामग्रियों का अभाव है।
- मूल्यांकन प्रणाली में खामियां: सतत और व्यापक मूल्यांकन (CCE) की अवधारणा को ठीक से लागू नहीं किया गया है। शिक्षक इसे अक्सर अतिरिक्त कागजी कार्रवाई के रूप में देखते हैं, न कि छात्रों की सीखने की प्रक्रिया को समझने के एक उपकरण के रूप में।
सामाजिक और आर्थिक बाधाएं (Socio-economic Barriers)
कानून बना देना ही काफी नहीं है, जब तक कि उन सामाजिक और आर्थिक बाधाओं को दूर नहीं किया जाता जो बच्चों को स्कूल से दूर रखती हैं।
- गरीबी और बाल श्रम: कई गरीब परिवारों के लिए, बच्चे आय का एक स्रोत होते हैं। उन्हें स्कूल भेजने का मतलब है परिवार की आय में कमी। मिड-डे मील जैसी योजनाओं ने इस समस्या को कुछ हद तक कम किया है, लेकिन यह अभी भी एक बड़ी चुनौती है।
- लैंगिक भेदभाव (Gender Discrimination): हालांकि लड़कियों के नामांकन में सुधार हुआ है, लेकिन माध्यमिक स्तर पर लड़कियों के स्कूल छोड़ने की दर (dropout rate) अभी भी लड़कों की तुलना में अधिक है। घरेलू काम, जल्दी शादी और स्कूलों में सुरक्षित माहौल की कमी इसके प्रमुख कारण हैं।
- जाति-आधारित भेदभाव: स्कूलों में दलित और आदिवासी बच्चों को अभी भी सूक्ष्म और कभी-कभी स्पष्ट भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जो उनके सीखने के अनुभव और आत्म-सम्मान पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। शिक्षा का अधिकार को इस सामाजिक जड़ता से भी लड़ना पड़ता है।
नौकरशाही की सुस्ती और भ्रष्टाचार (Bureaucratic Apathy and Corruption)
कानून के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी सरकारी तंत्र पर है, और यहाँ अक्सर सुस्ती और भ्रष्टाचार देखने को मिलता है।
- फंड में देरी: स्कूलों को यूनिफॉर्म, किताबों और अन्य सामग्रियों के लिए मिलने वाले फंड में अक्सर देरी होती है, जिससे पूरी शैक्षणिक प्रक्रिया बाधित होती है।
- निगरानी का अभाव: RTE के मानदंडों का पालन हो रहा है या नहीं, इसकी निगरानी के लिए एक मजबूत और प्रभावी प्रणाली का अभाव है। स्कूल निरीक्षण अक्सर एक औपचारिकता बनकर रह जाते हैं।
- भ्रष्टाचार: 25% कोटे के तहत दाखिले में, शिक्षक नियुक्तियों में और स्कूल निर्माण के ठेकों में भ्रष्टाचार की शिकायतें आम हैं। यह शिक्षा का अधिकार की मूल भावना को कमजोर करता है।
निजी स्कूलों का प्रतिरोध और चुनौतियां (Resistance and Challenges from Private Schools)
निजी स्कूल, जो भारतीय शिक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, अक्सर RTE के प्रावधानों का विरोध करते हैं।
- प्रतिपूर्ति में देरी: सरकार द्वारा 25% कोटे के तहत पढ़ाए जाने वाले बच्चों की फीस की प्रतिपूर्ति में अत्यधिक देरी होती है, जिससे छोटे निजी स्कूलों पर वित्तीय बोझ पड़ता है।
- स्वायत्तता का मुद्दा: कुछ निजी स्कूलों का मानना है कि RTE उनके प्रवेश प्रक्रिया और प्रबंधन में अनावश्यक हस्तक्षेप है, जो उनकी स्वायत्तता (autonomy) को कम करता है।
- एकीकरण की चुनौती: विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चों को एक कक्षा में प्रभावी ढंग से एकीकृत करना और सभी के लिए एक समान सीखने का माहौल बनाना शिक्षकों के लिए एक बड़ी चुनौती है।
6. RTE को हकीकत बनाने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? (What Steps are Being Taken to Make RTE a Reality?)
शिक्षा का अधिकार के सामने खड़ी चुनौतियों के बावजूद, यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि सरकारें, नागरिक समाज और कई अन्य हितधारक इस कानून को एक जमीनी हकीकत में बदलने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं। ये प्रयास बहुआयामी हैं और शिक्षा प्रणाली के विभिन्न पहलुओं को संबोधित करते हैं। इन कदमों को समझना यह जानने के लिए आवश्यक है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, भले ही गति धीमी हो।
सरकारी योजनाएं और नीतियां (Government Schemes and Policies)
केंद्र और राज्य सरकारें RTE के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए कई योजनाओं का संचालन कर रही हैं।
- समग्र शिक्षा अभियान (Samagra Shiksha Abhiyan): यह एक एकीकृत योजना है जिसमें पूर्व-विद्यालय से लेकर कक्षा 12 तक की शिक्षा को शामिल किया गया है। इसने सर्व शिक्षा अभियान (SSA), राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA) और शिक्षक शिक्षा (Teacher Education) को मिलाकर एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाया है। इसका उद्देश्य स्कूल की प्रभावशीलता में सुधार करके समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करना है। आप इस योजना के बारे में अधिक जानकारी आधिकारिक समग्र शिक्षा वेबसाइट पर प्राप्त कर सकते हैं।
- मिड-डे मील योजना (Mid-Day Meal Scheme): अब इसे पीएम-पोषण (PM-POSHAN) के नाम से जाना जाता है। यह योजना न केवल बच्चों के पोषण स्तर में सुधार करती है बल्कि स्कूल में नामांकन और उपस्थिति बढ़ाने में भी एक शक्तिशाली प्रोत्साहन के रूप में कार्य करती है, जिससे शिक्षा का अधिकार को बल मिलता है।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020: यह नीति शिक्षा का अधिकार के दायरे को व्यापक बनाने का एक महत्वाकांक्षी दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। यह मूलभूत साक्षरता और संख्या ज्ञान (foundational literacy and numeracy) पर जोर देती है और पाठ्यक्रम को अधिक लचीला और अनुभवात्मक बनाने की बात करती है, जो RTE की गुणवत्ता संबंधी चिंताओं को दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
प्रौद्योगिकी का बढ़ता उपयोग (Increasing Use of Technology)
प्रौद्योगिकी का उपयोग RTE के कार्यान्वयन में पारदर्शिता और दक्षता लाने में मदद कर रहा है।
- ऑनलाइन एडमिशन पोर्टल: कई राज्यों ने 25% आरक्षण कोटे के तहत दाखिले के लिए केंद्रीकृत ऑनलाइन पोर्टल विकसित किए हैं। इससे आवेदन प्रक्रिया आसान हो गई है और भ्रष्टाचार की गुंजाइश कम हुई है।
- डिजिटल लर्निंग प्लेटफॉर्म: सरकार का DIKSHA (Digital Infrastructure for Knowledge Sharing) प्लेटफॉर्म शिक्षकों और छात्रों के लिए ई-कंटेंट, पाठ्यपुस्तकें और मूल्यांकन संसाधन प्रदान करता है। यह गुणवत्तापूर्ण शिक्षण सामग्री तक पहुंच को लोकतांत्रिक बनाता है।
- शिक्षकों की निगरानी: कुछ राज्यों में, शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए बायोमेट्रिक उपस्थिति प्रणाली और जियो-टैगिंग आधारित ऐप का उपयोग किया जा रहा है, जिससे स्कूलों में उनकी जवाबदेही बढ़ी है।
गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) और नागरिक समाज की भूमिका (Role of Non-Governmental Organizations (NGOs) and Civil Society)
गैर-सरकारी संगठन जमीनी स्तर पर शिक्षा का अधिकार को लागू करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
- जागरूकता अभियान: कई NGO दूर-दराज के क्षेत्रों में जाकर माता-पिता को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करते हैं और उन्हें अपने बच्चों का स्कूलों में दाखिला दिलाने में मदद करते हैं।
- ब्रिज कोर्स का संचालन: जो बच्चे स्कूल छोड़ चुके हैं या कभी स्कूल नहीं गए, उनके लिए NGO विशेष ‘ब्रिज कोर्स’ चलाते हैं ताकि उन्हें उनकी उम्र के अनुसार उपयुक्त कक्षा के लिए तैयार किया जा सके।
- निगरानी और वकालत: संगठन जैसे ‘प्रथम’ (जो ASER रिपोर्ट प्रकाशित करता है) शिक्षा की गुणवत्ता की निगरानी करते हैं और डेटा-आधारित साक्ष्य प्रदान करते हैं जो नीतिगत सुधारों के लिए सरकार पर दबाव बनाते हैं। वे RTE के कार्यान्वयन में खामियों को उजागर करने और जवाबदेही की मांग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
न्यायिक हस्तक्षेप और सक्रियता (Judicial Intervention and Activism)
न्यायपालिका शिक्षा का अधिकार के संरक्षक के रूप में कार्य करना जारी रखे हुए है।
- समय-समय पर, विभिन्न उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय RTE के प्रावधानों की व्याख्या करते हैं और सरकारों को उन्हें ठीक से लागू करने का निर्देश देते हैं।
- जनहित याचिकाओं (Public Interest Litigations – PILs) के माध्यम से, कार्यकर्ता और नागरिक न्यायपालिका का ध्यान उन क्षेत्रों की ओर आकर्षित करते हैं जहाँ शिक्षा का अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।
- न्यायालय के फैसले यह सुनिश्चित करते हैं कि कानून की भावना को कमजोर न किया जाए और सरकारें अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से पीछे न हटें।
7. शिक्षा के अधिकार का भविष्य और हमारी भूमिका (The Future of the Right to Education and Our Role)
शिक्षा का अधिकार एक स्थिर कानून नहीं है, बल्कि एक विकसित होती अवधारणा है। इसका भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि हम वर्तमान चुनौतियों का सामना कैसे करते हैं और आने वाले अवसरों का लाभ कैसे उठाते हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 ने इस दिशा में एक नया रोडमैप प्रस्तुत किया है, लेकिन इसकी सफलता केवल सरकारी नीतियों पर ही नहीं, बल्कि नागरिकों के रूप में हमारी सक्रिय भागीदारी पर भी निर्भर करेगी।
NEP 2020 और RTE का विस्तार (NEP 2020 and Expansion of RTE)
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, शिक्षा का अधिकार को एक नए स्तर पर ले जाने की परिकल्पना करती है।
- आयु वर्ग का विस्तार: NEP 2020 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम के दायरे को मौजूदा 6-14 वर्ष से बढ़ाकर 3-18 वर्ष तक करने की सिफारिश की गई है। यदि यह लागू होता है, तो यह एक क्रांतिकारी कदम होगा, जो प्रारंभिक बचपन की देखभाल और शिक्षा (ECCE) और माध्यमिक शिक्षा को भी कानूनी अधिकार बना देगा।
- प्रारंभिक बचपन शिक्षा पर जोर: नीति मानती है कि सीखने की नींव जीवन के पहले कुछ वर्षों में रखी जाती है। 3-6 वर्ष की आयु को RTE के तहत लाने से यह सुनिश्चित होगा कि हर बच्चे को एक मजबूत शैक्षिक आधार मिले, जिससे आगे चलकर सीखने के परिणामों में सुधार होगा।
- माध्यमिक शिक्षा का अधिकार: 14-18 वर्ष की आयु को शामिल करने से किशोरों के बीच स्कूल छोड़ने की दर को कम करने में मदद मिलेगी और यह सुनिश्चित होगा कि वे उच्च शिक्षा या व्यावसायिक कौशल के लिए तैयार हों।
गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता (The Need to Focus on Quality)
भविष्य की लड़ाई केवल ‘स्कूल में अधिकार’ (Right to Schooling) के लिए नहीं है, बल्कि ‘शिक्षा का अधिकार’ (Right to Education) के लिए है। इसका अर्थ है कि हमारा ध्यान अब नामांकन के आंकड़ों से हटकर सीखने की गुणवत्ता पर होना चाहिए।
- शिक्षक प्रशिक्षण का पुनर्गठन: हमें शिक्षकों के लिए निरंतर व्यावसायिक विकास (continuous professional development) में निवेश करना होगा। उन्हें 21वीं सदी के कौशल, जैसे कि महत्वपूर्ण सोच, रचनात्मकता और डिजिटल साक्षरता सिखाने के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।
- पाठ्यक्रम और मूल्यांकन में सुधार: पाठ्यक्रम को अधिक प्रासंगिक, लचीला और अनुभवात्मक बनाना होगा। मूल्यांकन प्रणाली को रटने की क्षमता के बजाय छात्रों की समझ और कौशल का आकलन करना चाहिए।
- बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान: NEP 2020 द्वारा प्रस्तावित ‘निपुण भारत’ मिशन, जो यह सुनिश्चित करता है कि ग्रेड 3 तक प्रत्येक बच्चा बुनियादी पढ़ने-लिखने और गणित कौशल हासिल करे, इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
एक नागरिक के रूप में हमारी महत्वपूर्ण भूमिका (Our Important Role as Citizens)
शिक्षा का अधिकार को सफल बनाना केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। एक जागरूक और सक्रिय नागरिक समाज के बिना, यह कानून केवल एक दस्तावेज बनकर रह जाएगा।
- जागरूक बनें और जागरूकता फैलाएं: सबसे पहले, हमें खुद RTE के प्रावधानों के बारे में जानना चाहिए। हमें अपने आस-पास के लोगों, विशेष रूप से वंचित समुदायों को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करना चाहिए।
- स्कूल प्रबंधन समितियों (SMCs) में भाग लें: यदि आप एक माता-पिता हैं, तो अपने बच्चे के स्कूल की SMC बैठकों में सक्रिय रूप से भाग लें। स्कूल के विकास और कामकाज में अपनी राय दें और जवाबदेही की मांग करें।
- स्वयंसेवक बनें: आप अपने स्थानीय सरकारी स्कूल में बच्चों को पढ़ाने, उन्हें होमवर्क में मदद करने या स्कूल के पुस्तकालय को व्यवस्थित करने में मदद करके भी योगदान दे सकते हैं। आपका छोटा सा प्रयास भी किसी बच्चे के जीवन में बड़ा बदलाव ला सकता है।
- आवाज उठाएं: यदि आप देखते हैं कि किसी बच्चे को शिक्षा का अधिकार से वंचित किया जा रहा है या किसी स्कूल में RTE के मानदंडों का उल्लंघन हो रहा है, तो चुप न रहें। संबंधित अधिकारियों, जैसे कि ब्लॉक शिक्षा अधिकारी या बाल अधिकार संरक्षण आयोग से संपर्क करें।
8. निष्कर्ष (Conclusion)
तो, सवाल पर वापस आते हैं – “शिक्षा का अधिकार: हकीकत या फसाना?” इस विस्तृत विश्लेषण के बाद, यह स्पष्ट है कि इसका उत्तर सीधा ‘हाँ’ या ‘नहीं’ में नहीं दिया जा सकता। सच इन दोनों के बीच कहीं है। शिक्षा का अधिकार निश्चित रूप से एक फसाना नहीं है। यह एक शक्तिशाली कानूनी हकीकत है जिसने लाखों बच्चों के जीवन को बदला है, उन्हें स्कूलों की दहलीज तक पहुँचाया है और सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक छलांग लगाई है। इसने शिक्षा को चर्चा के केंद्र में ला दिया है और इसे एक गैर-परक्राम्य अधिकार (non-negotiable right) के रूप में स्थापित किया है।
हकीकत और फसाने के बीच का सफर (The Journey Between Reality and Myth)
दूसरी ओर, यह भी सच है कि यह अभी तक पूरी तरह से एक सार्वभौमिक हकीकत नहीं बन पाया है। गुणवत्ता की कमी, कार्यान्वयन में खामियां, सामाजिक बाधाएं और नौकरशाही की उदासीनता जैसी चुनौतियां इस खूबसूरत सपने और उसकी जमीनी हकीकत के बीच एक बड़ी खाई पैदा करती हैं। मीरा जैसी कई सफलता की कहानियों के बावजूद, आज भी लाखों बच्चे हैं जिनके लिए शिक्षा का अधिकार पहुंच से बाहर है। उनके लिए, यह कानून अभी भी एक दूर का सपना, एक फसाना ही है।
अंततः, शिक्षा का अधिकार एक मंजिल नहीं, बल्कि एक निरंतर चलने वाली यात्रा है। हमने एक लंबा सफर तय किया है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। यह कानून एक बीज की तरह है जिसे बो दिया गया है, लेकिन इसे एक फलदार पेड़ बनाने के लिए निरंतर पोषण, देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता है। यह पोषण सरकार की नीतियों, शिक्षकों के समर्पण, और सबसे महत्वपूर्ण, हम जैसे जागरूक नागरिकों की सक्रिय भागीदारी से ही मिलेगा। जब तक भारत का हर एक बच्चा, चाहे वह किसी भी कोने में हो, गुणवत्तापूर्ण और समावेशी शिक्षा प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक हमारा यह सफर जारी रहना चाहिए। शिक्षा का अधिकार को एक संपूर्ण हकीकत बनाना हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है, क्योंकि एक शिक्षित बच्चा ही एक शिक्षित और सशक्त भारत की नींव है।
9. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (Frequently Asked Questions – FAQs)
1. शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 क्या है? (What is the Right to Education (RTE) Act, 2009?)
उत्तर: यह भारतीय संसद द्वारा पारित एक कानून है जो भारत में 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में सुनिश्चित करता है। यह 1 अप्रैल, 2010 को लागू हुआ। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी बच्चा आर्थिक या सामाजिक बाधाओं के कारण प्रारंभिक शिक्षा से वंचित न रहे।
2. यह कानून किस आयु वर्ग के बच्चों पर लागू होता है? (Which age group of children does this law apply to?)
उत्तर: यह कानून 6 से 14 वर्ष की आयु के बीच के सभी बच्चों पर लागू होता है। इसका मतलब है कि कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा इस कानून के दायरे में आती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इस आयु वर्ग को बढ़ाकर 3 से 18 वर्ष करने की सिफारिश की गई है, लेकिन अभी तक कानून में यह संशोधन नहीं हुआ है।
3. क्या निजी स्कूल RTE के तहत मुफ्त शिक्षा देने के लिए बाध्य हैं? (Are private schools obligated to provide free education under RTE?)
उत्तर: हाँ, अल्पसंख्यक संस्थानों को छोड़कर सभी निजी स्कूलों को अपनी प्रवेश स्तर की कक्षा में 25% सीटें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) और वंचित समूहों के बच्चों के लिए आरक्षित रखना अनिवार्य है। इन बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाती है, और उनके खर्च की प्रतिपूर्ति सरकार द्वारा स्कूल को की जाती है। यह शिक्षा का अधिकार का एक महत्वपूर्ण प्रावधान है।
4. अगर किसी बच्चे को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया जाता है तो माता-पिता क्या कर सकते हैं? (What can parents do if a child is denied their right to education?)
उत्तर: यदि किसी बच्चे को दाखिले से मना किया जाता है या किसी अन्य तरीके से उसके शिक्षा का अधिकार का उल्लंघन होता है, तो माता-पिता या अभिभावक कई कदम उठा सकते हैं। वे स्थानीय प्राधिकरण (जैसे ब्लॉक शिक्षा अधिकारी) से शिकायत कर सकते हैं। वे स्कूल प्रबंधन समिति (SMC) के माध्यम से अपनी बात रख सकते हैं। यदि वहाँ समाधान नहीं होता है, तो वे राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग (SCPCR) या राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) में भी शिकायत दर्ज करा सकते हैं।
5. नई शिक्षा नीति (NEP 2020) का RTE पर क्या प्रभाव पड़ेगा? (What will be the impact of the New Education Policy (NEP 2020) on RTE?)
उत्तर: NEP 2020 का उद्देश्य शिक्षा का अधिकार को और मजबूत और व्यापक बनाना है। यह RTE के दायरे को 3-18 वर्ष तक बढ़ाने की सिफारिश करता है, जिससे प्रारंभिक बचपन की शिक्षा और माध्यमिक शिक्षा भी इसके अंतर्गत आ जाएगी। इसके अलावा, NEP गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, मूलभूत साक्षरता, और मूल्यांकन प्रणाली में सुधार पर जोर देती है, जो RTE की मौजूदा चुनौतियों को दूर करने में मदद कर सकती है।
| सामाजिक न्याय का आधार | अवधारणा | समानता (Equality), स्वतंत्रता (Liberty), बंधुत्व (Fraternity), न्याय (Justice) |
| भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय | प्रावधान | मौलिक अधिकार (Fundamental Rights), राज्य के नीति निदेशक तत्व (DPSP), संवैधानिक गारंटी, आरक्षण नीति |

