मध्यकालीन भारत – प्रारंभिक मध्यकाल परिचय (Introduction to Early Medieval India)
मध्यकालीन भारत – प्रारंभिक मध्यकाल परिचय (Introduction to Early Medieval India)

भारत का प्रारंभिक मध्यकाल (India’s Early Medieval Period)

विषय सूची (Table of Contents)

प्रारंभिक मध्यकाल: एक परिचय (Early Medieval Period: An Introduction)

कालखंड का निर्धारण (Defining the Time Period)

प्रिय छात्रों, भारतीय इतिहास को समझना एक रोमांचक यात्रा की तरह है! आज हम जिस युग की बात कर रहे हैं, वह है ‘प्रारंभिक मध्यकाल’। इतिहासकारों के अनुसार, यह काल लगभग 750 ईस्वी से 1200 ईस्वी तक माना जाता है। यह वह समय था जब हर्षवर्धन जैसे महान सम्राट का युग समाप्त हो चुका था और दिल्ली में तुर्की सुल्तानों का शासन अभी शुरू नहीं हुआ था। यह काल प्राचीन भारत की गौरवशाली परंपराओं और मध्यकालीन भारत की नई चुनौतियों के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी है। 🌉

इस युग की प्रमुख विशेषता (Key Characteristic of this Era)

इस दौर की सबसे बड़ी पहचान है ‘राजनीतिक विकेंद्रीकरण’ (political decentralization)। इसका मतलब है कि किसी एक शक्तिशाली राजा का पूरे भारत पर शासन नहीं था। बल्कि, देश कई छोटे और बड़े क्षेत्रीय राज्यों में बंटा हुआ था। कल्पना कीजिए, जैसे एक बड़ी कक्षा में कोई एक मॉनिटर न होकर, हर पंक्ति का अपना-अपना लीडर हो! उत्तर भारत में राजपूतों का बोलबाला था, तो पूर्व में पाल वंश और दक्षिण में राष्ट्रकूट और चोल वंश शक्तिशाली थे।

सामंतवाद का उदय (The Rise of Feudalism)

इसी दौर में भारत में सामंती व्यवस्था (feudal system) का विकास हुआ। राजा अपनी भूमि को बड़े-बड़े सरदारों या सामंतों में बाँट देते थे। ये सामंत राजा को ज़रूरत पड़ने पर सैनिक सहायता देते थे और अपने-अपने क्षेत्र में शासन चलाते थे। इस व्यवस्था ने राजा को शक्तिशाली तो बनाया, लेकिन साथ ही इसने केंद्रीय सत्ता को कमज़ोर भी किया क्योंकि सामंत अक्सर अपनी स्वतंत्रता के लिए प्रयास करते रहते थे। यह व्यवस्था यूरोप के मध्यकाल से काफी मिलती-जुलती थी।

क्षेत्रीयता की भावना का विकास (Development of Regionalism)

जब केंद्र में कोई एक बड़ी शक्ति नहीं होती, तो छोटे-छोटे क्षेत्र अपनी पहचान बनाने लगते हैं। प्रारंभिक मध्यकाल में भी ऐसा ही हुआ। इस समय में अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाओं, जैसे- हिंदी, बंगाली, मराठी, कन्नड़ के शुरुआती रूप विकसित हुए। हर क्षेत्र की अपनी अलग कला, संस्कृति और स्थापत्य शैली उभरकर सामने आई। इसी दौर में आज के भारत के कई राज्यों की सांस्कृतिक नींव रखी गई थी, जो इसे एक विविधतापूर्ण काल बनाता है। 🗺️

राजपूत राज्यों का उदय और विस्तार (Rise and Expansion of Rajput Kingdoms)

राजपूत कौन थे? (Who were the Rajputs?)

प्रारंभिक मध्यकाल का ज़िक्र राजपूतों के बिना अधूरा है। ‘राजपूत’ शब्द का अर्थ है- ‘राजा का पुत्र’। ये वीर और साहसी योद्धा वंश थे जिन्होंने उत्तर और मध्य भारत के बड़े हिस्से पर शासन किया। इनकी उत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों में अलग-अलग मत हैं। कुछ इन्हें प्राचीन क्षत्रिय वंशों से जोड़ते हैं, तो कुछ विदेशी आक्रमणकारियों (जैसे हूण और शक) के वंशज मानते हैं जो भारतीय समाज में घुल-मिल गए। 🛡️

अग्निकुल का सिद्धांत (The Agnikula Theory)

राजपूतों की उत्पत्ति का एक प्रसिद्ध सिद्धांत ‘अग्निकुल’ सिद्धांत है, जिसका वर्णन ‘पृथ्वीराज रासो’ नामक ग्रंथ में मिलता है। इसके अनुसार, जब धरती पर असुरों का अत्याचार बढ़ गया, तो ऋषि वशिष्ठ ने माउंट आबू पर एक यज्ञ किया। इस यज्ञ की अग्नि से चार महान योद्धा कुल उत्पन्न हुए- प्रतिहार, परमार, चौहान और चालुक्य (सोलंकी)। यह कहानी उनके दिव्य और वीर होने की धारणा को मज़बूत करती है।

प्रमुख राजपूत वंश (Major Rajput Dynasties)

इस काल में कई प्रमुख राजपूत वंशों ने शासन किया। इनमें गुर्जर-प्रतिहार वंश सबसे शक्तिशाली था, जिन्होंने अरब आक्रमणकारियों को लंबे समय तक रोके रखा। अजमेर और दिल्ली के चौहान, विशेषकर पृथ्वीराज चौहान, अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध हुए। मालवा के परमार, गुजरात के चालुक्य (सोलंकी), और बुंदेलखंड के चंदेल भी महत्वपूर्ण राजपूत शासक थे। इन सभी वंशों ने अपने-अपने क्षेत्रों में शक्तिशाली राज्यों की स्थापना की।

राजपूतों का शौर्य और आचार संहिता (Valor and Code of Conduct of the Rajputs)

राजपूत अपनी बहादुरी, वचनबद्धता और सम्मान की रक्षा के लिए जाने जाते थे। युद्धभूमि में वे पीठ दिखाने की बजाय वीरगति को प्राप्त करना बेहतर समझते थे। उनकी अपनी एक आचार संहिता थी, जिसे ‘राजपूत धर्म’ कहा जाता था। इसमें शरणागत की रक्षा करना, निहत्थों पर वार न करना और स्त्रियों का सम्मान करना शामिल था। जौहर और साका जैसी प्रथाएं भी इसी शौर्यपूर्ण परंपरा का हिस्सा थीं, जहाँ राजपूत स्त्रियाँ अपने सम्मान की रक्षा के लिए आत्मदाह कर लेती थीं और पुरुष अंतिम युद्ध के लिए निकल पड़ते थे। 🔥

राजपूत राज्यों का विस्तार (Expansion of Rajput Kingdoms)

राजपूतों ने धीरे-धीरे उत्तरी और मध्य भारत के एक बड़े भू-भाग पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। उन्होंने कन्नौज, दिल्ली, अजमेर, मालवा, गुजरात और राजस्थान जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर शासन किया। उन्होंने कई शानदार किलों, महलों और मंदिरों का निर्माण करवाया जो आज भी उनकी शक्ति और कलाप्रेम का प्रमाण हैं। हालांकि, उनकी सबसे बड़ी कमजोरी उनका आपसी संघर्ष था। वे एक-दूसरे से लगातार लड़ते रहते थे, जिससे उनकी शक्ति बिखर गई और बाद में विदेशी आक्रमणकारियों को भारत में प्रवेश करने का मौका मिला।

गुर्जर-प्रतिहार वंश (Gurjara-Pratihara Dynasty)

वंश की स्थापना और प्रारंभिक शासक (Establishment and Early Rulers)

गुर्जर-प्रतिहार वंश प्रारंभिक मध्यकाल के सबसे शक्तिशाली राजवंशों में से एक था। इस वंश की स्थापना 8वीं शताब्दी में नागभट्ट प्रथम ने की थी। उन्होंने अपनी राजधानी उज्जैन को बनाया और सिंध की ओर से होने वाले अरब आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना किया। नागभट्ट प्रथम ने भारत के पश्चिमी द्वार पर एक मजबूत दीवार की तरह काम किया और इस्लामी विस्तार को लंबे समय तक रोके रखा। उनकी यह सफलता भारतीय इतिहास (Indian history) में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी। 🛡️

मिहिर भोज: एक महान सम्राट (Mihira Bhoja: A Great Emperor)

इस वंश का सबसे प्रतापी शासक मिहिर भोज (लगभग 836-885 ईस्वी) था। उन्होंने लगभग 50 वर्षों तक शासन किया और प्रतिहार साम्राज्य को उसकी पराकाष्ठा पर पहुँचाया। उन्होंने अपनी राजधानी कन्नौज को बनाया, जो उस समय उत्तर भारत का राजनीतिक केंद्र था। मिहिर भोज ने पाल वंश और राष्ट्रकूट वंश को हराकर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में सिंध तक और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक फैला हुआ था।

प्रशासन और सैन्य शक्ति (Administration and Military Strength)

गुर्जर-प्रतिहारों की प्रशासनिक व्यवस्था सुसंगठित थी। साम्राज्य को भुक्तियों (प्रांतों) और मंडलों (जिलों) में विभाजित किया गया था। उनके पास एक विशाल और शक्तिशाली सेना थी, जिसमें घुड़सवार सेना का विशेष महत्व था। अरब यात्री सुलेमान ने मिहिर भोज की सेना की बहुत प्रशंसा की है और उसे भारत के सबसे शक्तिशाली शासकों में से एक बताया है। उनकी मजबूत सेना ही उनके विशाल साम्राज्य की स्थिरता का मुख्य कारण थी।

कला और स्थापत्य में योगदान (Contribution to Art and Architecture)

गुर्जर-प्रतिहार शासक कला और स्थापत्य के महान संरक्षक थे। उन्होंने कई भव्य मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण करवाया। ग्वालियर, ओसियां और कन्नौज में उनके द्वारा बनवाए गए मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं। उनकी वास्तुकला की शैली नागर शैली की उप-शैली मानी जाती है, जिसमें ऊँचे शिखर और सुंदर नक्काशी की विशेषता होती है। इस काल में मूर्तिकला का भी अद्भुत विकास हुआ, विशेषकर विष्णु और शिव की मूर्तियाँ बहुत सुंदर बनाई गईं। 🏛️

साम्राज्य का पतन (Decline of the Empire)

मिहिर भोज के उत्तराधिकारी महेंद्रपाल और महिपाल के समय तक तो साम्राज्य मजबूत बना रहा, लेकिन बाद के शासक कमजोर साबित हुए। राष्ट्रकूट शासक इंद्र तृतीय के कन्नौज पर आक्रमण ने प्रतिहार शक्ति को गहरा धक्का पहुँचाया। इसके अलावा, उनके अधीन सामंतों ने भी विद्रोह करना शुरू कर दिया और स्वतंत्र राज्यों की स्थापना कर ली। अंततः, 11वीं शताब्दी की शुरुआत में महमूद गजनवी के आक्रमणों ने इस महान साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी।

पाल वंश (Pala Dynasty)

एक अनोखी शुरुआत (A Unique Beginning)

पाल वंश का उदय पूर्वी भारत (बंगाल और बिहार) में 8वीं शताब्दी के मध्य में हुआ। इस वंश की शुरुआत बहुत ही लोकतांत्रिक तरीके से हुई थी। उस समय बंगाल में ‘मत्स्यन्याय’ की स्थिति थी, यानी ‘बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है’। अराजकता से तंग आकर लोगों ने गोपाल नामक एक योग्य सरदार को अपना राजा चुना। इस प्रकार, गोपाल ने पाल वंश की नींव रखी और क्षेत्र में शांति और व्यवस्था स्थापित की। 🐘

धर्मपाल और देवपाल: साम्राज्य का स्वर्ण युग (Dharmapala and Devapala: The Golden Age of the Empire)

गोपाल के पुत्र धर्मपाल और उसके बाद देवपाल इस वंश के सबसे शक्तिशाली शासक हुए। धर्मपाल ने कन्नौज के लिए होने वाले त्रिपक्षीय संघर्ष (Tripartite Struggle) में सक्रिय रूप से भाग लिया और कुछ समय के लिए कन्नौज पर अधिकार भी कर लिया। देवपाल ने साम्राज्य का और विस्तार किया और असम, उड़ीसा और नेपाल के कुछ हिस्सों पर भी अपना प्रभाव स्थापित किया। इन दोनों के शासनकाल को पाल वंश का स्वर्ण युग कहा जाता है, जिसमें साम्राज्य ने राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों क्षेत्रों में ऊँचाइयों को छुआ।

बौद्ध धर्म के महान संरक्षक (Great Patrons of Buddhism)

पाल शासक बौद्ध धर्म के महायान और तांत्रिक संप्रदायों के महान संरक्षक थे। जब भारत के अन्य हिस्सों में बौद्ध धर्म का पतन हो रहा था, तब पालों ने इसे पूर्वी भारत में जीवित रखा। धर्मपाल ने प्रसिद्ध विक्रमशिला विश्वविद्यालय (Vikramshila University) की स्थापना की, जो नालंदा के बाद बौद्ध शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र बना। उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय का भी जीर्णोद्धार करवाया। उनके संरक्षण में बौद्ध धर्म तिब्बत और दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैला। 🧘‍♂️

पाल कला और संस्कृति (Pala Art and Culture)

पालों के शासनकाल में एक विशिष्ट कला शैली का विकास हुआ, जिसे ‘पाल शैली’ के नाम से जाना जाता है। यह शैली मुख्य रूप से कांस्य मूर्तियों और पांडुलिपि चित्रों (manuscript paintings) में दिखाई देती है। पाल कलाकारों ने बुद्ध, बोधिसत्वों और हिंदू देवी-देवताओं की बहुत ही सुंदर और अलंकृत मूर्तियाँ बनाईं। ताड़ के पत्तों पर बनी पांडुलिपियों में लघु चित्र बनाने की कला भी इसी समय विकसित हुई, जो बाद में भारतीय चित्रकला के विकास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुई। 🎨

पाल वंश का पतन (Decline of the Pala Dynasty)

देवपाल के बाद पाल साम्राज्य धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगा। कमजोर उत्तराधिकारियों, आंतरिक विद्रोहों और बाहरी आक्रमणों ने साम्राज्य की नींव को हिला दिया। 12वीं शताब्दी में, दक्षिण भारत से आए सेन वंश ने बंगाल में पाल सत्ता को समाप्त कर दिया और अपना शासन स्थापित किया। इस प्रकार, लगभग 400 वर्षों तक पूर्वी भारत पर शासन करने वाले एक महान वंश का अंत हो गया, लेकिन उनकी सांस्कृतिक विरासत आज भी जीवित है।

राष्ट्रकूट वंश (Rashtrakuta Dynasty)

दक्कन के स्वामी (Masters of the Deccan)

राष्ट्रकूट वंश ने 8वीं से 10वीं शताब्दी तक दक्कन (आधुनिक महाराष्ट्र और कर्नाटक) के एक बड़े हिस्से पर शासन किया। वे मूल रूप से बादामी के चालुक्यों के सामंत थे। इस वंश की स्थापना दंतिदुर्ग ने की थी, जिसने अपने चालुक्य स्वामी को हराकर एक स्वतंत्र राज्य की नींव रखी। राष्ट्रकूटों ने अपनी राजधानी मान्यखेत (आधुनिक मालखेड) को बनाया और जल्द ही दक्षिण भारत की एक प्रमुख शक्ति बन गए। ⛰️

प्रमुख शासक और उनकी उपलब्धियाँ (Major Rulers and their Achievements)

दंतिदुर्ग के बाद कृष्ण प्रथम, ध्रुव, गोविंद तृतीय, अमोघवर्ष और इंद्र तृतीय जैसे कई शक्तिशाली शासक हुए। कृष्ण प्रथम ने एलोरा में विश्व प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण करवाया, जो एक ही चट्टान को काटकर बनाया गया है। ध्रुव और गोविंद तृतीय ने उत्तर भारत की राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लिया और कन्नौज के लिए होने वाले त्रिपक्षीय संघर्ष में प्रतिहारों और पालों को कई बार पराजित किया। उन्होंने राष्ट्रकूटों की शक्ति को गंगा-यमुना के मैदानों तक पहुँचा दिया।

अमोघवर्ष: एक शांतिप्रिय और विद्वान शासक (Amoghavarsha: A Peace-loving and Scholarly Ruler)

अमोघवर्ष प्रथम इस वंश के सबसे लंबे समय तक (लगभग 64 वर्ष) शासन करने वाले राजा थे। वे अपनी सैन्य विजयों के लिए उतने प्रसिद्ध नहीं हैं, जितने अपनी शांतिप्रिय नीतियों, धार्मिक सहिष्णुता और साहित्य प्रेम के लिए। वे स्वयं एक विद्वान थे और उन्होंने कन्नड़ भाषा में ‘कविराजमार्ग’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की। उनके शासनकाल में जैन धर्म को विशेष संरक्षण मिला। उन्होंने अपनी राजधानी मान्यखेत का भी भव्य निर्माण करवाया।

एलोरा का कैलाश मंदिर: स्थापत्य का आश्चर्य (Kailasa Temple of Ellora: An Architectural Wonder)

राष्ट्रकूटों का कला और स्थापत्य में सबसे बड़ा योगदान एलोरा का कैलाश मंदिर (Kailasa Temple) है। यह मंदिर किसी ईंट या पत्थर से नहीं बनाया गया, बल्कि एक विशाल पहाड़ को ऊपर से नीचे की ओर तराश कर बनाया गया है। यह दुनिया में अपनी तरह का सबसे बड़ा एकाश्म (monolithic) स्थापत्य है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और इसकी दीवारों पर हिंदू पौराणिक कथाओं के दृश्य बहुत ही खूबसूरती से उकेरे गए हैं। यह भारतीय शिल्पकारों के कौशल और धैर्य का एक अद्भुत प्रमाण है। ✨

राष्ट्रकूटों का पतन (Decline of the Rashtrakutas)

10वीं शताब्दी के अंत में, राष्ट्रकूट साम्राज्य आंतरिक कलह और कमजोर शासकों के कारण कमजोर हो गया। उनके सामंतों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित करनी शुरू कर दी। अंततः, 973 ईस्वी में, उनके एक सामंत तैलप द्वितीय ने अंतिम राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय को पराजित कर कल्याणी के चालुक्य वंश की नींव रखी। इस प्रकार, दक्कन पर लगभग 200 वर्षों तक शासन करने वाले एक शक्तिशाली राजवंश का अंत हो गया।

चालुक्य वंश (कल्याणी के) (Chalukya Dynasty of Kalyani)

पश्चिमी चालुक्यों का उदय (Rise of the Western Chalukyas)

कल्याणी के चालुक्य, जिन्हें पश्चिमी चालुक्य भी कहा जाता है, राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी थे। जैसा कि हमने पढ़ा, इस वंश की स्थापना 973 ईस्वी में तैलप द्वितीय ने की थी। उन्होंने राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेत पर अधिकार कर लिया, लेकिन बाद में अपनी राजधानी कल्याणी (आधुनिक बसावकल्याण, कर्नाटक) में स्थानांतरित कर दी। उन्होंने दक्कन में अपनी शक्ति को फिर से स्थापित किया और लगभग 200 वर्षों तक शासन किया। 🏛️

चोलों के साथ निरंतर संघर्ष (Constant Conflict with the Cholas)

कल्याणी के चालुक्यों का इतिहास दक्षिण के एक और महान वंश, चोलों के साथ लंबे और विनाशकारी संघर्षों से भरा है। दोनों राजवंश वेंगी (आधुनिक आंध्र प्रदेश का तटीय क्षेत्र) पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। चोल शासकों राजराजा प्रथम और राजेंद्र प्रथम ने कई बार चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया और उनकी राजधानी कल्याणी को भी लूटा। यह संघर्ष दोनों शक्तियों के लिए बहुत हानिकारक साबित हुआ।

विक्रमादित्य षष्ठम: एक महान शासक (Vikramaditya VI: A Great Ruler)

इस वंश का सबसे महान शासक विक्रमादित्य षष्ठम (1076-1126 ईस्वी) था। उन्होंने एक लंबे समय तक शासन किया और चालुक्य साम्राज्य को स्थिरता और समृद्धि प्रदान की। उन्होंने चोलों को सफलतापूर्वक रोका और अपने राज्य का विस्तार किया। वे कला और साहित्य के भी महान संरक्षक थे। उन्होंने ‘चालुक्य-विक्रम संवत’ नामक एक नए कैलेंडर की शुरुआत की। उनके दरबार में प्रसिद्ध कश्मीरी कवि बिल्हण और प्रसिद्ध विधिवेत्ता विज्ञानेश्वर रहते थे।

वेसर स्थापत्य शैली का विकास (Development of Vesara Architectural Style)

चालुक्यों ने स्थापत्य की एक नई शैली को जन्म दिया, जिसे ‘वेसर शैली’ या ‘चालुक्य शैली’ के नाम से जाना जाता है। यह शैली उत्तर भारत की नागर शैली और दक्षिण भारत की द्रविड़ शैली का एक सुंदर मिश्रण थी। इस शैली के मंदिरों की विशेषता विमान (टॉवर) की सीढ़ीदार संरचना और जटिल नक्काशी वाले स्तंभ हैं। लक्कुंडी, गदग और इत्तगी में उनके द्वारा बनवाए गए मंदिर इस शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

वंश का पतन और विघटन (Decline and Disintegration of the Dynasty)

विक्रमादित्य षष्ठम के बाद, चालुक्य साम्राज्य कमजोर पड़ने लगा। उनके सामंत, जैसे देवगिरि के यादव, वारंगल के काकतीय और द्वारसमुद्र के होयसल, शक्तिशाली होने लगे और उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। 12वीं शताब्दी के अंत तक, चालुक्य साम्राज्य पूरी तरह से विघटित हो गया और उसका स्थान इन्हीं नए राजवंशों ने ले लिया। इस प्रकार, दक्कन की राजनीति में एक और महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया।

चोल वंश (Chola Dynasty)

चोल शक्ति का पुनरुत्थान (Resurgence of Chola Power)

चोलों का इतिहास बहुत प्राचीन है, लेकिन प्रारंभिक मध्यकाल में उनकी शक्ति का पुनरुत्थान हुआ। 9वीं शताब्दी के मध्य में, विजयालय ने पल्लवों के सामंत के रूप में तंजौर पर अधिकार कर लिया और ‘शाही चोल वंश’ की नींव रखी। उनके उत्तराधिकारियों ने धीरे-धीरे पल्लव और पांड्य शक्तियों को समाप्त कर दिया और पूरे तमिल प्रदेश पर अपना एकछत्र राज्य स्थापित कर लिया। 🚢

राजराजा प्रथम और राजेंद्र प्रथम: महान चोल सम्राट (Rajaraja I and Rajendra I: The Great Chola Emperors)

चोल साम्राज्य अपने चरम पर राजराजा प्रथम (985-1014 ईस्वी) और उनके पुत्र राजेंद्र प्रथम (1014-1044 ईस्वी) के शासनकाल में पहुँचा। राजराजा प्रथम ने एक विशाल और शक्तिशाली स्थायी सेना और नौसेना का गठन किया। उन्होंने दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों, श्रीलंका और मालदीव को भी जीत लिया। राजेंद्र प्रथम ने अपने पिता की विजयों को और आगे बढ़ाया। उन्होंने गंगा नदी तक एक सफल सैन्य अभियान किया और ‘गंगईकोंड चोल’ (गंगा का विजेता) की उपाधि धारण की।

शक्तिशाली नौसेना और समुद्री व्यापार (Powerful Navy and Maritime Trade)

चोलों की सबसे बड़ी उपलब्धि उनकी शक्तिशाली नौसेना (powerful navy) थी। उस समय हिंद महासागर में उनका कोई सानी नहीं था। अपनी नौसेना के बल पर, उन्होंने बंगाल की खाड़ी को ‘चोल झील’ में बदल दिया था। उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के श्रीविजय साम्राज्य (आधुनिक इंडोनेशिया) पर भी सफल नौसैनिक अभियान किया ताकि भारतीय व्यापारियों के लिए समुद्री रास्ते सुरक्षित रह सकें। इस समुद्री प्रभुत्व ने उन्हें चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार में बहुत समृद्ध बनाया।

स्थानीय स्व-शासन: ग्राम सभाएँ (Local Self-Government: Village Assemblies)

चोल प्रशासन की एक अनूठी विशेषता उनकी स्थानीय स्व-शासन की व्यवस्था थी। गाँवों का प्रशासन ‘उर’ और ‘सभा’ (या ‘महासभा’) जैसी ग्राम सभाओं द्वारा चलाया जाता था। इन सभाओं के सदस्य चुनाव या लॉटरी (कुडवोलाई प्रणाली) द्वारा चुने जाते थे। ये सभाएँ कर वसूलने, न्याय करने, मंदिरों और सिंचाई कार्यों की देखरेख करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य करती थीं। यह प्राचीन भारत में लोकतंत्र का एक अद्भुत उदाहरण है। 🗳️

द्रविड़ स्थापत्य का शिखर: बृहदीश्वर मंदिर (Pinnacle of Dravidian Architecture: Brihadisvara Temple)

चोल शासक महान निर्माता थे। उन्होंने द्रविड़ स्थापत्य शैली को उसकी पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। राजराजा प्रथम द्वारा तंजौर में बनवाया गया बृहदीश्वर मंदिर (Brihadisvara Temple) इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और इसका विशाल विमान (टॉवर) लगभग 66 मीटर ऊँचा है। राजेंद्र प्रथम ने अपनी नई राजधानी गंगईकोंडचोलपुरम में भी इसी तरह का एक भव्य मंदिर बनवाया। इन मंदिरों की दीवारों पर सुंदर मूर्तियाँ और भित्तिचित्र बने हुए हैं।

अन्य दक्षिण भारतीय राजवंश (Other South Indian Dynasties)

पांड्य वंश (Pandya Dynasty)

पांड्य वंश दक्षिण भारत के सबसे प्राचीन राजवंशों में से एक था, जिसका केंद्र मदुरै था। प्रारंभिक मध्यकाल में वे चोलों और पल्लवों के अधीन रहे, लेकिन 13वीं शताब्दी में चोलों के पतन के बाद उन्होंने फिर से अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। मारवर्मन सुंदर पांड्य और जटावर्मन सुंदर पांड्य जैसे शासकों ने पांड्य राज्य को एक बार फिर से शक्तिशाली बनाया। वे अपने समुद्री व्यापार, विशेषकर मोतियों के व्यापार के लिए प्रसिद्ध थे। 💎

चेर वंश (Chera Dynasty)

चेर वंश ने आधुनिक केरल और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों पर शासन किया। उनका इतिहास भी बहुत पुराना है। प्रारंभिक मध्यकाल में, उन्हें कुलशेखर वंश के नाम से जाना जाता था, जिन्होंने महोदयपुरम (आधुनिक कोडुन्गल्लुर) से शासन किया। वे अरबों और चीनियों के साथ मसालों के व्यापार के लिए प्रसिद्ध थे। चेर शासकों ने मलयालम भाषा और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

होयसल वंश (Hoysala Dynasty)

होयसल वंश ने 11वीं से 14वीं शताब्दी तक आधुनिक कर्नाटक पर शासन किया। वे प्रारंभ में कल्याणी के चालुक्यों के सामंत थे, लेकिन विष्णुवर्धन जैसे शासकों के नेतृत्व में स्वतंत्र हो गए। उनकी राजधानी पहले बेलूर और बाद में हलेबिडु (द्वारसमुद्र) थी। होयसल शासक अपनी अनूठी स्थापत्य शैली के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। उनके मंदिरों की विशेषता तारे के आकार का मंच और साबुन के पत्थर (soapstone) पर की गई अत्यंत बारीक और जटिल नक्काशी है। ✨

काकतीय वंश (Kakatiya Dynasty)

काकतीय वंश ने 12वीं से 14वीं शताब्दी तक आधुनिक आंध्र प्रदेश और तेलंगाना क्षेत्र पर शासन किया। उनकी राजधानी वारंगल थी। वे भी पहले कल्याणी के चालुक्यों के सामंत थे। गणपतिदेव और रुद्रमादेवी (जो भारत की कुछ महिला शासकों में से एक थीं) इस वंश के प्रमुख शासक थे। उन्होंने सिंचाई के लिए कई बड़े तालाबों और नहरों का निर्माण करवाया। विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा गोलकुंडा की खानों से निकला था, जो काकतीय राज्य का हिस्सा थीं।

देवगिरि के यादव (Yadavas of Devagiri)

यादव वंश ने 12वीं शताब्दी के अंत से 14वीं शताब्दी की शुरुआत तक महाराष्ट्र क्षेत्र पर शासन किया। उनकी राजधानी देवगिरि (आधुनिक दौलताबाद) थी। वे भी चालुक्यों के सामंत थे, लेकिन भिल्लम पंचम के नेतृत्व में स्वतंत्र हो गए। इस वंश के शासकों ने मराठी भाषा और साहित्य को बहुत संरक्षण दिया। प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर इसी काल में हुए थे। 14वीं शताब्दी की शुरुआत में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमणों ने इस राज्य का अंत कर दिया।

राजनीतिक स्थिति एवं आपसी संघर्ष (Political Situation and Mutual Conflicts)

राजनीतिक विखंडन का युग (An Era of Political Fragmentation)

जैसा कि हमने पहले चर्चा की, प्रारंभिक मध्यकाल की राजनीतिक स्थिति (political situation) की सबसे बड़ी विशेषता विखंडन थी। हर्षवर्धन के बाद उत्तर भारत में कोई भी ऐसी केंद्रीय शक्ति नहीं बची जो पूरे क्षेत्र को एक सूत्र में बाँध सके। इसका परिणाम यह हुआ कि हर क्षेत्र में स्थानीय शासकों ने अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। यह एक ऐसी स्थिति थी जहाँ देश कई छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था, जो लगातार एक-दूसरे पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए लड़ते रहते थे। 🤺

कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष (The Tripartite Struggle for Kannauj)

इस काल का सबसे प्रसिद्ध और लंबा संघर्ष कन्नौज पर अधिकार को लेकर हुआ। कन्नौज उस समय उत्तर भारत की राजनीतिक और आर्थिक राजधानी मानी जाती थी, जैसे आज दिल्ली है। इस पर नियंत्रण का मतलब था पूरे उत्तर भारत पर प्रभुत्व। इसलिए, 8वीं से 10वीं शताब्दी तक तीन महाशक्तियों – पश्चिम से गुर्जर-प्रतिहार, पूर्व से पाल और दक्षिण से राष्ट्रकूट – के बीच कन्नौज को लेकर लगभग 200 वर्षों तक संघर्ष चलता रहा।

संघर्ष के परिणाम (Consequences of the Struggle)

इस त्रिपक्षीय संघर्ष (Tripartite Struggle) में किसी भी पक्ष को स्थायी सफलता नहीं मिली। कभी पालों का पलड़ा भारी रहता, तो कभी प्रतिहारों का, और कभी राष्ट्रकूट दक्षिण से आकर दोनों को हराकर चले जाते। इस लंबे संघर्ष ने तीनों राजवंशों की शक्ति को बहुत कमजोर कर दिया। उनकी सैन्य और आर्थिक संसाधन समाप्त हो गए, जिससे वे आंतरिक और बाहरी खतरों का सामना करने में असमर्थ हो गए। अंततः, इस संघर्ष का सबसे बड़ा फायदा गुर्जर-प्रतिहारों को मिला जो लंबे समय तक कन्नौज पर नियंत्रण रखने में सफल रहे, लेकिन वे भी बहुत कमजोर हो चुके थे।

राजपूतों का आपसी युद्ध (Internal Wars of the Rajputs)

उत्तर भारत में राजपूत वंश भी लगातार एक-दूसरे से लड़ते रहते थे। चौहान, परमार, चंदेल, गहड़वाल – ये सभी वंश अपनी सीमाओं के विस्तार और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए युद्ध करते थे। उदाहरण के लिए, पृथ्वीराज चौहान और जयचंद गहड़वाल के बीच की शत्रुता सर्वविदित है। इस आपसी फूट और निरंतर युद्धों ने उनकी शक्ति को इतना बिखेर दिया कि जब मोहम्मद गोरी जैसे विदेशी आक्रमणकारी आए, तो वे एकजुट होकर उनका सामना नहीं कर सके।

दक्षिण में संघर्ष (Conflicts in the South)

ऐसी ही स्थिति दक्षिण भारत में भी थी। चोल, कल्याणी के चालुक्य और पांड्य लगातार एक-दूसरे से लड़ते रहते थे। चोलों और चालुक्यों के बीच वेंगी का क्षेत्र हमेशा विवाद का कारण बना रहा। इन युद्धों के कारण अपार धन और जन की हानि होती थी। हालांकि ये राज्य सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध थे, लेकिन उनकी राजनीतिक अस्थिरता ने उन्हें कमजोर बना दिया, जिसका लाभ बाद में दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने उठाया।

प्रशासनिक व्यवस्था (Administrative System)

राजा और उसकी शक्तियाँ (The King and His Powers)

प्रारंभिक मध्यकाल में प्रशासनिक व्यवस्था (administrative system) का केंद्र बिंदु राजा होता था। राजा को ही राज्य का सर्वोच्च अधिकारी माना जाता था और सारी शक्तियाँ उसी में निहित होती थीं। वह मुख्य सेनापति, मुख्य न्यायाधीश और मुख्य प्रशासक होता था। राजा अक्सर ‘महाराजाधिराज’, ‘परमभट्टारक’, ‘परमेश्वर’ जैसी बड़ी-बड़ी उपाधियाँ धारण करते थे ताकि अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा को दर्शा सकें। हालांकि, उनकी शक्ति पर मंत्रियों और सामंतों का कुछ हद तक अंकुश रहता था। 👑

सामंती ढाँचा (The Feudal Structure)

इस काल की प्रशासनिक व्यवस्था का आधार सामंतवाद (feudalism) था। राजा अपने साम्राज्य को सीधे नियंत्रित नहीं करता था, बल्कि वह अपनी भूमि बड़े-बड़े सामंतों, सरदारों और ब्राह्मणों को अनुदान (land grants) के रूप में दे देता था। इन सामंतों को अपने क्षेत्र में कर वसूलने और कानून-व्यवस्था बनाए रखने का अधिकार होता था। इसके बदले में, वे राजा को एक निश्चित धनराशि और युद्ध के समय सैनिक सहायता प्रदान करते थे। यह व्यवस्था विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देती थी।

केंद्रीय और प्रांतीय प्रशासन (Central and Provincial Administration)

राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी, जिसमें विभिन्न विभागों के मंत्री जैसे- महामंत्री, सेनापति, पुरोहित आदि शामिल होते थे। साम्राज्य को कई प्रांतों में विभाजित किया गया था, जिन्हें ‘भुक्ति’ या ‘मंडल’ कहा जाता था। प्रांतों के प्रमुख को ‘उपरिक’ या ‘राज्यपाल’ कहा जाता था, जिनकी नियुक्ति सीधे राजा द्वारा की जाती थी। प्रांतों को आगे जिलों (‘विषय’) और गाँवों (‘ग्राम’) में विभाजित किया गया था।

ग्राम प्रशासन (Village Administration)

गाँव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। गाँव का प्रशासन ग्राम प्रधान या ‘ग्रामिक’ द्वारा चलाया जाता था, जिसकी सहायता के लिए एक ग्राम सभा होती थी। यह सभा गाँव के स्थानीय मामलों, जैसे- भूमि विवाद, सिंचाई की व्यवस्था और छोटे-मोटे झगड़ों का निपटारा करती थी। जैसा कि हमने पढ़ा, चोल साम्राज्य में यह ग्राम सभा (ग्राम स्व-शासन) की व्यवस्था बहुत ही विकसित और संगठित थी, जो इस काल की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।

राजस्व और न्याय प्रणाली (Revenue and Judicial System)

राज्य की आय का मुख्य स्रोत भू-राजस्व (land revenue) था, जिसे ‘भाग’ कहा जाता था। यह आमतौर पर उपज का छठा हिस्सा होता था। इसके अलावा, व्यापार, खानों, वनों और चुंगी से भी कर वसूला जाता था। न्याय का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था, लेकिन स्थानीय स्तर पर सामंत और ग्राम सभाएँ भी न्याय करती थीं। न्याय व्यवस्था काफी हद तक पारंपरिक कानूनों और धर्मग्रंथों पर आधारित थी। ⚖️

सामाजिक जीवन (Social Life)

जाति व्यवस्था की जटिलता (Complexity of the Caste System)

प्रारंभिक मध्यकाल में सामाजिक जीवन (social life) का आधार वर्ण-व्यवस्था ही थी, लेकिन यह पहले से कहीं अधिक जटिल और कठोर हो गई थी। ब्राह्मणों का समाज में सर्वोच्च स्थान था और उन्हें शिक्षा और धार्मिक अनुष्ठानों का अधिकार प्राप्त था। क्षत्रियों का काम शासन और युद्ध करना था, जिनमें राजपूत प्रमुख थे। वैश्य व्यापार और कृषि करते थे, जबकि शूद्रों का काम अन्य तीन वर्णों की सेवा करना था। 👨‍👩‍👧‍👦

नई जातियों और उप-जातियों का उदय (Emergence of New Castes and Sub-castes)

इस काल की एक महत्वपूर्ण सामाजिक विशेषता बड़ी संख्या में नई जातियों और उप-जातियों का उदय था। इसका एक कारण यह था कि कई जनजातीय समूहों को हिंदू समाज में शामिल कर लिया गया और उन्हें एक नई जाति का दर्जा दिया गया। इसके अलावा, विभिन्न व्यवसायों और शिल्पों के आधार पर भी नई-नई जातियाँ बनने लगीं। उदाहरण के लिए, कायस्थ (लिपिक या लेखक) एक नई और प्रभावशाली जाति के रूप में उभरे।

स्त्रियों की स्थिति में गिरावट (Decline in the Status of Women)

सामान्य तौर पर, इस काल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई। बाल विवाह का प्रचलन बढ़ गया और लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया जाता था। पति की मृत्यु के बाद विधवा पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी, और सती प्रथा (Sati practice) जैसी कुरीतियों को बढ़ावा मिला, खासकर उच्च वर्गों और राजपूतों में। हालांकि, कुछ रानियों और प्रशासिकाओं, जैसे- कश्मीर की रानी दिद्दा और काकतीय वंश की रुद्रमादेवी, के उदाहरण भी मिलते हैं, लेकिन वे अपवाद थे।

खान-पान और वेश-भूषा (Food and Clothing)

लोगों का भोजन और पहनावा उनके क्षेत्र और सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता था। चावल, गेहूँ, जौ, दालें और सब्जियाँ आम लोगों के भोजन का मुख्य हिस्सा थीं। उच्च वर्ग के लोग अधिक विविध और शानदार भोजन करते थे। सूती वस्त्र सबसे आम थे, लेकिन अमीर लोग रेशमी और ऊनी वस्त्र भी पहनते थे। पुरुष धोती और उत्तरीय (एक प्रकार का दुपट्टा) पहनते थे, जबकि महिलाएँ साड़ी और चोली पहनती थीं। आभूषणों का शौक पुरुषों और महिलाओं दोनों को था।

मनोरंजन और रीति-रिवाज (Entertainment and Customs)

मनोरंजन के लिए लोग संगीत, नृत्य, चौपड़, शतरंज और जानवरों की लड़ाई जैसे खेल पसंद करते थे। त्योहार और मेले सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे, जो लोगों को एक साथ आने और खुशियाँ मनाने का अवसर देते थे। समाज में विभिन्न प्रकार के संस्कार, जैसे- जन्म, विवाह और मृत्यु संस्कार, बहुत महत्वपूर्ण माने जाते थे और उन्हें पूरे रीति-रिवाज के साथ निभाया जाता था। यह काल रीति-रिवाजों और परंपराओं से भरा हुआ था। 🎉

आर्थिक जीवन (Economic Life)

कृषि आधारित अर्थव्यवस्था (Agriculture-based Economy)

प्रारंभिक मध्यकाल में भी भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian economy) का मुख्य आधार कृषि ही थी। अधिकांश जनसंख्या गाँवों में रहती थी और खेती करके अपना जीवनयापन करती थी। चावल, गेहूँ, जौ, बाजरा, दालें और गन्ना प्रमुख फसलें थीं। शासक सिंचाई व्यवस्था पर विशेष ध्यान देते थे और तालाबों, कुओं और नहरों का निर्माण करवाते थे। भूमि का स्वामित्व मुख्य रूप से राजा का होता था, लेकिन वह इसे सामंतों और किसानों को उपयोग के लिए देता था, जिनसे वह कर वसूलता था। 🌾

व्यापार और वाणिज्य की स्थिति (State of Trade and Commerce)

इस काल की शुरुआत में, रोमन साम्राज्य के पतन के कारण भारत के विदेशी व्यापार में कुछ गिरावट आई थी। इसके अलावा, देश के भीतर भी कई राज्यों के होने और सामंती व्यवस्था के कारण व्यापारिक गतिविधियाँ थोड़ी बाधित हुईं। लेकिन 10वीं शताब्दी के बाद, आंतरिक और विदेशी दोनों तरह के व्यापार में फिर से तेजी आई। दक्षिण भारत के चोल और पांड्य राज्यों ने समुद्री व्यापार को बहुत बढ़ावा दिया।

प्रमुख व्यापारिक मार्ग और वस्तुएँ (Major Trade Routes and Commodities)

भारत के व्यापारी अरब, फारस, चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका के साथ व्यापार करते थे। समुद्री व्यापार मुख्य रूप से पश्चिमी तट पर गुजरात और केरल के बंदरगाहों और पूर्वी तट पर तमिलनाडु और बंगाल के बंदरगाहों से होता था। भारत से निर्यात की जाने वाली मुख्य वस्तुएँ थीं- मसाले, सूती कपड़े, रेशम, कीमती पत्थर, हाथीदांत और चंदन की लकड़ी। बदले में, भारत घोड़े (विशेषकर अरब से), सोना, चांदी और शराब का आयात करता था। 💰

श्रेणियाँ और गिल्ड (Shrenis and Guilds)

व्यापारियों और शिल्पकारों ने अपने हितों की रक्षा के लिए अपनी-अपनी श्रेणियाँ या गिल्ड (guilds) बना रखी थीं। ये श्रेणियाँ बहुत शक्तिशाली होती थीं और अपने सदस्यों के लिए नियम बनाती थीं, कीमतों का निर्धारण करती थीं और उत्पादन की गुणवत्ता को नियंत्रित करती थीं। कुछ श्रेणियाँ इतनी धनी और प्रभावशाली थीं कि वे बैंकों की तरह भी काम करती थीं और मंदिरों को दान देती थीं। दक्षिण भारत में मनिग्रामम और नानादेसी जैसी प्रसिद्ध व्यापारी श्रेणियाँ थीं।

सिक्का प्रणाली (Coinage System)

प्रारंभिक मध्यकाल की शुरुआत में सिक्कों की गुणवत्ता और संख्या में कुछ कमी देखी गई, जिसे कुछ इतिहासकार शहरी केंद्रों के पतन का संकेत मानते हैं। हालांकि, बाद के समय में, विशेषकर चोलों, गुर्जर-प्रतिहारों और गहड़वालों जैसे राजवंशों ने सोने, चांदी और तांबे के सुंदर सिक्के जारी किए। इन सिक्कों पर अक्सर शासक की आकृति और उपाधियाँ अंकित होती थीं, जो उस समय की आर्थिक समृद्धि का प्रतीक हैं।

धार्मिक जीवन (Religious Life)

पौराणिक हिंदू धर्म का वर्चस्व (Dominance of Puranic Hinduism)

इस काल में धार्मिक जीवन (religious life) में सबसे बड़ा परिवर्तन बौद्ध धर्म का पतन और पौराणिक हिंदू धर्म का पुनरुत्थान था। गुप्त काल में शुरू हुई यह प्रक्रिया इस युग में अपने चरम पर पहुँच गई। विष्णु (वैष्णववाद) और शिव (शैववाद) सबसे लोकप्रिय देवता बन गए। पुराणों और महाकाव्यों (रामायण और महाभारत) की कथाएँ बहुत लोकप्रिय हुईं। राजाओं ने बड़े-बड़े मंदिर बनवाए, जो धार्मिक गतिविधियों के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक जीवन के भी केंद्र बन गए। 🙏

भक्ति आंदोलन का उदय (Rise of the Bhakti Movement)

दक्षिण भारत में, इसी काल में भक्ति आंदोलन का उदय हुआ। अलवर (विष्णु के भक्त) और नयनार (शिव के भक्त) संतों ने ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत प्रेम और समर्पण का संदेश दिया। उन्होंने जाति-पाति और कर्मकांडों का विरोध किया और स्थानीय भाषाओं (तमिल) में भक्ति गीत गाए ताकि आम लोग भी उन्हें समझ सकें। यह आंदोलन बाद में पूरे भारत में फैल गया और इसने भारतीय समाज और धर्म पर गहरा प्रभाव डाला।

शंकराचार्य और अद्वैत वेदांत (Shankaracharya and Advaita Vedanta)

8वीं शताब्दी में, महान दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को एक नया दार्शनिक आधार प्रदान किया। उन्होंने ‘अद्वैत वेदांत’ का सिद्धांत दिया, जिसके अनुसार ‘ब्रह्म’ (परमात्मा) ही एकमात्र सत्य है और यह संसार माया है। उन्होंने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता पर भाष्य लिखे। भारत की सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने के लिए, उन्होंने देश के चारों कोनों में चार मठों (श्रृंगेरी, द्वारका, पुरी और बद्रीनाथ) की स्थापना की। 🧘

बौद्ध और जैन धर्म की स्थिति (Status of Buddhism and Jainism)

पाल वंश के संरक्षण के कारण पूर्वी भारत को छोड़कर, भारत के अधिकांश हिस्सों में बौद्ध धर्म का तेजी से पतन हो रहा था। हिंदू धर्म में सुधार और तुर्की आक्रमणकारियों द्वारा मठों को नष्ट किए जाने से इसे बहुत नुकसान पहुँचा। वहीं, जैन धर्म गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक जैसे पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्रों में अभी भी लोकप्रिय था। राष्ट्रकूट और चालुक्य शासकों ने जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया। कर्नाटक में श्रवणबेलगोला जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना रहा।

तंत्रवाद का प्रभाव (Influence of Tantrism)

इस काल में हिंदू और बौद्ध दोनों धर्मों पर तंत्रवाद का प्रभाव बढ़ा। तंत्रवाद में जादुई और रहस्यमय अनुष्ठानों, मंत्रों और यंत्रों पर जोर दिया जाता था। इसका उद्देश्य अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करना था। शक्ति पूजा (देवी की पूजा) तंत्रवाद का एक महत्वपूर्ण अंग थी। यह आम लोगों में बहुत लोकप्रिय हुआ और इसने कई स्थानीय देवी-देवताओं और प्रथाओं को मुख्यधारा के धर्म में शामिल करने में मदद की।

शिक्षा, साहित्य और संस्कृति (Education, Literature, and Culture)

शिक्षा के केंद्र (Centers of Education)

प्रारंभिक मध्यकाल में शिक्षा (education) के मुख्य केंद्र मंदिर, मठ और विहार थे। इन स्थानों पर धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ व्याकरण, तर्कशास्त्र, दर्शन और चिकित्सा जैसे विषयों की भी पढ़ाई होती थी। नालंदा और विक्रमशिला (पालों के अधीन) जैसे बौद्ध विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थे, जहाँ चीन, तिब्बत और दक्षिण-पूर्व एशिया से छात्र पढ़ने आते थे। इसके अलावा, कन्नौज, बनारस और कांची भी शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र थे। 📚

संस्कृत साहित्य (Sanskrit Literature)

संस्कृत अभी भी विद्वानों और राजदरबार की भाषा बनी हुई थी। इस काल में कई महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथों की रचना हुई। भवभूति ने ‘मालतीमाधव’ और ‘उत्तररामचरित’ जैसे प्रसिद्ध नाटक लिखे। राजशेखर ने ‘काव्यमीमांसा’ की रचना की। 12वीं शताब्दी में, कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ लिखा, जिसमें कश्मीर का क्रमबद्ध इतिहास है। जयदेव का ‘गीतगोविंद’ भी इसी काल की एक उत्कृष्ट रचना है।

क्षेत्रीय भाषाओं का विकास (Development of Regional Languages)

इस काल की सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक उपलब्धि क्षेत्रीय भाषाओं (regional languages) और साहित्य का विकास था। संस्कृत से निकली अपभ्रंश भाषाओं से धीरे-धीरे हिंदी, बंगाली, मराठी, गुजराती जैसी आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ। दक्षिण में, कन्नड़ और तमिल साहित्य का बहुत विकास हुआ। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष ने कन्नड़ में ‘कविराजमार्ग’ लिखा, जबकि पंपा, पोन्ना और रन्ना कन्नड़ साहित्य के ‘तीन रत्न’ माने जाते हैं। कंबन ने तमिल में ‘रामावतारम्’ (कंब रामायण) की रचना की।

विज्ञान और गणित (Science and Mathematics)

इस काल में विज्ञान और गणित के क्षेत्र में भी प्रगति जारी रही। प्रसिद्ध गणितज्ञ और खगोलशास्त्री भास्कराचार्य द्वितीय (भास्कर द्वितीय) इसी युग में हुए थे। उन्होंने ‘सिद्धांत शिरोमणि’ नामक एक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा, जिसके चार भाग हैं- लीलावती (अंकगणित), बीजगणित, ग्रहगणित और गोलाध्याय (खगोल विज्ञान)। उनके कार्यों ने दशमलव प्रणाली, शून्य के उपयोग और गुरुत्वाकर्षण के बारे में महत्वपूर्ण सिद्धांत दिए। 💹

सांस्कृतिक संश्लेषण (Cultural Synthesis)

यह काल एक महान सांस्कृतिक संश्लेषण का काल था। विभिन्न क्षेत्रों के लोग जब व्यापार, युद्ध या तीर्थयात्रा के लिए एक-दूसरे के संपर्क में आए, तो उनकी संस्कृतियों का भी आदान-प्रदान हुआ। उत्तर और दक्षिण की परंपराओं का मेल हुआ। भक्ति आंदोलन ने धार्मिक और सामाजिक बाधाओं को तोड़ने का काम किया। इस सांस्कृतिक विविधता और एकता ने भारतीय सभ्यता को और भी समृद्ध बनाया और आज की हमारी मिली-जुली संस्कृति की नींव रखी।

कला और स्थापत्य (Art and Architecture)

मंदिर स्थापत्य की क्षेत्रीय शैलियाँ (Regional Styles of Temple Architecture)

प्रारंभिक मध्यकाल भारतीय मंदिर स्थापत्य (temple architecture) का स्वर्ण युग माना जाता है। इस काल में, देश के विभिन्न हिस्सों में विशिष्ट क्षेत्रीय शैलियों का विकास हुआ। मुख्य रूप से तीन प्रमुख शैलियाँ थीं- उत्तर भारत में नागर शैली, दक्षिण भारत में द्रविड़ शैली, और दक्कन क्षेत्र में इन दोनों के मिश्रण से बनी वेसर शैली। प्रत्येक शैली की अपनी अनूठी विशेषताएँ थीं, जो उस क्षेत्र की संस्कृति और कलात्मक प्रतिभा को दर्शाती थीं। 🕌

नागर शैली (Nagara Style)

नागर शैली के मंदिरों की मुख्य विशेषता उनका वक्ररेखीय शिखर (घुमावदार टॉवर) और ऊँचा मंच (जगती) होता था। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ होता था। इस शैली के सबसे सुंदर उदाहरण मध्य प्रदेश में चंदेलों द्वारा बनवाए गए खजुराहो के मंदिर हैं, जैसे कंदरिया महादेव मंदिर। उड़ीसा में कोणार्क का सूर्य मंदिर और भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर भी नागर शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। राजस्थान और गुजरात में भी इस शैली के कई भव्य मंदिर बनवाए गए।

द्रविड़ शैली (Dravida Style)

द्रविड़ शैली के मंदिरों की पहचान उनके पिरामिड के आकार के विमान (टॉवर), विशाल गोपुरम (प्रवेश द्वार) और बड़े आयताकार प्रांगण से होती है। इस शैली को पल्लवों ने शुरू किया और चोलों ने इसे शिखर पर पहुँचाया। तंजौर का बृहदीश्वर मंदिर, जिसे राजराजा चोल ने बनवाया था, द्रविड़ शैली का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। गंगईकोंडचोलपुरम और दारासुरम के मंदिर भी इसी शैली के magnífico उदाहरण हैं। इन मंदिरों का पैमाना और भव्यता देखने लायक है।

वेसर शैली (Vesara Style)

वेसर शैली का विकास दक्कन में कल्याणी के चालुक्यों और होयसलों द्वारा किया गया। इसमें नागर शैली के शिखर और द्रविड़ शैली के विमान की कुछ विशेषताओं को मिलाया गया है। इसके विमान सीढ़ीदार होते हैं और योजना में तारे का आकार या बहुभुज हो सकता है। होयसलों द्वारा बेलूर, हलेबिडु और सोमनाथपुर में बनवाए गए मंदिर अपनी जटिल और बारीक नक्काशी के लिए प्रसिद्ध हैं। इन मंदिरों की दीवारों पर ऐसा लगता है जैसे पत्थर पर नहीं, बल्कि चंदन की लकड़ी पर नक्काशी की गई हो।

मूर्तिकला और चित्रकला (Sculpture and Painting)

यह काल मूर्तिकला के लिए भी जाना जाता है। खजुराहो, कोणार्क और होयसल मंदिरों की मूर्तियाँ अपनी सुंदरता, सजीवता और कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध हैं। इस काल में कांस्य मूर्तिकला का भी अद्भुत विकास हुआ, विशेषकर चोलों के अधीन। चोल कलाकारों द्वारा बनाई गई नटराज (नृत्य करते हुए शिव) की कांस्य प्रतिमा को भारतीय कला की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में से एक माना जाता है। चित्रकला के क्षेत्र में, पालों के संरक्षण में ताड़-पत्रों पर लघु चित्र बनाने की कला विकसित हुई। 🎨

ऐतिहासिक महत्व और निष्कर्ष (Historical Significance and Conclusion)

एक संक्रमणकालीन युग (A Transitional Era)

भारत का प्रारंभिक मध्यकाल ऐतिहासिक रूप से एक महत्वपूर्ण संक्रमणकालीन युग था। यह प्राचीन भारत की शास्त्रीय परंपराओं के अंत और मध्यकालीन भारत की नई सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं की शुरुआत के बीच का समय था। इस युग ने प्राचीन भारत की विरासत को सहेजा और उसे एक नया रूप देकर आने वाली पीढ़ियों के लिए तैयार किया। इसने भारत के इतिहास (history of India) की निरंतरता को बनाए रखने में एक पुल का काम किया। ✨

क्षेत्रीय राज्यों और संस्कृतियों का निर्माण (Formation of Regional Kingdoms and Cultures)

इस काल का सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक महत्व (historical significance) क्षेत्रीय राज्यों, भाषाओं और संस्कृतियों का उदय और विकास है। राजपूत, पाल, चोल जैसे राजवंशों ने जिन क्षेत्रों पर शासन किया, वे ही आज के कई आधुनिक भारतीय राज्यों के सांस्कृतिक और भौगोलिक आधार बने। इसी काल में हिंदी, बंगाली, मराठी, कन्नड़ जैसी आधुनिक भाषाओं की नींव पड़ी, जिसने भारत की भाषाई विविधता को समृद्ध किया।

कला और स्थापत्य की स्थायी विरासत (Enduring Legacy of Art and Architecture)

इस युग ने हमें कला और स्थापत्य की एक अमूल्य विरासत दी है। खजुराहो के मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर, एलोरा का कैलाश मंदिर, और तंजौर का बृहदीश्वर मंदिर आज भी भारत की स्थापत्य प्रतिभा के अद्भुत प्रमाण हैं। ये स्मारक न केवल धार्मिक केंद्र हैं, बल्कि उस समय के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का भी प्रतिबिंब हैं। ये विश्व धरोहर स्थल आज भी दुनिया भर के पर्यटकों और कला प्रेमियों को आकर्षित करते हैं।

कमजोरियाँ और पतन (Weaknesses and Decline)

इस युग की तमाम उपलब्धियों के बावजूद, इसकी कुछ कमजोरियाँ भी थीं। राजनीतिक विखंडन और राजपूतों जैसे शासक वर्गों का आपसी संघर्ष सबसे बड़ी कमजोरी थी। इस निरंतर युद्ध ने उन्हें आर्थिक और सैन्य रूप से कमजोर कर दिया। परिणामस्वरूप, जब 11वीं और 12वीं शताब्दी में उत्तर-पश्चिम से तुर्की आक्रमणकारी आए, तो वे एक होकर उनका मुकाबला नहीं कर सके। उनकी यही आपसी फूट भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना का कारण बनी।

अंतिम निष्कर्ष (Final Conclusion)

निष्कर्षतः, भारत का प्रारंभिक मध्यकाल राजनीतिक अस्थिरता और संघर्ष का काल होने के बावजूद, सांस्कृतिक, साहित्यिक और कलात्मक विकास का एक अत्यंत जीवंत और रचनात्मक युग था। इसने भारतीय सभ्यता के क्षेत्रीय स्वरूपों को गढ़ा और एक ऐसी समृद्ध विरासत छोड़ी जो आज भी हमारे जीवन को प्रभावित करती है। छात्रों के लिए इस युग को समझना आवश्यक है ताकि वे भारत की जटिल लेकिन गौरवशाली ऐतिहासिक यात्रा को पूरी तरह से समझ सकें। 🇮🇳

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