विषय-सूची (Table of Contents)
- परिचय (Introduction)
- भाग 1: संघ और उसका राज्यक्षेत्र (Part 1: The Union and its Territory)
- अनुच्छेद 1: संघ का नाम और राज्यक्षेत्र (Article 1: Name and Territory of the Union)
- अनुच्छेद 2: नए राज्यों का प्रवेश या स्थापना (Article 2: Admission or Establishment of New States)
- अनुच्छेद 3: नए राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन (Article 3: Formation of New States and Alteration of Areas, Boundaries or Names of Existing States)
- अनुच्छेद 4: अनुच्छेद 2 और 3 के तहत बनाए गए कानून (Article 4: Laws made under Articles 2 and 3)
- राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का विकास (Evolution of States and Union Territories)
- भाग 2: नागरिकता (Part 2: Citizenship)
- नागरिकता का परिचय (Introduction to Citizenship)
- संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 5-11 (Constitutional Provisions: Articles 5-11)
- नागरिकता अधिनियम, 1955 (The Citizenship Act, 1955)
- नागरिकता का अधिग्रहण (Acquisition of Citizenship)
- नागरिकता की समाप्ति (Loss of Citizenship)
- एकल नागरिकता की अवधारणा (Concept of Single Citizenship)
- विशेष श्रेणियां: OCI, PIO, NRI (Special Categories: OCI, PIO, NRI)
- निष्कर्ष (Conclusion)
परिचय 📜 (Introduction)
भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble of the Indian Constitution)
नमस्ते दोस्तों! 👋 आज हम भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) के एक बहुत ही महत्वपूर्ण और दिलचस्प विषय पर बात करने जा रहे हैं: “भारत संघ और उसके क्षेत्र एवं नागरिकता”। यह विषय न केवल प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि भारत के हर जागरूक नागरिक को इसकी जानकारी होनी चाहिए। हमारा संविधान भारत को “राज्यों के संघ” (Union of States) के रूप में परिभाषित करता है, जो इसकी एकता और अखंडता को दर्शाता है। इस लेख में, हम गहराई से समझेंगे कि भारत का क्षेत्र कैसे परिभाषित है, नए राज्यों का निर्माण कैसे होता है, और सबसे महत्वपूर्ण, भारत का नागरिक कौन है और नागरिकता कैसे प्राप्त की जा सकती है।
लेख की रूपरेखा (Outline of the Article)
यह लेख दो मुख्य भागों में विभाजित है। पहले भाग में, हम भारतीय संविधान के भाग 1, यानी ‘संघ और उसके राज्यक्षेत्र’ (The Union and its Territory) से संबंधित अनुच्छेदों 1 से 4 तक का विस्तृत विश्लेषण करेंगे। हम यह भी जानेंगे कि समय के साथ भारत में राज्यों का पुनर्गठन कैसे हुआ। दूसरे भाग में, हम संविधान के भाग 2, यानी ‘नागरिकता’ (Citizenship) से संबंधित अनुच्छेदों 5 से 11 और नागरिकता अधिनियम, 1955 के प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। तो चलिए, इस ज्ञानवर्धक यात्रा की शुरुआत करते हैं! 🚀
भाग 1: संघ और उसका राज्यक्षेत्र 🗺️ (Part 1: The Union and its Territory)
संविधान के भाग 1 का महत्व (Importance of Part 1 of the Constitution)
भारतीय संविधान का भाग 1, जिसमें अनुच्छेद 1 से 4 तक शामिल हैं, भारत की भौगोलिक और राजनीतिक संरचना की नींव रखता है। यह स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है कि ‘भारत’ क्या है, इसमें कौन-कौन से क्षेत्र शामिल हैं, और संसद को इन क्षेत्रों की सीमाओं और नामों को बदलने की क्या शक्तियाँ प्राप्त हैं। भारत संघ और उसके क्षेत्रों की समझ भारतीय राजव्यवस्था को समझने का पहला कदम है। यह भाग भारत की एकता और अखंडता के संवैधानिक आधार को स्थापित करता है, जो देश की संप्रभुता के लिए अत्यंत आवश्यक है।
अनुच्छेद 1: संघ का नाम और राज्यक्षेत्र (Article 1: Name and Territory of the Union)
अनुच्छेद 1 भारत की पहचान को परिभाषित करता है। इसका खंड (1) कहता है, “India, that is Bharat, shall be a Union of States” (इंडिया, यानी भारत, राज्यों का एक संघ होगा)। संविधान सभा में देश के नाम पर काफी बहस हुई थी, कुछ ने पारंपरिक नाम ‘भारत’ का समर्थन किया, जबकि कुछ ने आधुनिक नाम ‘इंडिया’ को प्राथमिकता दी। अंत में, दोनों को स्वीकार कर लिया गया। ‘राज्यों का संघ’ वाक्यांश का उपयोग यह स्पष्ट करने के लिए किया गया कि भारतीय संघ राज्यों के बीच किसी समझौते का परिणाम नहीं है और किसी भी राज्य को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है।
‘भारत का क्षेत्र’ की परिभाषा (Definition of ‘Territory of India’)
अनुच्छेद 1(3) के अनुसार, ‘भारत के क्षेत्र’ (Territory of India) में तीन श्रेणियां शामिल हैं: (क) राज्यों के क्षेत्र, (ख) पहली अनुसूची में निर्दिष्ट केंद्र शासित प्रदेश, और (ग) ऐसे अन्य क्षेत्र जिन्हें भविष्य में अर्जित किया जा सकता है। ‘भारत का संघ’ (Union of India) और ‘भारत का क्षेत्र’ (Territory of India) में एक सूक्ष्म अंतर है। ‘भारत का संघ’ केवल राज्यों को संदर्भित करता है, जबकि ‘भारत का क्षेत्र’ एक व्यापक अभिव्यक्ति है जिसमें राज्य, केंद्र शासित प्रदेश और भविष्य में अर्जित किए जाने वाले क्षेत्र सभी शामिल हैं।
अनुच्छेद 2: नए राज्यों का प्रवेश या स्थापना (Article 2: Admission or Establishment of New States)
अनुच्छेद 2 भारतीय संसद को दो प्रकार की शक्तियाँ प्रदान करता है। पहली, नए राज्यों को भारतीय संघ में शामिल करने की शक्ति (power to admit new states)। यह उन राज्यों से संबंधित है जो पहले से ही अस्तित्व में हैं। दूसरी, नए राज्यों की स्थापना करने की शक्ति (power to establish new states)। यह उन क्षेत्रों से संबंधित है जो पहले भारत का हिस्सा नहीं थे और उन्हें एक नए राज्य के रूप में स्थापित किया जा रहा है। यह अनुच्छेद उन क्षेत्रों पर लागू होता है जिन्हें भारत अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार अधिग्रहित करता है, जैसे कि संधि, खरीद, उपहार या विजय के माध्यम से।
अनुच्छेद 2 और 3 में अंतर (Difference between Article 2 and Article 3)
छात्रों को अक्सर अनुच्छेद 2 और 3 के बीच भ्रम होता है। इसे सरल शब्दों में समझें: अनुच्छेद 2 उन क्षेत्रों के प्रवेश या स्थापना से संबंधित है जो भारत के मौजूदा संघ का हिस्सा नहीं हैं (बाहरी पुनर्समायोजन)। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण सिक्किम का भारत में विलय है। इसके विपरीत, अनुच्छेद 3 भारत के मौजूदा राज्यों के आंतरिक पुनर्समायोजन (internal readjustment) से संबंधित है, जैसे कि एक नए राज्य का निर्माण, सीमाओं में परिवर्तन या मौजूदा राज्य के नाम में परिवर्तन।
अनुच्छेद 3: नए राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन (Article 3: Formation of New States and Alteration of Areas, Boundaries or Names of Existing States)
यह अनुच्छेद भारतीय संसद को अपार शक्ति देता है। संसद कानून द्वारा: (क) किसी भी राज्य से क्षेत्र अलग करके, या दो या दो से अधिक राज्यों या राज्यों के कुछ हिस्सों को मिलाकर एक नया राज्य बना सकती है; (ख) किसी भी राज्य का क्षेत्रफल बढ़ा सकती है; (ग) किसी भी राज्य का क्षेत्रफल घटा सकती है; (घ) किसी भी राज्य की सीमाओं को बदल सकती है; और (ङ) किसी भी राज्य का नाम बदल सकती है। राज्यों के निर्माण, नाम और सीमा में परिवर्तन की यह शक्ति संसद को प्राप्त है।
राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया (Procedure for Formation of States)
अनुच्छेद 3 के तहत किसी भी बदलाव के लिए एक विधेयक (bill) संसद में पेश किया जाता है, लेकिन इसकी दो शर्तें हैं। पहली, ऐसा कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व सिफारिश के बिना संसद के किसी भी सदन में पेश नहीं किया जा सकता है। दूसरी, यदि विधेयक किसी राज्य के क्षेत्र, सीमाओं या नाम को प्रभावित करता है, तो राष्ट्रपति को उस विधेयक को संबंधित राज्य के विधानमंडल (State Legislature) को उनके विचार व्यक्त करने के लिए भेजना होगा। हालाँकि, संसद राज्य विधानमंडल के विचारों को मानने के लिए बाध्य नहीं है।
‘विनाशी राज्यों का अविनाशी संघ’ (Indestructible Union of Destructible States)
यह वाक्यांश भारत की संघीय संरचना की प्रकृति को बहुत अच्छी तरह से बताता है। अनुच्छेद 3 संसद को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी राज्य के अस्तित्व को समाप्त कर सकती है या उसकी सीमाओं को बदल सकती है, और इसके लिए राज्य की सहमति की आवश्यकता नहीं है। इसका मतलब है कि राज्य ‘विनाशी’ हैं। हालांकि, कोई भी राज्य भारतीय संघ से अलग नहीं हो सकता, जिसका अर्थ है कि संघ ‘अविनाशी’ है। यह अमेरिकी मॉडल के विपरीत है, जिसे ‘अविनाशी राज्यों का अविनाशी संघ’ कहा जाता है।
अनुच्छेद 4: अनुच्छेद 2 और 3 के तहत बनाए गए कानून (Article 4: Laws made under Articles 2 and 3)
अनुच्छेद 4 यह स्पष्ट करता है कि अनुच्छेद 2 या 3 के तहत बनाए गए किसी भी कानून को संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत एक संवैधानिक संशोधन (Constitutional Amendment) नहीं माना जाएगा। इसका मतलब है कि ऐसे कानून एक साधारण बहुमत (simple majority) और सामान्य विधायी प्रक्रिया के माध्यम से पारित किए जा सकते हैं, न कि विशेष बहुमत (special majority) की आवश्यकता के साथ। यह प्रावधान संसद के लिए राज्यों का पुनर्गठन करना आसान बनाता है।
अनुसूची 1 और 4 में संशोधन (Amendment to Schedule 1 and 4)
अनुच्छेद 4 यह भी कहता है कि अनुच्छेद 2 या 3 के तहत बनाया गया कोई भी कानून पहली अनुसूची (जो राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के नामों को सूचीबद्ध करती है) और चौथी अनुसूची (जो प्रत्येक राज्य के लिए राज्यसभा में सीटों के आवंटन से संबंधित है) में आवश्यक बदलाव करेगा। यह सुनिश्चित करता है कि संविधान के संबंधित हिस्से नए परिवर्तनों के साथ सुसंगत रहें, और इसके लिए अलग से संशोधन की आवश्यकता नहीं होती है।
राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का विकास 🕰️ (Evolution of States and Union Territories)
1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो यह दो प्रकार की राजनीतिक इकाइयों में बंटा हुआ था – ब्रिटिश प्रांत (British Provinces) और रियासतें (Princely States)। सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में रियासतों का एकीकरण एक विशाल कार्य था। स्वतंत्रता के बाद, विभिन्न क्षेत्रों से, विशेषकर दक्षिण भारत से, भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की तीव्र मांग उठी। इस मांग ने भारत के आंतरिक मानचित्र को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
धर आयोग और जेवीपी समिति (Dhar Commission and JVP Committee)
भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग को देखने के लिए, 1948 में एस. के. धर की अध्यक्षता में एक भाषाई प्रांत आयोग (Linguistic Provinces Commission) नियुक्त किया गया। आयोग ने भाषा के बजाय प्रशासनिक सुविधा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की, जिससे बहुत असंतोष पैदा हुआ। इसके बाद, कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और पट्टाभि सीतारमैया वाली जेवीपी समिति का गठन किया। इस समिति ने भी औपचारिक रूप से भाषा को राज्यों के पुनर्गठन का आधार मानने के विचार को खारिज कर दिया।
राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 (States Reorganisation Act, 1956)
हालांकि, पोट्टी श्रीरामुलु की मृत्यु के बाद, जिन्होंने तेलुगु भाषी लोगों के लिए एक अलग राज्य की मांग करते हुए आमरण अनशन किया था, स्थिति बदल गई। सरकार को अक्टूबर 1953 में भाषा के आधार पर पहले राज्य, आंध्र प्रदेश, का गठन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद, 1953 में फजल अली की अध्यक्षता में एक राज्य पुनर्गठन आयोग (States Reorganisation Commission) का गठन किया गया। इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर, राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 पारित किया गया, जिसने 1 नवंबर, 1956 को 14 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों का निर्माण किया।
1956 के बाद बने नए राज्य (New States formed after 1956)
1956 के बाद भी, राजनीतिक और सांस्कृतिक मांगों के आधार पर नए राज्यों का निर्माण जारी रहा। 1960 में, बॉम्बे को महाराष्ट्र (मराठी भाषियों के लिए) और गुजरात (गुजराती भाषियों के लिए) में विभाजित किया गया। 1963 में, नागालैंड को असम से अलग करके एक राज्य बनाया गया। 1966 में, पंजाब का पुनर्गठन किया गया, जिससे हरियाणा (हिंदी भाषियों के लिए) और हिमाचल प्रदेश (केंद्र शासित प्रदेश) का निर्माण हुआ। राज्यों के निर्माण, नाम और सीमा में ये परिवर्तन भारत की गतिशील प्रकृति को दर्शाते हैं।
पूर्वोत्तर राज्यों का पुनर्गठन (Reorganisation of North-Eastern States)
1970 के दशक में पूर्वोत्तर भारत में एक बड़ा पुनर्गठन हुआ। 1972 में, मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। 1975 में, एक जनमत संग्रह के बाद सिक्किम भारत का 22वां राज्य बना, जो अनुच्छेद 2 के तहत एक नए राज्य के प्रवेश का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। 1987 में, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश को भी पूर्ण राज्य का दर्जा मिला, और गोवा को दमन और दीव से अलग करके एक राज्य बना दिया गया।
21वीं सदी में नए राज्य (New States in the 21st Century)
वर्ष 2000 में, बेहतर प्रशासन और क्षेत्रीय आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए तीन नए राज्यों का गठन किया गया: मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, और बिहार से झारखंड। सबसे हालिया राज्य का गठन 2014 में हुआ, जब तेलंगाना को आंध्र प्रदेश से अलग करके भारत का 29वां राज्य बनाया गया। इन सभी परिवर्तनों ने भारत के राजनीतिक मानचित्र को लगातार विकसित किया है।
जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त (Abrogation of Special Status of Jammu and Kashmir)
5 अगस्त, 2019 को, भारत सरकार ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया, जिसने जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा दिया था। इसके साथ ही, जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 पारित किया गया, जिसने जम्मू और कश्मीर राज्य को दो नए केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया: जम्मू और कश्मीर (विधानसभा के साथ) और लद्दाख (विधानसभा के बिना)। इस कदम ने भारत के राजनीतिक मानचित्र में एक और महत्वपूर्ण बदलाव किया।
भाग 2: नागरिकता 👤 (Part 2: Citizenship)
नागरिकता का अर्थ और महत्व (Meaning and Importance of Citizenship)
नागरिकता किसी व्यक्ति और एक राज्य के बीच एक कानूनी संबंध है। यह व्यक्ति को कुछ अधिकार, जैसे कि मतदान का अधिकार, सरकारी पदों पर आसीन होने का अधिकार, और कुछ मौलिक अधिकार जो केवल नागरिकों को उपलब्ध हैं, प्रदान करती है। इसके बदले में, नागरिक से देश के प्रति कुछ कर्तव्यों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है, जैसे कि संविधान का सम्मान करना और करों का भुगतान करना। भारत में, नागरिकता की अवधारणा संविधान के भाग II में अनुच्छेद 5 से 11 तक विस्तृत है।
नागरिक और विदेशी में अंतर (Difference between Citizen and Alien)
नागरिक किसी देश के पूर्ण सदस्य होते हैं और उन्हें सभी नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। दूसरी ओर, विदेशी (Aliens) किसी अन्य राज्य के नागरिक होते हैं जो अस्थायी रूप से देश में रह रहे होते हैं। विदेशियों को सभी मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं होते हैं (जैसे अनुच्छेद 15, 16, 19, 29 और 30)। विदेशी दो प्रकार के हो सकते हैं: मित्रवत विदेशी (friendly aliens) और शत्रु विदेशी (enemy aliens)। शत्रु विदेशी वे होते हैं जिनके देश के साथ भारत का युद्ध चल रहा हो, और उन्हें अनुच्छेद 22 के तहत गिरफ्तारी और नजरबंदी के खिलाफ कम सुरक्षा प्राप्त होती है।
संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 5-11 🏛️ (Constitutional Provisions: Articles 5-11)
भारतीय संविधान नागरिकता के संबंध में विस्तृत और स्थायी प्रावधान नहीं करता है। यह केवल उन व्यक्तियों की पहचान करता है जो 26 जनवरी, 1950 को संविधान के लागू होने के समय भारत के नागरिक बने। इसने नागरिकता के अधिग्रहण (acquisition of citizenship) या हानि से संबंधित मामलों पर कानून बनाने की शक्ति संसद को दी है। इन संवैधानिक प्रावधानों को समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि वे नागरिकता कानून की नींव रखते हैं।
अनुच्छेद 5: संविधान के प्रारंभ में नागरिकता (Article 5: Citizenship at the commencement of the Constitution)
अनुच्छेद 5 उन लोगों की नागरिकता से संबंधित है जिनका भारत में अधिवास (domicile) था। इसके अनुसार, 26 जनवरी, 1950 को कोई भी व्यक्ति जो भारत में अधिवासित था और (क) जो भारत में पैदा हुआ था, या (ख) जिसके माता-पिता में से कोई एक भारत में पैदा हुआ था, या (ग) जो संविधान के लागू होने से ठीक पहले कम से कम पांच साल तक भारत में सामान्य रूप से निवासी रहा हो, भारत का नागरिक होगा। अधिवास का अर्थ है स्थायी रूप से रहने का इरादा।
अनुच्छेद 6: पाकिस्तान से भारत आए व्यक्तियों की नागरिकता (Article 6: Citizenship of persons migrated from Pakistan)
यह अनुच्छेद उन लोगों की नागरिकता को संबोधित करता है जो विभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत आए थे। इसने एक कट-ऑफ तारीख, 19 जुलाई, 1948, निर्धारित की। जो लोग इस तारीख से पहले भारत आ गए थे, वे स्वतः नागरिक बन गए, बशर्ते वे या उनके माता-पिता या दादा-दादी अविभाजित भारत में पैदा हुए हों। जो लोग इस तारीख को या उसके बाद आए, उन्हें नागरिकता के लिए पंजीकरण कराना पड़ा, जिसके लिए उन्हें आवेदन से पहले कम से कम छह महीने तक भारत में रहना आवश्यक था।
अनुच्छेद 7: पाकिस्तान चले गए कुछ प्रवासियों की नागरिकता (Article 7: Citizenship of certain migrants to Pakistan)
अनुच्छेद 7 एक विशेष स्थिति से संबंधित है। यह कहता है कि यदि कोई व्यक्ति 1 मार्च, 1947 के बाद भारत से पाकिस्तान चला गया, तो वह भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा। हालांकि, इसका एक अपवाद है। यदि ऐसा व्यक्ति बाद में पुनर्वास के लिए परमिट (permit for resettlement) के तहत भारत लौट आता है, तो वह अनुच्छेद 6 के प्रावधानों के तहत नागरिकता के लिए पात्र हो सकता है, यानी उसे पंजीकरण के लिए आवेदन करने से पहले छह महीने तक भारत में रहना होगा।
अनुच्छेद 8: भारत के बाहर रहने वाले भारतीय मूल के व्यक्ति (Article 8: Persons of Indian Origin residing outside India)
यह अनुच्छेद भारत के बाहर रहने वाले भारतीय मूल के व्यक्तियों (Persons of Indian Origin – PIOs) के लिए नागरिकता का प्रावधान करता है। कोई भी व्यक्ति जो या जिसके माता-पिता या दादा-दादी में से कोई अविभाजित भारत में पैदा हुआ था, और जो सामान्य रूप से किसी दूसरे देश में रह रहा है, वह भारत का नागरिक बन सकता है यदि वह उस देश में भारतीय राजनयिक या कांसुलर प्रतिनिधि के पास नागरिक के रूप में खुद को पंजीकृत कराता है।
अनुच्छेद 9: विदेशी नागरिकता का स्वैच्छिक अधिग्रहण (Article 9: Voluntary acquisition of foreign citizenship)
यह अनुच्छेद ‘एकल नागरिकता’ (single citizenship) के सिद्धांत को स्थापित करता है। यह स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से किसी विदेशी राज्य की नागरिकता प्राप्त कर लेता है, तो वह भारत का नागरिक नहीं रहेगा। इसका मतलब है कि भारत दोहरी नागरिकता की अनुमति नहीं देता है। जैसे ही कोई भारतीय नागरिक किसी अन्य देश की नागरिकता स्वीकार करता है, उसकी भारतीय नागरिकता स्वतः समाप्त हो जाती है।
अनुच्छेद 10 और 11: नागरिकता का बने रहना और संसदीय शक्ति (Article 10 & 11: Continuance and Parliamentary Power)
अनुच्छेद 10 यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति जो संविधान के किसी भी प्रावधान के तहत भारत का नागरिक है, वह नागरिक बना रहेगा, लेकिन यह संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के अधीन होगा। अनुच्छेद 11 संसद को नागरिकता के अधिग्रहण और समाप्ति तथा नागरिकता से संबंधित अन्य सभी मामलों के संबंध में कोई भी प्रावधान करने की पूर्ण शक्ति प्रदान करता है। इसी शक्ति का प्रयोग करते हुए संसद ने नागरिकता अधिनियम, 1955 पारित किया।
नागरिकता अधिनियम, 1955 📜 (The Citizenship Act, 1955)
यह अधिनियम संविधान लागू होने के बाद भारतीय नागरिकता के अधिग्रहण और समाप्ति के लिए एक व्यापक कानून है। यह अधिनियम समय-समय पर संशोधित किया गया है, विशेष रूप से 1986, 1992, 2003, 2005 और 2019 में, ताकि बदलती परिस्थितियों और जरूरतों को समायोजित किया जा सके। यह अधिनियम नागरिकता के अधिग्रहण (acquisition of citizenship) के पांच तरीकों और नागरिकता की समाप्ति के तीन तरीकों को निर्धारित करता है।
नागरिकता का अधिग्रहण (Acquisition of Citizenship)
नागरिकता अधिनियम, 1955 भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के पांच तरीके बताता है। ये तरीके हैं: जन्म से (By Birth), वंश से (By Descent), पंजीकरण द्वारा (By Registration), प्राकृतिककरण द्वारा (By Naturalisation), और क्षेत्र के समावेश द्वारा (By Incorporation of Territory)। प्रत्येक विधि की अपनी विशिष्ट शर्तें और आवश्यकताएं हैं, जिन्हें समय के साथ संशोधित किया गया है।
1. जन्म से नागरिकता (Jus Soli) (1. Citizenship by Birth)
मूल रूप से, 26 जनवरी, 1950 से 1 जुलाई, 1987 के बीच भारत में पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति अपने माता-पिता की राष्ट्रीयता की परवाह किए बिना जन्म से भारत का नागरिक था (इसे ‘जस सोली’ या भूमि का अधिकार कहते हैं)। 1986 के संशोधन ने इसे बदल दिया। 1 जुलाई, 1987 के बाद, भारत में पैदा हुए व्यक्ति को तभी नागरिक माना जाएगा जब उसके जन्म के समय उसके माता-पिता में से कोई एक भारत का नागरिक हो।
जन्म से नागरिकता में 2003 का संशोधन (2003 Amendment in Citizenship by Birth)
नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2003 ने इस प्रावधान को और सख्त कर दिया। 3 दिसंबर, 2004 को या उसके बाद भारत में पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति केवल तभी जन्म से नागरिक होगा जब (i) उसके दोनों माता-पिता भारत के नागरिक हों, या (ii) उसके माता-पिता में से एक भारत का नागरिक हो और दूसरा अवैध प्रवासी (illegal migrant) न हो। यह बदलाव अवैध आप्रवासन को रोकने के उद्देश्य से किया गया था।
2. वंश से नागरिकता (Jus Sanguinis) (2. Citizenship by Descent)
यह प्रावधान भारत के बाहर पैदा हुए व्यक्तियों पर लागू होता है (इसे ‘जस सैंग्विनिस’ या रक्त का अधिकार कहते हैं)। 10 दिसंबर, 1992 से पहले, भारत के बाहर पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति वंश से नागरिक बन सकता था यदि उसके जन्म के समय उसका पिता भारत का नागरिक था। 1992 के संशोधन ने लैंगिक समानता लाते हुए ‘पिता’ को ‘माता-पिता में से कोई एक’ से बदल दिया।
वंश से नागरिकता में 2003 का संशोधन (2003 Amendment in Citizenship by Descent)
2003 के संशोधन ने एक और शर्त जोड़ी। 3 दिसंबर, 2004 को या उसके बाद भारत के बाहर पैदा हुए किसी भी व्यक्ति को तब तक वंश से नागरिक नहीं माना जाएगा जब तक कि उसके जन्म का पंजीकरण जन्म के एक वर्ष के भीतर भारतीय वाणिज्य दूतावास (Indian Consulate) में नहीं कराया जाता है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि माता-पिता यह घोषणा करें कि बच्चे के पास किसी अन्य देश का पासपोर्ट नहीं है।
3. पंजीकरण द्वारा नागरिकता (3. Citizenship by Registration)
केंद्र सरकार आवेदन पर, कुछ श्रेणियों के व्यक्तियों को भारत के नागरिक के रूप में पंजीकृत कर सकती है। इसमें भारतीय मूल के व्यक्ति शामिल हैं जो पंजीकरण के लिए आवेदन करने से पहले सात साल से भारत में रह रहे हैं; वे व्यक्ति जिन्होंने भारतीय नागरिक से विवाह किया है और आवेदन से पहले सात साल से भारत में रह रहे हैं; और भारत के नागरिक के नाबालिग बच्चे। नागरिकता के अधिग्रहण का यह तरीका मुख्य रूप से भारतीय मूल के लोगों के लिए है।
4. प्राकृतिककरण द्वारा नागरिकता (4. Citizenship by Naturalisation)
एक विदेशी व्यक्ति जो अवैध प्रवासी नहीं है, प्राकृतिककरण द्वारा भारतीय नागरिकता प्राप्त कर सकता है यदि वह कुछ शर्तों को पूरा करता है। इन शर्तों में शामिल हैं: वह किसी ऐसे देश का नागरिक नहीं होना चाहिए जहां भारतीयों को प्राकृतिककरण से रोका जाता हो; उसे अपनी पिछली नागरिकता त्यागनी होगी; उसे आवेदन से पहले 12 वर्षों में से कुल 11 वर्ष भारत में रहना होगा (और आवेदन से ठीक पहले लगातार 12 महीने); उसका चरित्र अच्छा होना चाहिए; और उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित किसी एक भाषा का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए।
5. क्षेत्र के समावेश द्वारा नागरिकता (5. Citizenship by Incorporation of Territory)
यदि कोई विदेशी क्षेत्र भारत का हिस्सा बन जाता है, तो भारत सरकार उन व्यक्तियों को निर्दिष्ट करती है जो उस क्षेत्र के लोगों में से भारत के नागरिक होंगे। ऐसे व्यक्तियों को अधिसूचित तिथि से भारत का नागरिक माना जाता है। उदाहरण के लिए, जब गोवा, दमन और दीव भारत का हिस्सा बने, तो वहां के निवासियों को नागरिकता (गोवा, दमन और दीव) आदेश, 1962 के तहत भारतीय नागरिकता प्रदान की गई थी।
नागरिकता की समाप्ति 🚫 (Loss of Citizenship)
नागरिकता अधिनियम, 1955 भारतीय नागरिकता को समाप्त करने के तीन तरीके बताता है। ये हैं: स्वैच्छिक त्याग (By Renunciation), बर्खास्तगी द्वारा (By Termination), और वंचित करके (By Deprivation)। इन प्रावधानों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि केवल वे लोग ही भारत के नागरिक बने रहें जो देश के प्रति निष्ठा रखते हैं और जिन्होंने धोखाधड़ी से नागरिकता प्राप्त नहीं की है।
1. स्वैच्छिक त्याग द्वारा (By Renunciation)
कोई भी भारतीय नागरिक, जो पूर्ण आयु और क्षमता का है, अपनी भारतीय नागरिकता का त्याग करने की घोषणा कर सकता है। ऐसी घोषणा के पंजीकरण पर, वह व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं रह जाता है। जब कोई व्यक्ति अपनी नागरिकता का त्याग करता है, तो उस व्यक्ति का प्रत्येक नाबालिग बच्चा भी भारतीय नागरिकता खो देता है। हालांकि, ऐसा बच्चा 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के एक वर्ष के भीतर अपनी भारतीय नागरिकता फिर से शुरू करने का विकल्प चुन सकता है।
2. बर्खास्तगी द्वारा (By Termination)
यह प्रावधान अनुच्छेद 9 के सिद्धांत को लागू करता है। जब कोई भारतीय नागरिक स्वेच्छा से (जानबूझकर और बिना किसी दबाव के) किसी अन्य देश की नागरिकता प्राप्त कर लेता है, तो उसकी भारतीय नागरिकता स्वतः समाप्त हो जाती है। यह नियम तब लागू नहीं होता जब भारत युद्ध में लगा हो। सरकार यह निर्धारित करती है कि किसी व्यक्ति ने स्वेच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता प्राप्त की है या नहीं।
3. वंचित करके (By Deprivation)
यह नागरिकता की एक अनिवार्य समाप्ति है। केंद्र सरकार आदेश द्वारा किसी भी नागरिक (जो पंजीकरण या प्राकृतिककरण द्वारा नागरिक बना हो) को उसकी नागरिकता से वंचित कर सकती है यदि कुछ शर्तें पूरी होती हैं। इन शर्तों में शामिल हैं: (क) धोखाधड़ी, झूठे प्रतिनिधित्व या किसी महत्वपूर्ण तथ्य को छिपाकर नागरिकता प्राप्त करना; (ख) भारत के संविधान के प्रति अनिष्ठा दिखाना; (ग) युद्ध के दौरान दुश्मन के साथ अवैध रूप से व्यापार या संचार करना; (घ) प्राकृतिककरण या पंजीकरण के पांच साल के भीतर किसी भी देश में दो साल के लिए कैद होना; या (ङ) लगातार सात वर्षों से भारत से बाहर रहना।
एकल नागरिकता की अवधारणा 🇮🇳 (Concept of Single Citizenship)
भारतीय संविधान, अपनी संघीय संरचना के बावजूद, केवल एकल नागरिकता (single citizenship) का प्रावधान करता है। इसका मतलब है कि भारत में प्रत्येक व्यक्ति केवल भारत का नागरिक है, चाहे उसका जन्म स्थान या निवास कुछ भी हो। वह किसी विशेष राज्य (जैसे उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु या गुजरात) का अलग से नागरिक नहीं होता है। यह संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों के विपरीत है, जहां एक व्यक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका का नागरिक होने के साथ-साथ उस विशेष राज्य का भी नागरिक होता है जिसमें वह रहता है, और उसे दोहरी नागरिकता के अधिकार प्राप्त होते हैं।
एकल नागरिकता का औचित्य (Justification for Single Citizenship)
संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर एकल नागरिकता का मॉडल चुना। इसका मुख्य उद्देश्य भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में भाईचारे और एकता की भावना को बढ़ावा देना था। उन्होंने महसूस किया कि दोहरी नागरिकता क्षेत्रीयता को बढ़ावा दे सकती है और विभिन्न राज्यों के लोगों के बीच भेदभाव पैदा कर सकती है। एकल नागरिकता यह सुनिश्चित करती है कि भारत के सभी नागरिकों को पूरे देश में समान नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों, बिना किसी भेदभाव के।
विशेष श्रेणियां: OCI, PIO, NRI ✈️ (Special Categories: OCI, PIO, NRI)
समय के साथ, भारत सरकार ने प्रवासी भारतीयों के साथ संबंधों को मजबूत करने के लिए कुछ विशेष श्रेणियां बनाई हैं। इनमें अनिवासी भारतीय (Non-Resident Indian – NRI), भारतीय मूल का व्यक्ति (Person of Indian Origin – PIO), और भारत का विदेशी नागरिक (Overseas Citizen of India – OCI) शामिल हैं। छात्रों के लिए इन श्रेणियों के बीच के अंतर को समझना महत्वपूर्ण है।
अनिवासी भारतीय (Non-Resident Indian – NRI)
एक अनिवासी भारतीय (NRI) एक भारतीय नागरिक होता है जो सामान्य रूप से भारत के बाहर रहता है और जिसके पास भारतीय पासपोर्ट होता है। वे भारत के नागरिक बने रहते हैं और उन्हें मतदान का अधिकार भी होता है (यदि वे मतदान के समय अपने निर्वाचन क्षेत्र में मौजूद हों)। वे भारत में संपत्ति खरीद सकते हैं और निवेश कर सकते हैं। NRI की स्थिति मुख्य रूप से आयकर उद्देश्यों के लिए प्रासंगिक है।
PIO और OCI कार्ड योजनाओं का विलय (Merger of PIO and OCI Card Schemes)
पहले, PIO और OCI दो अलग-अलग योजनाएं थीं। PIO कार्ड उन लोगों के लिए था जिनके पूर्वज भारतीय थे, जबकि OCI योजना अधिक व्यापक लाभ प्रदान करती थी। प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए, भारत सरकार ने 2015 में PIO कार्ड योजना को OCI कार्ड योजना के साथ विलय कर दिया। अब, सभी मौजूदा PIO कार्डधारकों को OCI कार्डधारक माना जाता है।
भारत का विदेशी नागरिक (Overseas Citizen of India – OCI)
एक OCI कार्डधारक एक विदेशी नागरिक होता है जिसके पास विदेशी पासपोर्ट होता है लेकिन उसे भारत में कुछ अधिकार दिए जाते हैं। OCI कार्ड के लिए पात्रता में वे लोग शामिल हैं जो 26 जनवरी, 1950 को भारत के नागरिक बनने के योग्य थे, या जो उस तारीख को या उसके बाद भारत के नागरिक थे, या जो ऐसे व्यक्ति के बच्चे या पोते-पोतियां हैं। हालांकि, यदि कोई व्यक्ति कभी पाकिस्तान या बांग्लादेश का नागरिक रहा है, तो वह OCI कार्ड के लिए पात्र नहीं है। OCI कार्ड धारकों को भारत में बहु-प्रवेश, आजीवन वीजा मिलता है और उन्हें भारत में रहने के लिए पुलिस के पास पंजीकरण कराने की आवश्यकता नहीं होती है।
OCI कार्डधारकों के अधिकार और सीमाएं (Rights and Limitations of OCI Cardholders)
OCI कार्डधारक को दोहरी नागरिकता नहीं माना जाता है। उन्हें कुछ महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं होते जो भारतीय नागरिकों को मिलते हैं, जैसे कि मतदान का अधिकार, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, या न्यायाधीश जैसे संवैधानिक पदों पर आसीन होने का अधिकार, और सरकारी नौकरियों के लिए पात्रता। वे कृषि भूमि भी नहीं खरीद सकते। हालांकि, उन्हें वित्तीय, आर्थिक और शैक्षिक क्षेत्रों में NRIs के बराबर अधिकार दिए जाते हैं।
नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 [CAA] (Citizenship (Amendment) Act, 2019 [CAA])
नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (CAA) ने नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन किया। यह अधिनियम अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए भारतीय नागरिकता प्राप्त करने की प्रक्रिया को आसान बनाता है, जिन्होंने 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत में प्रवेश किया था। यह उन्हें अवैध प्रवासी (illegal migrant) के रूप में नहीं मानेगा और प्राकृतिककरण के लिए आवश्यक निवास अवधि को 11 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया है।
निष्कर्ष 🏁 (Conclusion)
मुख्य बिंदुओं का सारांश (Summary of Key Points)
इस विस्तृत लेख में, हमने भारत संघ और उसके क्षेत्र एवं नागरिकता की जटिलताओं को समझने का प्रयास किया। हमने देखा कि भारतीय संविधान संसद को राज्यों की सीमाओं को फिर से परिभाषित करने की व्यापक शक्ति कैसे देता है, जो भारत को ‘विनाशी राज्यों का एक अविनाशी संघ’ बनाता है। हमने राज्यों के गठन के ऐतिहासिक विकास को भी समझा, जो भाषाई और प्रशासनिक आवश्यकताओं से प्रेरित था। इसके अलावा, हमने नागरिकता के संवैधानिक प्रावधानों और नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत नागरिकता के अधिग्रहण और समाप्ति की विभिन्न विधियों का विश्लेषण किया।
भारतीय राजव्यवस्था में इन अवधारणाओं का महत्व (Importance of These Concepts in Indian Polity)
‘संघ और उसका राज्यक्षेत्र’ तथा ‘नागरिकता’ भारतीय राजव्यवस्था के आधारभूत स्तंभ हैं। ये अवधारणाएं न केवल भारत की भौगोलिक और राजनीतिक संरचना को परिभाषित करती हैं, बल्कि यह भी निर्धारित करती हैं कि इस महान राष्ट्र का सदस्य कौन है और उसके क्या अधिकार और कर्तव्य हैं। एकल नागरिकता का सिद्धांत राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है, जबकि राज्यों के पुनर्गठन की लचीली प्रक्रिया बदलती सामाजिक-राजनीतिक आकांक्षाओं को समायोजित करने की भारत की क्षमता को दर्शाती है। एक छात्र और एक जागरूक नागरिक के रूप में इन विषयों की गहरी समझ भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने को सराहने के लिए अनिवार्य है। ✨


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