ब्रिटिश शासन की स्थापना – परिचय (Establishment of British Rule in India – Introduction)
ब्रिटिश शासन की स्थापना – परिचय (Establishment of British Rule in India – Introduction)

भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना (British Rule in India)

विषय – सूची (Table of Contents) 🧭

परिचय: भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना की पृष्ठभूमि (Introduction: Background to the Establishment of British Rule in India)

भारत की प्राचीन समृद्धि (Ancient Prosperity of India)

नमस्ते दोस्तों! 👋 आज हम इतिहास के एक बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय, “भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना”, पर विस्तार से चर्चा करेंगे। प्राचीन काल से ही भारत अपनी समृद्धि, मसालों, कपड़ों और ज्ञान के लिए पूरी दुनिया में ‘सोने की चिड़िया’ के नाम से मशहूर था। इसी समृद्धि ने दुनिया भर के व्यापारियों और शासकों को अपनी ओर आकर्षित किया, और इन्हीं में से एक थे यूरोपीय व्यापारी, जिन्होंने भारत के भविष्य को हमेशा के लिए बदल दिया।

मुगल साम्राज्य का पतन (Decline of the Mughal Empire)

17वीं शताब्दी के अंत और 18वीं शताब्दी की शुरुआत में, शक्तिशाली मुगल साम्राज्य (Mughal Empire) का पतन शुरू हो गया था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद, केंद्रीय सत्ता कमजोर हो गई और देश कई छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया। बंगाल, अवध, हैदराबाद जैसे प्रांतीय शासक स्वतंत्र हो गए। इस राजनीतिक अस्थिरता ने यूरोपीय कंपनियों को भारत में अपने पैर जमाने का सुनहरा अवसर प्रदान किया।

यूरोपीय कंपनियों का आगमन (Arrival of European Companies)

भारत के साथ व्यापार करने के लिए कई यूरोपीय देश जैसे पुर्तगाल, डच, फ्रांस और ब्रिटेन मैदान में उतरे। शुरुआत में उनका उद्देश्य केवल व्यापार करना था, लेकिन भारत की राजनीतिक कमजोरी को देखकर उनकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ने लगीं। वे अब सिर्फ व्यापारी नहीं, बल्कि शासक बनना चाहते थे। इस दौड़ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (British East India Company) सबसे चालाक और शक्तिशाली साबित हुई, जिसने धीरे-धीरे अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को खत्म कर दिया।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का उदय (Rise of the British East India Company)

यह कहानी एक व्यापारिक कंपनी के दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक पर कब्जा करने की है। यह सिर्फ तलवार और तोप की कहानी नहीं, बल्कि कूटनीति, साजिश और व्यापार की आड़ में सत्ता पर नियंत्रण की कहानी भी है। इस ब्लॉग पोस्ट में हम कदम-दर-कदम जानेंगे कि कैसे एक छोटी सी कंपनी ने भारत जैसे विशाल देश को लगभग 200 वर्षों तक अपनी गुलामी की जंजीरों में जकड़ लिया। आइए इस दिलचस्प और ज्ञानवर्धक यात्रा की शुरुआत करते हैं! 🚀

ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रारंभिक व्यापारिक प्रभाव (Early Commercial Influence of the East India Company)

कंपनी की स्थापना और उद्देश्य (Establishment and Objectives of the Company)

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 31 दिसंबर 1600 को इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम से एक शाही चार्टर (Royal Charter) प्राप्त करके हुई थी। इसका मूल उद्देश्य पूर्व के देशों, विशेष रूप से भारत और ईस्ट इंडीज के साथ मसालों का व्यापार करना था। प्रारंभ में, यह पूरी तरह से एक व्यापारिक संगठन था जिसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था। कंपनी के शेयरधारक (shareholders) मुनाफे के लिए उत्सुक थे और उनका लक्ष्य भारतीय वस्तुओं को सस्ते में खरीदकर यूरोप में ऊंचे दामों पर बेचना था।

भारत में पहला कदम (First Step in India)

कंपनी ने भारत में अपना पहला कदम मुगल बादशाह जहांगीर के शासनकाल में रखा। कैप्टन विलियम हॉकिन्स 1608 में सूरत बंदरगाह पर उतरे और जहांगीर के दरबार में व्यापार की अनुमति मांगने पहुंचे। हालांकि, पुर्तगालियों के विरोध के कारण उन्हें तुरंत सफलता नहीं मिली। बाद में, 1612 में सर थॉमस रो को सफलता मिली और उन्होंने सूरत में पहली ब्रिटिश फैक्ट्री (व्यापारिक कोठी) स्थापित करने का फरमान हासिल कर लिया। 🏭

व्यापारिक केंद्रों की स्थापना (Establishment of Trading Centers)

सूरत में अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित करने के बाद, कंपनी ने तेजी से भारत के अन्य तटीय क्षेत्रों में अपने पैर पसारे। उन्होंने दक्षिण में मसूलीपट्टनम और मद्रास (जहां उन्होंने फोर्ट सेंट जॉर्ज का निर्माण किया), पूर्व में हुगली और बाद में कलकत्ता (जहां फोर्ट विलियम बनाया गया) और पश्चिम में बॉम्बे (जो उन्हें पुर्तगालियों से दहेज में मिला था) में अपने प्रमुख व्यापारिक केंद्र स्थापित किए। ये केंद्र सिर्फ गोदाम नहीं थे, बल्कि धीरे-धीरे सैन्य किलेबंदी और प्रशासनिक शक्ति के केंद्र बन गए।

अन्य यूरोपीय शक्तियों से प्रतिस्पर्धा (Competition with Other European Powers)

भारत के आकर्षक व्यापार पर सिर्फ अंग्रेजों की नजर नहीं थी। पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसी भी इस दौड़ में शामिल थे। 17वीं और 18वीं शताब्दी के दौरान, इन यूरोपीय शक्तियों के बीच व्यापारिक एकाधिकार (trade monopoly) के लिए भयंकर प्रतिस्पर्धा और संघर्ष हुए। अंग्रेजों ने अपनी मजबूत नौसेना और बेहतर कूटनीति का उपयोग करके धीरे-धीरे पुर्तगालियों और डचों को पीछे छोड़ दिया। लेकिन फ्रांसीसी उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरे।

कर्नाटक युद्ध और फ्रांसीसियों का पतन (The Carnatic Wars and the Fall of the French)

18वीं शताब्दी के मध्य में, ब्रिटिश और फ्रांसीसी कंपनियों के बीच दक्षिण भारत के कर्नाटक क्षेत्र में वर्चस्व के लिए तीन युद्धों की एक श्रृंखला हुई, जिन्हें कर्नाटक युद्ध (Carnatic Wars) के नाम से जाना जाता है। ये युद्ध भारतीय नवाबों के उत्तराधिकार के झगड़ों में हस्तक्षेप करके लड़े गए प्रॉक्सी युद्ध (proxy wars) थे। इन युद्धों में रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजों ने अंततः फ्रांसीसियों को निर्णायक रूप से पराजित कर दिया, जिससे भारत में उनके प्रभुत्व का मार्ग प्रशस्त हो गया।

व्यापार से राजनीति की ओर बदलाव (Shift from Trade to Politics)

जैसे-जैसे कंपनी की सैन्य शक्ति और प्रभाव बढ़ता गया, उसका चरित्र भी बदलने लगा। अब वे केवल व्यापारी नहीं रह गए थे। उन्होंने भारतीय शासकों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया, संधियाँ कीं, और अपनी सेना को किराए पर देना शुरू कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करके, वे व्यापारिक लाभ को और अधिक सुरक्षित और अधिकतम कर सकते हैं। यह बदलाव ही भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना का आधार बना।

प्लासी की लड़ाई (1757): एक निर्णायक मोड़ (Battle of Plassey (1757): A Decisive Turning Point)

पृष्ठभूमि: बंगाल का महत्व (Background: The Importance of Bengal)

18वीं शताब्दी में बंगाल भारत का सबसे धनी और समृद्ध प्रांत था। यहाँ की उपजाऊ भूमि, कपड़ा उद्योग और व्यापार ने इसे सोने की खान बना दिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए बंगाल का अत्यधिक व्यापारिक महत्व था। मुगल बादशाह फर्रुखसियर द्वारा 1717 में जारी एक फरमान (शाही आदेश) के तहत कंपनी को बंगाल में कर-मुक्त व्यापार (tax-free trade) करने की अनुमति मिली हुई थी, जिसका वे जमकर दुरुपयोग कर रहे थे।

संघर्ष के कारण (Causes of the Conflict)

1756 में, अलीवर्दी खान की मृत्यु के बाद उनके पोते, सिराज-उद-दौला, बंगाल के नए नवाब बने। वह एक युवा और स्वाभिमानी शासक थे और अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित थे। संघर्ष के मुख्य कारण थे: (1) कंपनी द्वारा अपने व्यापारिक विशेषाधिकारों (दस्तक) का दुरुपयोग करना, (2) नवाब की अनुमति के बिना कलकत्ता में किलेबंदी करना, और (3) नवाब के दुश्मनों को अपने यहां शरण देना। इन कारणों से नवाब और अंग्रेजों के बीच तनाव चरम पर पहुंच गया। 😠

ब्लैक होल की घटना (The Black Hole Incident)

जब अंग्रेजों ने नवाब की चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया, तो सिराज-उद-दौला ने कलकत्ता पर हमला कर दिया और फोर्ट विलियम पर कब्जा कर लिया। इसी दौरान “ब्लैक होल त्रासदी” नामक एक कुख्यात घटना का उल्लेख किया जाता है। अंग्रेज इतिहासकार जे.जेड. हॉलवेल के अनुसार, नवाब ने 146 अंग्रेज कैदियों को एक छोटी सी कोठरी में बंद कर दिया, जिसमें दम घुटने से 123 लोगों की मौत हो गई। हालांकि, इस घटना की प्रामाणिकता पर कई भारतीय इतिहासकार सवाल उठाते हैं और इसे अंग्रेजों द्वारा युद्ध को उचित ठहराने का एक बहाना मानते हैं।

रॉबर्ट क्लाइव का षड्यंत्र (Robert Clive’s Conspiracy)

कलकत्ता पर नवाब के कब्जे की खबर मद्रास पहुंचने पर, कंपनी ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में एक सेना बंगाल भेजी। क्लाइव एक चालाक और महत्वाकांक्षी कमांडर था। उसने महसूस किया कि सिराज-उद-दौला को सीधे युद्ध में हराना मुश्किल होगा। इसलिए, उसने एक षड्यंत्र रचा। उसने नवाब के असंतुष्ट सेनापति मीर जाफर (Mir Jafar) से संपर्क किया और उसे नवाब बनाने का लालच दिया। मीर जाफर, राय दुर्लभ और जगत सेठ जैसे धनी बैंकर भी इस साजिश में शामिल हो गए।

प्लासी का युद्ध: एक धोखा (The Battle of Plassey: A Betrayal)

23 जून, 1757 को प्लासी के मैदान में नवाब सिराज-उद-दौला और रॉबर्ट क्लाइव की सेनाएं आमने-सामने हुईं। नवाब के पास लगभग 50,000 सैनिक थे, जबकि क्लाइव के पास मात्र 3,000। कागज पर यह एकतरफा मुकाबला लग रहा था। लेकिन यह युद्ध असल में लड़ा ही नहीं गया, यह एक धोखा था। युद्ध शुरू होते ही, मीर जाफर अपनी सेना के एक बड़े हिस्से के साथ निष्क्रिय खड़ा रहा। नवाब की सेना का एक छोटा सा वफादार हिस्सा ही लड़ा और जल्द ही हार गया। सिराज-उद-दौला को मैदान छोड़कर भागना पड़ा, लेकिन बाद में उसे पकड़कर मार दिया गया।

प्लासी की लड़ाई के परिणाम (Consequences of the Battle of Plassey)

प्लासी की लड़ाई भारतीय इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुई। इसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखी। इसके परिणाम दूरगामी और विनाशकारी थे: (1) मीर जाफर को बंगाल का कठपुतली नवाब बना दिया गया, जिसने कंपनी को भारी मात्रा में धन और 24 परगना की जमींदारी दी। (2) बंगाल की लूट शुरू हो गई, जिससे प्रांत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई। (3) कंपनी को बंगाल में राजनीतिक और सैन्य प्रभुत्व मिल गया, जिससे उनके हौसले बुलंद हो गए।

लड़ाई का महत्व (Significance of the Battle)

यह लड़ाई एक सैन्य जीत से कहीं बढ़कर एक कूटनीतिक जीत थी, जो धोखे और साजिश पर आधारित थी। इसने यह साबित कर दिया कि भारतीय शासकों की आपसी फूट और लालच का फायदा उठाकर उन्हें आसानी से हराया जा सकता है। प्लासी की लड़ाई ने ईस्ट इंडिया कंपनी को एक व्यापारिक इकाई से एक राजनीतिक शक्ति (political power) में बदल दिया, और यहीं से भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना का वास्तविक अध्याय शुरू होता है।

बक्सर की लड़ाई (1764): ब्रिटिश सत्ता की वास्तविक स्थापना (Battle of Buxar (1764): The Real Establishment of British Power)

प्लासी के बाद का बंगाल (Bengal After Plassey)

प्लासी की लड़ाई के बाद, मीर जाफर बंगाल का नवाब तो बन गया, लेकिन असली सत्ता कंपनी के हाथों में थी। कंपनी और उसके अधिकारी मीर जाफर से लगातार धन की मांग कर रहे थे, जिससे बंगाल का खजाना खाली हो गया। जब मीर जाफर कंपनी की मांगों को पूरा करने में असमर्थ हो गया, तो अंग्रेजों ने 1760 में उसे हटाकर उसके दामाद मीर कासिम (Mir Qasim) को नवाब बना दिया। अंग्रेजों को लगा कि मीर कासिम भी एक कठपुतली साबित होगा।

मीर कासिम के सुधार और अंग्रेजों से टकराव (Mir Qasim’s Reforms and Conflict with the British)

लेकिन मीर कासिम एक योग्य और स्वाभिमानी शासक था। उसने बंगाल की स्थिति सुधारने के लिए कई कदम उठाए। उसने अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर स्थानांतरित कर दी ताकि कंपनी के हस्तक्षेप से बच सके। उसने अपनी सेना को यूरोपीय तर्ज पर प्रशिक्षित किया और भ्रष्टाचार को रोकने की कोशिश की। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उसने कंपनी द्वारा ‘दस्तक’ (tax-free trade pass) के दुरुपयोग को रोकने का प्रयास किया, जिससे भारतीय व्यापारियों को भारी नुकसान हो रहा था। यही कदम अंग्रेजों के साथ उसके टकराव का मुख्य कारण बना।

बक्सर के युद्ध की पृष्ठभूमि (Background of the Battle of Buxar)

जब मीर कासिम ने सभी व्यापारियों (भारतीय और ब्रिटिश) के लिए व्यापार को कर-मुक्त कर दिया, तो अंग्रेजों को यह नागवार गुजरा क्योंकि इससे उनका विशेष लाभ समाप्त हो गया। अंग्रेजों ने मीर कासिम के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। कई छोटी-मोटी लड़ाइयों में हारने के बाद, मीर कासिम बंगाल से भागकर अवध पहुंचा। वहां उसने अवध के नवाब शुजा-उद-दौला और तत्कालीन मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय (Shah Alam II) के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ एक शक्तिशाली गठबंधन बनाया।

बक्सर का युद्ध (22 अक्टूबर, 1764) (The Battle of Buxar (22 October 1764))

22 अक्टूबर, 1764 को बिहार के बक्सर नामक स्थान पर भारतीय गठबंधन की संयुक्त सेना और हेक्टर मुनरो के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ। प्लासी के विपरीत, यह लड़ाई एक वास्तविक सैन्य संघर्ष था। भारतीय गठबंधन की सेना संख्या में बहुत बड़ी थी, लेकिन ब्रिटिश सेना बेहतर प्रशिक्षित, अनुशासित और आधुनिक हथियारों से लैस थी। इस युद्ध में, ब्रिटिश सेना ने भारतीय गठबंधन को निर्णायक रूप से पराजित कर दिया। ⚔️

युद्ध के परिणाम और इलाहाबाद की संधि (Consequences of the War and the Treaty of Allahabad)

बक्सर की लड़ाई के परिणाम प्लासी से भी अधिक महत्वपूर्ण थे। इसने उत्तरी भारत में ब्रिटिश सैन्य श्रेष्ठता को स्थापित कर दिया। युद्ध के बाद, रॉबर्ट क्लाइव को फिर से बंगाल का गवर्नर बनाया गया और उसने 1765 में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय और अवध के नवाब शुजा-उद-दौला के साथ इलाहाबाद की संधि (Treaty of Allahabad) पर हस्ताक्षर किए। यह संधि भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना में एक मील का पत्थर साबित हुई।

इलाहाबाद की संधि के प्रावधान (Provisions of the Treaty of Allahabad)

इस संधि के तहत: (1) मुगल बादशाह ने कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की ‘दीवानी’ (राजस्व वसूलने का अधिकार) प्रदान कर दी। इसके बदले में, कंपनी बादशाह को 26 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन देगी। (2) अवध के नवाब को उसका राज्य वापस कर दिया गया, लेकिन उसे युद्ध के हर्जाने के रूप में 50 लाख रुपये देने पड़े और उसने इलाहाबाद और कड़ा के जिले मुगल बादशाह को दे दिए। (3) कंपनी ने अवध की रक्षा की गारंटी ली, जिसके बदले में नवाब को ब्रिटिश सेना का खर्च उठाना था।

बक्सर का ऐतिहासिक महत्व (Historical Significance of Buxar)

यदि प्लासी की लड़ाई ने अंग्रेजों के लिए बंगाल का दरवाजा खोला, तो बक्सर की लड़ाई ने उन्हें पूरे उत्तरी भारत का मालिक बना दिया। प्लासी एक धोखा था, लेकिन बक्सर एक वास्तविक सैन्य जीत थी जिसने अंग्रेजों की श्रेष्ठता को सिद्ध किया। दीवानी अधिकार (Diwani rights) मिलने से कंपनी को भारत के राजस्व पर कानूनी नियंत्रण मिल गया, जिसका उपयोग उन्होंने अपनी सेना को मजबूत करने और भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए किया। इस प्रकार, बक्सर की लड़ाई ने भारत में ब्रिटिश सत्ता की वास्तविक स्थापना की।

ब्रिटिश का सत्ताकरण और प्रशासनिक नियंत्रण (British Consolidation of Power and Administrative Control)

बंगाल में द्वैध शासन प्रणाली (Dual Government System in Bengal)

बक्सर की लड़ाई के बाद, रॉबर्ट क्लाइव ने 1765 में बंगाल में एक अजीबोगरीब प्रशासनिक व्यवस्था लागू की, जिसे ‘द्वैध शासन’ (Dual Government) के नाम से जाना जाता है। इस प्रणाली के तहत, प्रशासन को दो भागों में बांटा गया: ‘दीवानी’ (राजस्व और न्याय) और ‘निजामत’ (प्रशासनिक और सैन्य नियंत्रण)। कंपनी ने दीवानी का अधिकार अपने पास रखा, जबकि निजामत का काम बंगाल के नवाब पर छोड़ दिया।

द्वैध शासन के विनाशकारी परिणाम (Disastrous Consequences of Dual Government)

यह व्यवस्था बहुत चालाकी से बनाई गई थी। कंपनी के पास अधिकार तो सारे थे (पैसा वसूलने का), लेकिन जिम्मेदारी कोई नहीं थी। वहीं, नवाब के पास जिम्मेदारी तो थी (कानून-व्यवस्था बनाए रखने की), लेकिन अधिकार और पैसा नहीं था। इसका परिणाम विनाशकारी हुआ। कंपनी के अधिकारी और कर्मचारी भ्रष्टाचार में डूब गए और किसानों से बेरहमी से लगान वसूलने लगे। इस लूट और कुप्रशासन के कारण 1770 में बंगाल में एक भयानक अकाल पड़ा, जिसमें लगभग एक तिहाई आबादी मारी गई। 😥

कंपनी पर ब्रिटिश संसद का नियंत्रण (Control of the British Parliament over the Company)

बंगाल में कंपनी के अधिकारियों के भ्रष्टाचार और द्वैध शासन की विफलता की खबरें जब ब्रिटेन पहुंचीं, तो वहां हड़कंप मच गया। ब्रिटिश सरकार को यह महसूस हुआ कि अब एक व्यापारिक कंपनी को इतने बड़े क्षेत्र पर शासन करने के लिए खुला नहीं छोड़ा जा सकता। इसलिए, ब्रिटिश संसद ने कंपनी की गतिविधियों को नियंत्रित और विनियमित करने के लिए कानून बनाना शुरू किया। यहीं से भारत में ब्रिटिश प्रशासनिक नियंत्रण (administrative control) का एक नया चरण शुरू हुआ।

रेग्युलेटिंग एक्ट, 1773 (The Regulating Act, 1773)

यह ब्रिटिश संसद द्वारा भारत में कंपनी के मामलों में पहला बड़ा हस्तक्षेप था। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान थे: (1) बंगाल के गवर्नर को ‘गवर्नर-जनरल’ बना दिया गया और बॉम्बे तथा मद्रास के गवर्नर उसके अधीन कर दिए गए। वारेन हेस्टिंग्स पहले गवर्नर-जनरल बने। (2) गवर्नर-जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक कार्यकारी परिषद बनाई गई। (3) कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई। इस एक्ट ने कंपनी के शासन में एक केंद्रीयकृत प्रशासन की नींव रखी।

पिट्स इंडिया एक्ट, 1784 (Pitt’s India Act, 1784)

रेग्युलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के लिए 1784 में पिट्स इंडिया एक्ट पारित किया गया। इस अधिनियम ने कंपनी के वाणिज्यिक (व्यापारिक) और राजनीतिक कार्यों को अलग कर दिया। व्यापारिक मामलों के लिए ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ को जिम्मेदार बनाया गया, जबकि राजनीतिक मामलों (सैन्य, नागरिक और राजस्व) को नियंत्रित करने के लिए ब्रिटेन में ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ (Board of Control) नामक एक नई संस्था का गठन किया गया। इस बोर्ड के माध्यम से, ब्रिटिश सरकार का कंपनी के भारतीय प्रशासन पर सीधा नियंत्रण स्थापित हो गया।

चार्टर अधिनियम (Charter Acts)

इसके बाद, ब्रिटिश संसद हर 20 साल में कंपनी के चार्टर को नवीनीकृत करने के लिए चार्टर अधिनियम पारित करती रही। 1813 के चार्टर एक्ट ने भारत में कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को (चाय और चीन के साथ व्यापार को छोड़कर) समाप्त कर दिया और अन्य ब्रिटिश व्यापारियों के लिए भी भारत के दरवाजे खोल दिए। 1833 के चार्टर एक्ट ने कंपनी को एक विशुद्ध प्रशासनिक निकाय बना दिया और उसके व्यापारिक एकाधिकार को पूरी तरह से समाप्त कर दिया। इसने भारत में ब्रिटिश शासन के केंद्रीकरण को और मजबूत किया।

प्रशासनिक ढांचे का विकास (Development of the Administrative Framework)

इन अधिनियमों के माध्यम से, अंग्रेजों ने भारत में एक मजबूत और केंद्रीकृत प्रशासनिक ढांचा खड़ा किया। उन्होंने सिविल सेवा (Civil Services), पुलिस (Police), न्यायपालिका (Judiciary) और एक स्थायी सेना (Standing Army) का गठन किया। इस नौकरशाही का उद्देश्य भारत में ब्रिटिश शासन को बनाए रखना, राजस्व एकत्र करना और कानून-व्यवस्था सुनिश्चित करना था। इस तरह, धीरे-धीरे एक व्यापारिक कंपनी का शासन ब्रिटिश क्राउन (British Crown) के शासन में परिवर्तित होता गया।

ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार: नीतियां और युद्ध (Expansion of the British Empire: Policies and Wars)

विस्तार की आवश्यकता (The Need for Expansion)

18वीं शताब्दी के अंत तक, ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल में अपनी सत्ता मजबूत कर चुकी थी, लेकिन अब उनकी नजरें शेष भारत पर थीं। अपने व्यापारिक हितों की रक्षा करने, कच्चे माल के स्रोतों पर कब्जा करने और अपने उत्पादों के लिए नए बाजार खोजने के लिए, उन्होंने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करने का निर्णय लिया। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, उन्होंने दो मुख्य रणनीतियां अपनाईं: सीधी लड़ाई (युद्ध) और कूटनीतिक नीतियां। 🗺️

लॉर्ड वेलेजली और सहायक संधि प्रणाली (Lord Wellesley and the Subsidiary Alliance System)

गवर्नर-जनरल लॉर्ड वेलेजली (1798-1805) ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए ‘सहायक संधि’ (Subsidiary Alliance) नामक एक बहुत ही चालाक नीति का आविष्कार किया। इस संधि के तहत, जो भी भारतीय शासक इसे स्वीकार करता था, उसे अपनी रियासत में एक ब्रिटिश सेना की टुकड़ी रखनी पड़ती थी, जिसका खर्च वह शासक स्वयं उठाता था। इसके बदले में, कंपनी उसे बाहरी आक्रमणों और आंतरिक विद्रोहों से बचाने का वादा करती थी।

सहायक संधि का मकड़जाल (The Web of Subsidiary Alliance)

यह संधि वास्तव में एक मीठा जहर थी। इसे स्वीकार करने वाले शासक को अपने दरबार में एक ब्रिटिश ‘रेजिडेंट’ भी रखना पड़ता था और वह अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी अन्य यूरोपीय से संबंध नहीं रख सकता था। धीरे-धीरे, शासक अपनी सैन्य और विदेश नीति की स्वतंत्रता खो देता था और पूरी तरह से अंग्रेजों पर निर्भर हो जाता था। हैदराबाद के निजाम (1798) इस संधि को स्वीकार करने वाले पहले शासक थे, जिसके बाद अवध, मैसूर, तंजौर और मराठा सरदारों ने भी इसे स्वीकार कर लिया।

आंग्ल-मैसूर युद्ध (Anglo-Mysore Wars)

दक्षिण भारत में, मैसूर राज्य हैदर अली और उसके बेटे टीपू सुल्तान के नेतृत्व में एक बड़ी चुनौती था। वे अंग्रेजों के कट्टर दुश्मन थे और उन्होंने फ्रांसीसियों से भी मदद ली थी। अंग्रेजों और मैसूर के बीच चार भयंकर युद्ध हुए (1767-1799)। चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799) में, टीपू सुल्तान अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इसके बाद अंग्रेजों ने मैसूर पर कब्जा कर लिया और वहां भी सहायक संधि थोप दी। 🐅

आंग्ल-मराठा युद्ध (Anglo-Maratha Wars)

18वीं शताब्दी के अंत में, मराठा साम्राज्य भारत की सबसे बड़ी शक्ति थी, लेकिन वे आपसी फूट और षड्यंत्रों के शिकार थे। अंग्रेजों ने उनकी इस कमजोरी का पूरा फायदा उठाया। अंग्रेजों और मराठों के बीच तीन युद्ध हुए (1775-1818)। तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-18) में, अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय को निर्णायक रूप से हराया और मराठा साम्राज्य का अंत कर दिया। इसके बाद, अधिकांश मराठा क्षेत्र सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया।

लॉर्ड डलहौजी और व्यपगत का सिद्धांत (Lord Dalhousie and the Doctrine of Lapse)

गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी (1848-1856) ने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार को अपने चरम पर पहुंचाया। उसने ‘व्यपगत का सिद्धांत’ या ‘हड़प नीति’ (Doctrine of Lapse) नामक एक आक्रामक नीति अपनाई। इस सिद्धांत के अनुसार, यदि किसी संरक्षित राज्य का शासक बिना किसी प्राकृतिक (जैविक) पुरुष उत्तराधिकारी के मर जाता था, तो उसका राज्य स्वतः ही ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया जाता था। गोद लिए हुए पुत्र को उत्तराधिकार का अधिकार नहीं दिया गया।

हड़प नीति के शिकार राज्य (States Annexed under the Doctrine of Lapse)

इस अन्यायपूर्ण नीति का उपयोग करके, डलहौजी ने कई भारतीय राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। इनमें सतारा (1848), जैतपुर और संबलपुर (1849), बघाट (1850), उदयपुर (1852), झांसी (1853), और नागपुर (1854) प्रमुख थे। इसके अलावा, डलहौजी ने 1856 में अवध पर कुशासन का आरोप लगाकर उसे भी ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया, जिसने 1857 के विद्रोह की आग में घी का काम किया। इन नीतियों और युद्धों के माध्यम से, 19वीं शताब्दी के मध्य तक लगभग पूरा भारत ब्रिटिश नियंत्रण में आ चुका था।

ब्रिटिश शासन की राजनीतिक और आर्थिक नीतियाँ (Political and Economic Policies of British Rule)

प्रशासनिक नीतियां: भारत पर पकड़ मजबूत करना (Administrative Policies: Strengthening the Grip on India)

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश पर शासन करने के लिए, अंग्रेजों ने एक मजबूत और केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली विकसित की। इस प्रणाली का मूल उद्देश्य भारत पर अपनी पकड़ बनाए रखना, राजस्व की वसूली को अधिकतम करना और ब्रिटिश हितों को साधना था। उन्होंने भारतीय समाज की पारंपरिक संरचनाओं को तोड़कर एक आधुनिक नौकरशाही की स्थापना की, जो पूरी तरह से उनके प्रति वफादार थी।

सिविल सेवा का गठन (Formation of the Civil Service)

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस को ‘भारत में सिविल सेवा का जनक’ माना जाता है। उन्होंने कंपनी के प्रशासन से भ्रष्टाचार को खत्म करने और इसे कुशल बनाने के लिए ‘भारतीय सिविल सेवा’ (Indian Civil Service – ICS) की शुरुआत की। प्रारंभ में, इसमें केवल ब्रिटिश अधिकारियों की भर्ती की जाती थी और भारतीयों को उच्च पदों से दूर रखा जाता था। यह ‘स्टील फ्रेम’ (इस्पात का ढांचा) था जिसने पूरे भारत में ब्रिटिश राज को प्रभावी ढंग से चलाया।

पुलिस और न्याय व्यवस्था (Police and Judicial System)

कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए, कॉर्नवॉलिस ने एक आधुनिक पुलिस प्रणाली की भी स्थापना की, जिसमें जिलों में दरोगा की नियुक्ति की गई। न्याय के क्षेत्र में, उन्होंने कानूनों को संहिताबद्ध (codified) किया और दीवानी (Civil) तथा फौजदारी (Criminal) अदालतों की एक श्रृंखला स्थापित की। हालांकि यह व्यवस्था कानून के शासन (Rule of Law) पर आधारित थी, लेकिन इसमें अक्सर अंग्रेजों और भारतीयों के बीच भेदभाव किया जाता था।

आर्थिक नीतियां: भारत का शोषण (Economic Policies: The Exploitation of India)

ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियाँ (economic policies) पूरी तरह से शोषणकारी थीं। उनका एकमात्र लक्ष्य भारत के संसाधनों का उपयोग करके इंग्लैंड को समृद्ध बनाना था। इन नीतियों ने भारत की पारंपरिक अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया और उसे एक औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में बदल दिया, जो पूरी तरह से ब्रिटिश हितों पर निर्भर थी। इस प्रक्रिया को ‘धन की निकासी’ (Drain of Wealth) के रूप में जाना जाता है। 💸

भू-राजस्व प्रणालियाँ (Land Revenue Systems)

अंग्रेजों ने अधिकतम राजस्व वसूलने के लिए भारत के विभिन्न हिस्सों में तीन प्रकार की भू-राजस्व प्रणालियाँ लागू कीं: 1. **स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement):** 1793 में कॉर्नवॉलिस द्वारा बंगाल, बिहार और उड़ीसा में लागू किया गया। इसमें जमींदारों को भूमि का मालिक बनाया गया और उन्हें एक निश्चित राशि सरकार को देनी होती थी। इसने किसानों का अत्यधिक शोषण किया। 2. **रैयतवाड़ी प्रणाली (Ryotwari System):** दक्षिण और पश्चिम भारत में लागू। इसमें सरकार सीधे किसानों (रैयतों) से लगान वसूल करती थी। लगान की दर बहुत अधिक थी। 3. **महलवाड़ी प्रणाली (Mahalwari System):** उत्तर-पश्चिम भारत में लागू। इसमें पूरे गांव या ‘महल’ से सामूहिक रूप से लगान वसूला जाता था।

भारतीय उद्योगों का विनाश (De-industrialization of India)

ब्रिटिश नीतियों ने भारत के विश्व प्रसिद्ध हस्तशिल्प और कपड़ा उद्योग को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया। उन्होंने भारतीय वस्तुओं पर भारी निर्यात शुल्क लगाया, जबकि ब्रिटेन में मशीनों से बने सस्ते कपड़ों को भारत में लगभग कर-मुक्त कर दिया। इससे भारतीय कारीगर और बुनकर बेरोजगार हो गए और भारत इंग्लैंड के कारखानों के लिए सिर्फ कच्चा माल (कपास, नील) भेजने वाला और वहां से तैयार माल खरीदने वाला एक बाजार बनकर रह गया।

कृषि का वाणिज्यीकरण (Commercialization of Agriculture)

अंग्रेजों ने किसानों को पारंपरिक खाद्य फसलों (जैसे चावल, गेहूं) के बजाय नकदी फसलों (commercial crops) जैसे नील, कपास, अफीम और चाय उगाने के लिए मजबूर किया। इन फसलों की ब्रिटेन के उद्योगों में बहुत मांग थी। इससे भारत में खाद्यान्न की कमी हो गई और बार-बार अकाल पड़ने लगे। कृषि का वाणिज्यीकरण किसानों के लिए नहीं, बल्कि ब्रिटिश व्यापारियों और उद्योगपतियों के लाभ के लिए किया गया था।

सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव (Social, Religious, and Cultural Impact)

प्रारंभिक अहस्तक्षेप की नीति (Initial Policy of Non-Interference)

शुरुआत में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के सामाजिक और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई। उनका मुख्य ध्यान व्यापार और लाभ कमाने पर था, और वे भारतीय रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप करके किसी भी तरह के सामाजिक विद्रोह का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। वे जानते थे कि भारतीय समाज अपनी परंपराओं और धर्म को लेकर बहुत संवेदनशील है, इसलिए उन्होंने यथास्थिति बनाए रखना ही उचित समझा।

हस्तक्षेप की नीति का उदय (The Rise of the Policy of Interference)

19वीं शताब्दी की शुरुआत में, ब्रिटेन में कुछ नई विचारधाराओं का उदय हुआ, जैसे उपयोगितावाद (Utilitarianism) और इंजीलवाद (Evangelicalism)। इन विचारधाराओं के समर्थक मानते थे कि भारतीय समाज पिछड़ा, बर्बर और अंधविश्वासी है और इसे ‘सभ्य’ बनाना अंग्रेजों का कर्तव्य है। इसी “व्हाइट मैन्स बर्डन” (White Man’s Burden) की सोच के तहत, ब्रिटिश सरकार ने भारत में सामाजिक सुधारों की एक श्रृंखला शुरू की।

सकारात्मक सामाजिक सुधार (Positive Social Reforms)

राजा राम मोहन राय जैसे भारतीय समाज सुधारकों के प्रयासों और दबाव के कारण, अंग्रेजों ने कुछ प्रगतिशील कदम उठाए। 1829 में लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने सती प्रथा (Sati practice) पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसमें विधवाओं को अपने पति की चिता पर जिंदा जला दिया जाता था। इसके अलावा, 1856 में लॉर्ड डलहौजी के समय में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के प्रयासों से ‘विधवा पुनर्विवाह अधिनियम’ (Widow Remarriage Act) पारित किया गया, जिसने विधवाओं को फिर से शादी करने का कानूनी अधिकार दिया।

अन्य सामाजिक कानून (Other Social Legislations)

अंग्रेजों ने कुछ अन्य कुप्रथाओं को भी समाप्त करने का प्रयास किया। उन्होंने शिशु हत्या (female infanticide) और मानव बलि (human sacrifice) जैसी प्रथाओं के खिलाफ भी कड़े कानून बनाए। हालांकि ये सुधार मानवीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थे, लेकिन कई रूढ़िवादी भारतीयों ने इन्हें अपने सामाजिक और धार्मिक मामलों में एक अनुचित हस्तक्षेप माना, जिससे समाज में असंतोष भी पैदा हुआ।

शिक्षा नीति: मैकाले का दृष्टिकोण (Education Policy: Macaulay’s Vision)

भारत में ब्रिटिश शासन का सबसे दूरगामी प्रभाव उनकी शिक्षा नीति के माध्यम से पड़ा। 1835 में, लॉर्ड मैकाले ने अपनी प्रसिद्ध ‘मिनट ऑन इंडियन एजुकेशन’ (Minute on Indian Education) प्रस्तुत की, जिसमें उन्होंने पारंपरिक भारतीय शिक्षा प्रणाली (संस्कृत और फारसी) की आलोचना की और अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पश्चिमी शिक्षा को बढ़ावा देने की वकालत की। उनका उद्देश्य “रंग और खून से भारतीय, लेकिन स्वाद, विचार, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज” लोगों का एक वर्ग बनाना था, जो सरकार और भारतीयों के बीच दुभाषिए का काम कर सके। 🎓

अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव (Impact of English Education)

अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय समाज पर दोहरा प्रभाव डाला। एक ओर, इसने भारतीयों को पश्चिमी विचारों जैसे स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र और राष्ट्रवाद से परिचित कराया, जिसने भविष्य में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया। दूसरी ओर, इसने भारतीय भाषाओं और ज्ञान प्रणालियों को हाशिए पर डाल दिया और एक अंग्रेजी-शिक्षित अभिजात वर्ग और आम जनता के बीच एक गहरी खाई पैदा कर दी।

ईसाई मिशनरियों की भूमिका (Role of Christian Missionaries)

1813 के चार्टर एक्ट के बाद, ईसाई मिशनरियों को भारत में आने और धर्म प्रचार करने की अनुमति दे दी गई। उन्होंने स्कूल और अस्पताल खोले और शिक्षा तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया। हालांकि, उनके धर्मांतरण के प्रयासों ने कई भारतीयों को नाराज कर दिया, जिन्हें लगा कि अंग्रेज उनके धर्म को नष्ट करना चाहते हैं। यह भी 1857 के विद्रोह के प्रमुख कारणों में से एक बना।

सांस्कृतिक टकराव और परिवर्तन (Cultural Conflict and Transformation)

ब्रिटिश शासन ने भारतीय कला, वास्तुकला, साहित्य और जीवन शैली पर गहरा प्रभाव डाला। रेलवे, डाक और टेलीग्राफ जैसी नई तकनीकों ने भारत को भौतिक रूप से जोड़ा, लेकिन साथ ही साथ पश्चिमी संस्कृति के प्रसार को भी सुगम बनाया। इस सांस्कृतिक आदान-प्रदान और टकराव ने एक नई मिश्रित संस्कृति को जन्म दिया, लेकिन इसने भारतीय समाज में पहचान के संकट और आत्म-चिंतन की एक लंबी प्रक्रिया भी शुरू की।

ऐतिहासिक महत्ता और निष्कर्ष (Historical Significance and Conclusion)

एक व्यापारिक कंपनी से साम्राज्य तक (From a Trading Company to an Empire)

भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना (establishment of British rule in India) की कहानी वास्तव में असाधारण है। यह दिखाती है कि कैसे एक निजी व्यापारिक कंपनी ने कूटनीति, साजिश और सैन्य शक्ति के बल पर दुनिया के सबसे धनी और विशाल देशों में से एक पर कब्जा कर लिया। प्लासी और बक्सर की लड़ाइयों ने इस प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका निभाई, जिसने अंग्रेजों को व्यापारिक शक्ति से राजनीतिक शासक में बदल दिया।

ब्रिटिश शासन का दोहरा चरित्र (The Dual Character of British Rule)

ब्रिटिश शासन के प्रभाव का मूल्यांकन करना एक जटिल कार्य है, क्योंकि इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू थे। एक ओर, अंग्रेजों ने भारत को एक राजनीतिक और प्रशासनिक एकता प्रदान की। उन्होंने रेलवे, डाक-तार, आधुनिक न्यायपालिका और एक समान कानून प्रणाली की शुरुआत की। सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त किया। इन परिवर्तनों ने अनजाने में ही सही, आधुनिक भारत की नींव रखी।

शोषण और गरीबी की विरासत (The Legacy of Exploitation and Poverty)

दूसरी ओर, ब्रिटिश शासन का मूल उद्देश्य भारत का आर्थिक शोषण करना था। उनकी नीतियों ने भारत के पारंपरिक उद्योगों को नष्ट कर दिया, कृषि को बर्बाद कर दिया और ‘धन की निकासी’ के माध्यम से भारत को गरीब बना दिया। जो देश कभी ‘सोने की चिड़िया’ था, वह उनकी हुकूमत के अंत तक दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक बन गया। यह शोषण और गरीबी ब्रिटिश शासन की सबसे अंधकारमय विरासत है।

राष्ट्रवाद का उदय (The Rise of Nationalism)

विडंबना यह है कि ब्रिटिश शासन ने ही अपने पतन के बीज बोए। अंग्रेजों द्वारा लाए गए राजनीतिक और प्रशासनिक एकीकरण, पश्चिमी शिक्षा और आधुनिक विचारों ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया। रेलवे और प्रेस ने देश के विभिन्न हिस्सों के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ा। अंग्रेजों के भेदभावपूर्ण और नस्लवादी व्यवहार ने भारतीयों को यह एहसास दिलाया कि वे एक हैं और उनका दुश्मन भी एक है। इसी भावना ने 19वीं शताब्दी के अंत में भारतीय राष्ट्रवाद (Indian Nationalism) को जन्म दिया।

अंतिम निष्कर्ष (Final Conclusion)

अंततः, भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना एक ऐसी ऐतिहासिक घटना थी जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के भाग्य को हमेशा के लिए बदल दिया। यह हमें सिखाता है कि राजनीतिक फूट और आंतरिक कमजोरी कैसे एक देश को विदेशी शक्तियों का गुलाम बना सकती है। साथ ही, यह हमें यह भी दिखाता है कि शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने की भावना कैसे एक राष्ट्र को एकजुट कर सकती है। भारत का स्वतंत्रता संग्राम इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की उपज थी। इस इतिहास को समझना न केवल परीक्षा के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि एक जागरूक नागरिक बनने के लिए भी आवश्यक है। जय हिन्द! 🇮🇳

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