भारत की बजट और वित्तीय नीतियाँ (Budget and Financial Policies)
भारत की बजट और वित्तीय नीतियाँ (Budget and Financial Policies)

भारत की बजट और वित्तीय नीतियाँ (Budget and Financial Policies)

विषयसूची (Table of Contents)

परिचय: बजट और वित्तीय नीतियों को समझना 📖 (Introduction: Understanding Budget and Financial Policies)

राष्ट्र के वित्तीय रोडमैप का परिचय (Introduction to the Nation’s Financial Roadmap)

नमस्ते दोस्तों! 👋 क्या आपने कभी सोचा है कि सरकार सड़कें, स्कूल, अस्पताल कैसे बनाती है और देश की रक्षा कैसे करती है? इन सभी कामों के लिए बहुत सारे पैसों की जरूरत होती है। सरकार इन पैसों का हिसाब-किताब कैसे रखती है, इसी का नाम ‘बजट’ है। यह लेख ‘भारत की बजट और वित्तीय नीतियाँ’ पर एक विस्तृत मार्गदर्शिका है, जो आपको देश की अर्थव्यवस्था (economy) की रीढ़ की हड्डी को समझने में मदद करेगी। हम यहाँ बजट की बारीकियों और वित्तीय नीतियों के महत्व को सरल भाषा में समझाएंगे।

छात्रों के लिए विषय का महत्व (Importance of the Topic for Students)

एक छात्र और देश के भविष्य के नागरिक के रूप में, आपके लिए यह समझना बहुत ज़रूरी है कि सरकार पैसे कहाँ से कमाती है और कहाँ खर्च करती है। यह ज्ञान आपको एक जागरूक नागरिक बनाता है और आपको सरकारी नीतियों के प्रभाव का विश्लेषण करने में सक्षम बनाता है। बजट और वित्तीय नीतियाँ (Budget and Financial Policies) सीधे तौर पर आपकी शिक्षा, रोजगार के अवसरों और भविष्य की संभावनाओं को प्रभावित करती हैं। इस लेख के माध्यम से, हम इन जटिल विषयों को आपके लिए आसान और रोचक बनाने का प्रयास करेंगे।

आर्थिक साक्षरता की ओर पहला कदम (First Step Towards Economic Literacy)

यह लेख आपको भारत की आर्थिक संरचना (economic structure) की गहरी समझ प्रदान करेगा। हम बजट के विभिन्न पहलुओं, जैसे राजस्व, व्यय, घाटा, और इसे बनाने की प्रक्रिया पर विस्तार से चर्चा करेंगे। इसके अलावा, हम सरकार की वित्तीय नीतियों, जैसे कर नीति और सब्सिडी, पर भी प्रकाश डालेंगे और देखेंगे कि ये नीतियां आम आदमी के जीवन को कैसे प्रभावित करती हैं। तो चलिए, भारत की अर्थव्यवस्था की इस रोमांचक यात्रा पर निकलते हैं! 🚀

बजट क्या है और यह क्यों महत्वपूर्ण है? 💼 (What is a Budget and Why is it Important?)

बजट की सरल परिभाषा (Simple Definition of a Budget)

सरल शब्दों में, बजट एक वित्तीय वर्ष (financial year) के लिए सरकार की अनुमानित आय (estimated income) और व्यय (estimated expenditure) का एक विस्तृत लेखा-जोखा होता है। भारत में, वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से शुरू होकर अगले साल 31 मार्च को समाप्त होता है। यह एक दस्तावेज़ से कहीं ज़्यादा है; यह सरकार की योजनाओं, प्राथमिकताओं और देश के प्रति उसकी दृष्टि का प्रतिबिंब है। इसे सरकार का वार्षिक वित्तीय विवरण (Annual Financial Statement) भी कहा जाता है।

संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 112 (Constitutional Provision: Article 112)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 112 के तहत, राष्ट्रपति को प्रत्येक वित्तीय वर्ष के संबंध में संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के समक्ष सरकार की अनुमानित प्राप्तियों और व्यय का विवरण प्रस्तुत करवाना अनिवार्य है। इसी दस्तावेज़ को ‘वार्षिक वित्तीय विवरण’ या आम बोलचाल में ‘बजट’ कहा जाता है। यह संवैधानिक बाध्यता (constitutional obligation) सरकार को वित्तीय रूप से जवाबदेह बनाती है और पारदर्शिता सुनिश्चित करती है।

सरकारी बजट के मुख्य उद्देश्य (Main Objectives of the Government Budget)

सरकार का बजट केवल आय और व्यय का हिसाब नहीं है, बल्कि इसके कई व्यापक उद्देश्य होते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य संसाधनों का पुन: आवंटन (reallocation of resources) करना है, ताकि सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। इसमें गरीबी और बेरोजगारी को कम करना, आर्थिक असमानता को दूर करना और देश के विभिन्न क्षेत्रों का संतुलित विकास सुनिश्चित करना शामिल है।

आर्थिक स्थिरता और विकास (Economic Stability and Growth)

बजट का एक और महत्वपूर्ण उद्देश्य देश में आर्थिक स्थिरता (economic stability) बनाए रखना है। सरकार बजट के माध्यम से मुद्रास्फीति (inflation) यानी महंगाई और अपस्फीति (deflation) यानी मंदी जैसी स्थितियों को नियंत्रित करने का प्रयास करती है। इसके अलावा, सार्वजनिक निवेश (public investment) को बढ़ाकर और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करके आर्थिक विकास (economic growth) को गति देना भी बजट का एक प्रमुख लक्ष्य है।

सार्वजनिक उपक्रमों का प्रबंधन (Management of Public Enterprises)

सरकार कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (Public Sector Undertakings – PSUs) जैसे कि रेलवे, तेल कंपनियाँ आदि का संचालन करती है। बजट इन उपक्रमों के प्रबंधन और उनके वित्तीय प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए नीतियां और धन आवंटित करता है। इन कंपनियों से होने वाला लाभ सरकार की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत होता है, जिसे फिर देश के विकास में लगाया जाता है। यह बजट और वित्तीय नीतियाँ का एक अभिन्न अंग है।

भारत के बजट के प्रमुख घटक 🏛️ (Key Components of India’s Budget)

बजट का संरचनात्मक विभाजन (Structural Division of the Budget)

सरकारी बजट को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जाता है: राजस्व बजट (Revenue Budget) और पूंजीगत बजट (Capital Budget)। यह विभाजन सरकार के लेन-देन की प्रकृति पर आधारित है – क्या वे आवर्ती (recurring) हैं या गैर-आवर्ती (non-recurring) और क्या वे संपत्ति या देनदारियों को प्रभावित करते हैं। इन दोनों घटकों को समझना पूरे बजट को समझने की कुंजी है। आइए, इन्हें एक-एक करके विस्तार से देखें।

राजस्व बजट (Revenue Budget)

राजस्व बजट में सरकार की राजस्व प्राप्तियों (revenue receipts) और राजस्व व्यय (revenue expenditure) का विवरण होता है। ये वे लेन-देन हैं जो सरकार की संपत्ति (assets) या देनदारियों (liabilities) पर कोई प्रभाव नहीं डालते हैं। ये आमतौर पर प्रकृति में आवर्ती होते हैं, यानी ये हर साल होते हैं। यह सरकार के दिन-प्रतिदिन के कामकाज से संबंधित होता है।

राजस्व प्राप्तियाँ: सरकार की आय (Revenue Receipts: The Government’s Income)

राजस्व प्राप्तियाँ वे आय हैं जो सरकार को विभिन्न स्रोतों से नियमित रूप से प्राप्त होती हैं और जिनसे सरकार पर कोई देनदारी नहीं बनती। इन्हें आगे दो भागों में बांटा गया है: कर राजस्व (Tax Revenue) और गैर-कर राजस्व (Non-Tax Revenue)। कर राजस्व सरकार की आय का सबसे बड़ा स्रोत है, जिसमें आयकर, जीएसटी आदि शामिल हैं।

राजस्व व्यय: दिन-प्रतिदिन के खर्चे (Revenue Expenditure: Day-to-Day Expenses)

राजस्व व्यय सरकार का वह खर्च है जिससे न तो किसी संपत्ति का निर्माण होता है और न ही किसी देनदारी में कमी आती है। इसमें सरकारी कर्मचारियों के वेतन और पेंशन, ब्याज भुगतान, राज्यों को दिए जाने वाले अनुदान और सब्सिडी जैसे खर्चे शामिल हैं। यह खर्च देश के प्रशासन और नागरिकों को दी जाने वाली आवश्यक सेवाओं को चलाने के लिए अनिवार्य है।

पूंजीगत बजट (Capital Budget)

पूंजीगत बजट में सरकार की पूंजीगत प्राप्तियाँ (capital receipts) और पूंजीगत व्यय (capital expenditure) शामिल होते हैं। ये वे लेन-देन हैं जो सरकार की संपत्ति और देनदारियों को प्रभावित करते हैं। ये आमतौर पर गैर-आवर्ती (non-recurring) प्रकृति के होते हैं और देश के आर्थिक विकास के लिए दीर्घकालिक निवेश से संबंधित होते हैं।

पूंजीगत प्राप्तियाँ: धन जुटाने के स्रोत (Capital Receipts: Sources of Raising Funds)

पूंजीगत प्राप्तियाँ वे होती हैं जिनसे या तो सरकार की देनदारी (liability) बनती है (जैसे उधार लेना) या उसकी संपत्ति (asset) कम होती है (जैसे सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचना)। इसके मुख्य स्रोतों में जनता, भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) या विदेशों से लिया गया ऋण, ऋणों की वसूली, और विनिवेश (disinvestment) शामिल हैं।

पूंजीगत व्यय: भविष्य के लिए निवेश (Capital Expenditure: Investment for the Future)

पूंजीगत व्यय वह खर्च है जिससे सरकार के लिए भौतिक या वित्तीय संपत्तियों का निर्माण होता है या उसकी देनदारियों में कमी आती है। इसमें स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, सड़कों, पुलों, हवाई अड्डों के निर्माण पर होने वाला खर्च, मशीनरी और उपकरण खरीदने पर खर्च और केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को दिए गए ऋण शामिल हैं। यह व्यय देश की उत्पादन क्षमता को बढ़ाता है।

राजस्व और व्यय का विस्तृत विश्लेषण 📊 (Detailed Analysis of Revenue and Expenditure)

राजस्व प्राप्तियों के स्रोत (Sources of Revenue Receipts)

जैसा कि हमने पहले चर्चा की, राजस्व प्राप्तियों को दो मुख्य श्रेणियों में बांटा गया है: कर राजस्व और गैर-कर राजस्व। राजस्व और व्यय (revenue and expenditure) का संतुलन किसी भी बजट की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है। इन दोनों स्रोतों को समझना यह जानने के लिए आवश्यक है कि सरकार अपने कार्यों के लिए धन कैसे जुटाती है। आइए इन पर गहराई से नज़र डालें।

कर राजस्व: प्रत्यक्ष कर (Tax Revenue: Direct Taxes)

प्रत्यक्ष कर (Direct Taxes) वे कर हैं जिनका भार उसी व्यक्ति या कंपनी पर पड़ता है जिस पर वे लगाए जाते हैं, यानी इन्हें किसी और पर टाला नहीं जा सकता। इसके प्रमुख उदाहरण हैं- आयकर (Income Tax), जो व्यक्तियों की आय पर लगता है, और निगम कर (Corporate Tax), जो कंपनियों के मुनाफे पर लगता है। इसके अलावा संपत्ति कर और उपहार कर भी प्रत्यक्ष कर की श्रेणी में आते हैं।

कर राजस्व: अप्रत्यक्ष कर (Tax Revenue: Indirect Taxes)

अप्रत्यक्ष कर (Indirect Taxes) वे कर हैं जो वस्तुओं और सेवाओं पर लगाए जाते हैं। इनका भार अंततः उपभोक्ताओं पर पड़ता है, क्योंकि निर्माता या विक्रेता कर की राशि को उत्पाद की कीमत में जोड़ देते हैं। भारत में सबसे बड़ा अप्रत्यक्ष कर वस्तु एवं सेवा कर (Goods and Services Tax – GST) है। इसके अलावा, सीमा शुल्क (Customs Duty) जो आयात और निर्यात पर लगता है, भी एक प्रमुख अप्रत्यक्ष कर है।

गैर-कर राजस्व (Non-Tax Revenue)

गैर-कर राजस्व सरकार की वह आय है जो करों के अलावा अन्य स्रोतों से प्राप्त होती है। इसमें सरकार द्वारा दिए गए ऋणों पर प्राप्त ब्याज, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSUs) से प्राप्त लाभांश (dividends) और लाभ, और सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं के लिए ली जाने वाली फीस और जुर्माना शामिल है। जैसे पासपोर्ट फीस, लाइसेंस फीस आदि।

व्यय का वर्गीकरण: योजना और गैर-योजना (Classification of Expenditure: Plan and Non-Plan)

पहले, सरकारी व्यय को योजना व्यय (Plan Expenditure) और गैर-योजना व्यय (Non-Plan Expenditure) में वर्गीकृत किया जाता था। योजना व्यय पंचवर्षीय योजनाओं के तहत निर्धारित कार्यक्रमों पर खर्च होता था, जबकि गैर-योजना व्यय अन्य सभी खर्चों को कवर करता था। हालाँकि, अब इस वर्गीकरण को समाप्त कर दिया गया है और व्यय को केवल राजस्व और पूंजीगत व्यय के रूप में देखा जाता है ताकि चीजों को सरल बनाया जा सके।

राजस्व व्यय के प्रमुख मद (Major Items of Revenue Expenditure)

सरकार के राजस्व व्यय का एक बड़ा हिस्सा कुछ प्रमुख मदों पर खर्च होता है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा ब्याज भुगतान (interest payments) का होता है, जो सरकार अपने द्वारा लिए गए ऋणों पर चुकाती है। इसके बाद रक्षा सेवाओं पर होने वाला खर्च, सब्सिडी (जैसे खाद्य, उर्वरक और पेट्रोलियम पर), और सरकारी कर्मचारियों के वेतन और पेंशन पर होने वाला खर्च आता है।

पूंजीगत व्यय का महत्व (Importance of Capital Expenditure)

पूंजीगत व्यय, जिसे ‘कैपेक्स’ (Capex) भी कहा जाता है, अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह देश में बुनियादी ढांचे (infrastructure) का निर्माण करता है, जिससे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है और रोजगार के नए अवसर पैदा होते हैं। एक अच्छा बजट हमेशा पूंजीगत व्यय पर जोर देता है, क्योंकि यह भविष्य के विकास की नींव रखता है और अर्थव्यवस्था में एक गुणक प्रभाव (multiplier effect) पैदा करता है।

भारत में बजटीय प्रक्रिया: एक चरण-दर-चरण मार्गदर्शिका 📝 (The Budgetary Process in India: A Step-by-Step Guide)

बजट निर्माण की तैयारी (Preparation of the Budget)

बजट बनाने की प्रक्रिया काफी लंबी और जटिल होती है। यह बजट पेश होने से लगभग 6 महीने पहले ही शुरू हो जाती है, आमतौर पर अगस्त-सितंबर में। वित्त मंत्रालय (Ministry of Finance) सभी मंत्रालयों, विभागों, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को एक सर्कुलर जारी करता है, जिसमें उन्हें आने वाले वर्ष के लिए अपने खर्चों और प्राप्तियों का अनुमान प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है। यह पूरी बजटीय प्रक्रिया (budgetary process) का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम है।

डेटा का संकलन और समीक्षा (Data Compilation and Review)

विभिन्न मंत्रालयों से अनुमान प्राप्त होने के बाद, वित्त मंत्रालय इन आंकड़ों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करता है। वह देश की समग्र आर्थिक स्थिति, प्राथमिकताओं और उपलब्ध संसाधनों को ध्यान में रखते हुए इन मांगों की समीक्षा करता है। इस प्रक्रिया में वित्त मंत्रालय और अन्य मंत्रालयों के बीच कई दौर की चर्चाएं होती हैं ताकि खर्चों को युक्तिसंगत बनाया जा सके और संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग सुनिश्चित किया जा सके।

बजट की प्रस्तुति (Presentation of the Budget)

एक बार बजट को अंतिम रूप दे दिए जाने के बाद, इसे संसद में प्रस्तुत किया जाता है। परंपरागत रूप से, केंद्रीय बजट फरवरी के अंतिम कार्य दिवस पर पेश किया जाता था, लेकिन 2017 से यह प्रथा बदल गई और अब इसे 1 फरवरी को पेश किया जाता है। वित्त मंत्री लोकसभा में बजट भाषण देते हैं, जिसमें वे सरकार की वित्तीय योजनाओं और नीतियों का खुलासा करते हैं।

संसद में आम बहस (General Discussion in Parliament)

बजट पेश होने के बाद, संसद के दोनों सदनों – लोकसभा और राज्यसभा – में इस पर एक आम बहस होती है। इस दौरान, सदस्य बजट के प्रस्तावों, राजकोषीय नीति (fiscal policy) और आर्थिक सर्वेक्षण (Economic Survey) पर चर्चा करते हैं। इस चरण में किसी भी प्रस्ताव पर मतदान नहीं होता है, बल्कि यह केवल नीतिगत पहलुओं पर व्यापक चर्चा के लिए होता है।

विभागीय समितियों द्वारा जांच (Scrutiny by Departmental Committees)

आम बहस के बाद, सदन को कुछ हफ्तों के लिए स्थगित कर दिया जाता है। इस अवधि के दौरान, संसद की स्थायी समितियाँ (Standing Committees) विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान की मांगों (Demands for Grants) की विस्तार से जांच करती हैं। ये समितियाँ संबंधित मंत्रालयों के अधिकारियों से पूछताछ करती हैं और अपनी रिपोर्ट तैयार करती हैं, जिन्हें बाद में संसद में प्रस्तुत किया जाता है।

अनुदान की मांगों पर मतदान (Voting on Demands for Grants)

समितियों की रिपोर्टों पर विचार करने के बाद, लोकसभा में विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान की मांगों पर अलग-अलग मतदान होता है। यह एक महत्वपूर्ण चरण है क्योंकि यह कार्यपालिका (सरकार) पर विधायिका (संसद) के नियंत्रण को दर्शाता है। सदस्य इन मांगों पर कटौती प्रस्ताव (cut motions) भी ला सकते हैं। राज्यसभा को इन मांगों पर मतदान करने का अधिकार नहीं है, वह केवल चर्चा कर सकती है।

विनियोग विधेयक का पारित होना (Passing of the Appropriation Bill)

अनुदान की मांगों को लोकसभा द्वारा पारित किए जाने के बाद, भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) से पैसा निकालने के लिए सरकार को संसद की मंजूरी की आवश्यकता होती है। इसके लिए एक विनियोग विधेयक (Appropriation Bill) पेश किया जाता है। इस विधेयक के पारित होने के बाद ही सरकार को वित्तीय वर्ष के दौरान खर्च करने का कानूनी अधिकार मिलता है।

वित्त विधेयक का पारित होना (Passing of the Finance Bill)

बजट में सरकार द्वारा प्रस्तावित सभी करों (taxes) को लागू करने के लिए एक वित्त विधेयक (Finance Bill) भी पेश किया जाता है। इसमें आयकर, जीएसटी या अन्य करों में किसी भी बदलाव का प्रस्ताव होता है। वित्त विधेयक के संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित होने और राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त करने के बाद, यह एक कानून बन जाता है और सरकार के कर प्रस्ताव लागू हो जाते हैं।

बजट का कार्यान्वयन (Execution of the Budget)

एक बार जब बजट संसद द्वारा पारित हो जाता है, तो यह कार्यपालिका यानी सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इसे लागू करे। वित्त मंत्रालय विभिन्न मंत्रालयों और विभागों को आवंटित धन जारी करता है। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General – CAG) यह सुनिश्चित करने के लिए सरकारी खातों का ऑडिट करते हैं कि धन उसी उद्देश्य के लिए खर्च किया गया है जिसके लिए इसे मंजूरी दी गई थी।

बजटीय घाटे के प्रकार और उनके प्रभाव 📉 (Types of Budgetary Deficits and Their Impact)

बजटीय घाटे का अर्थ (Meaning of Budgetary Deficit)

बजटीय घाटा (Budgetary Deficit) तब होता है जब सरकार का कुल व्यय (total expenditure) उसकी कुल प्राप्तियों (total receipts) से अधिक हो जाता है। यह स्थिति दर्शाती है कि सरकार अपने खर्चों को पूरा करने के लिए अपनी आय से अधिक खर्च कर रही है। घाटे को समझना सरकार के वित्तीय स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। घाटे कई प्रकार के होते हैं, और प्रत्येक का अर्थव्यवस्था पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है।

राजस्व घाटा (Revenue Deficit)

राजस्व घाटा (Revenue Deficit) तब होता है जब सरकार का राजस्व व्यय उसकी राजस्व प्राप्तियों से अधिक हो जाता है। यह एक चिंताजनक स्थिति है क्योंकि यह दर्शाता है कि सरकार अपनी नियमित आय से अपने दिन-प्रतिदिन के खर्चों को भी पूरा नहीं कर पा रही है। इस घाटे को पूरा करने के लिए सरकार को उधार लेना पड़ता है, जिसका उपयोग अनुत्पादक उद्देश्यों (unproductive purposes) के लिए होता है, जैसे कि ब्याज भुगतान या सब्सिडी, न कि संपत्ति निर्माण के लिए।

राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit)

राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) सरकार के कुल व्यय और उसकी कुल प्राप्तियों (उधार को छोड़कर) के बीच का अंतर है। यह सरकार की कुल उधार आवश्यकताओं (total borrowing requirements) का सबसे सटीक माप है। यदि राजकोषीय घाटा अधिक है, तो इसका मतलब है कि सरकार को अपने खर्चों को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में कर्ज लेना पड़ रहा है। इसे आमतौर पर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है।

राजकोषीय घाटे के प्रभाव (Implications of Fiscal Deficit)

उच्च राजकोषीय घाटे के कई नकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं। सबसे पहले, यह एक ऋण जाल (debt trap) को जन्म दे सकता है, जहाँ सरकार को पुराने ऋणों पर ब्याज चुकाने के लिए नया ऋण लेना पड़ता है। दूसरा, यह अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति (inflation) को बढ़ा सकता है क्योंकि सरकार अपने घाटे को पूरा करने के लिए RBI से पैसे उधार ले सकती है, जिससे मुद्रा आपूर्ति (money supply) बढ़ जाती है। तीसरा, यह निजी निवेश (private investment) को कम कर सकता है, जिसे ‘क्राउडिंग आउट’ प्रभाव कहा जाता है।

प्राथमिक घाटा (Primary Deficit)

प्राथमिक घाटा (Primary Deficit) राजकोषीय घाटे और ब्याज भुगतान के बीच का अंतर है। यह दर्शाता है कि ब्याज भुगतान को छोड़कर सरकार का खर्च उसकी आय से कितना अधिक है। यदि प्राथमिक घाटा शून्य है, तो इसका मतलब है कि सरकार को केवल अपने पिछले ऋणों पर ब्याज का भुगतान करने के लिए उधार लेने की आवश्यकता है, न कि नए खर्चों के लिए। यह सरकार के मौजूदा वित्तीय अनुशासन (fiscal discipline) का एक अच्छा संकेतक है।

घाटे का वित्तपोषण (Financing the Deficit)

सरकार अपने घाटे को पूरा करने के लिए कई तरीकों का उपयोग करती है, जिसे घाटे का वित्तपोषण (deficit financing) कहा जाता है। इसका सबसे आम तरीका घरेलू या विदेशी स्रोतों से उधार लेना है, जैसे कि बाजार से बॉन्ड जारी करके। एक और तरीका ‘घाटे का मुद्रीकरण’ (monetization of deficit) है, जिसमें भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) सरकार को उधार देने के लिए नई मुद्रा छापता है। हालांकि, इससे मुद्रास्फीति का गंभीर खतरा होता है, इसलिए इसका उपयोग बहुत सावधानी से किया जाता है।

भारत की वित्तीय नीतियाँ: राजकोषीय और मौद्रिक नीति 🏦 (India’s Financial Policies: Fiscal and Monetary Policy)

वित्तीय नीति का परिचय (Introduction to Financial Policy)

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने और उसे विकास के पथ पर आगे बढ़ाने के लिए सरकार और केंद्रीय बैंक द्वारा कुछ नीतियां अपनाई जाती हैं। इन नीतियों को सामूहिक रूप से वित्तीय नीतियाँ (Financial Policies) कहा जाता है। भारत में, ये मुख्य रूप से दो प्रकार की हैं: राजकोषीय नीति (Fiscal Policy), जो सरकार द्वारा बनाई जाती है, और मौद्रिक नीति (Monetary Policy), जो भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा बनाई जाती है। ये दोनों नीतियां मिलकर आर्थिक स्थिरता और विकास सुनिश्चित करती हैं।

राजकोषीय नीति: सरकार का उपकरण (Fiscal Policy: The Government’s Tool)

राजकोषीय नीति सरकार की आय और व्यय से संबंधित नीति है। सरकार इस नीति का उपयोग अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के लिए करती है। इसके मुख्य उपकरण सार्वजनिक व्यय (public expenditure), कराधान (taxation), और सार्वजनिक ऋण (public debt) हैं। इन उपकरणों का उपयोग करके, सरकार कुल मांग (aggregate demand), निवेश और आय के वितरण को प्रभावित कर सकती है। बजट और वित्तीय नीतियाँ एक-दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई हैं, क्योंकि बजट राजकोषीय नीति को लागू करने का मुख्य माध्यम है।

राजकोषीय नीति के उद्देश्य (Objectives of Fiscal Policy)

राजकोषीय नीति के कई उद्देश्य होते हैं। इनमें आर्थिक विकास को बढ़ावा देना, पूर्ण रोजगार (full employment) की स्थिति प्राप्त करना, कीमतों में स्थिरता बनाए रखना (यानी मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना), और आय और धन की असमानताओं को कम करना शामिल है। सरकार इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपने खर्च और कर की दरों को समायोजित करती है।

विस्तारवादी बनाम संकुचनकारी राजकोषीय नीति (Expansionary vs. Contractionary Fiscal Policy)

जब अर्थव्यवस्था मंदी (recession) में होती है, तो सरकार विस्तारवादी राजकोषीय नीति (Expansionary Fiscal Policy) अपनाती है। इसमें करों को कम करना और सार्वजनिक व्यय को बढ़ाना शामिल है ताकि लोगों के हाथों में अधिक पैसा आए और वे अधिक खर्च करें, जिससे मांग बढ़े। इसके विपरीत, जब उच्च मुद्रास्फीति (high inflation) होती है, तो सरकार संकुचनकारी राजकोषीय नीति (Contractionary Fiscal Policy) अपनाती है, जिसमें करों को बढ़ाया जाता है और सरकारी खर्च को कम किया जाता है ताकि अर्थव्यवस्था को ठंडा किया जा सके।

मौद्रिक नीति: आरबीआई की भूमिका (Monetary Policy: The RBI’s Role)

मौद्रिक नीति (Monetary Policy) का प्रबंधन देश के केंद्रीय बैंक, यानी भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) द्वारा किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना और आर्थिक विकास को ध्यान में रखते हुए मूल्य स्थिरता बनाए रखना है। मौद्रिक नीति अर्थव्यवस्था में धन की आपूर्ति (money supply) और ऋण की लागत (cost of credit) को नियंत्रित करती है।

मौद्रिक नीति के उपकरण: मात्रात्मक (Quantitative Tools of Monetary Policy)

RBI के पास कई उपकरण हैं जिनसे वह धन की आपूर्ति को नियंत्रित करता है। इनमें रेपो दर (Repo Rate) – वह दर जिस पर RBI बैंकों को उधार देता है; रिवर्स रेपो दर (Reverse Repo Rate) – वह दर जिस पर RBI बैंकों से उधार लेता है; नकद आरक्षित अनुपात (Cash Reserve Ratio – CRR) – जमा का वह हिस्सा जो बैंकों को RBI के पास रखना होता है; और सांविधिक तरलता अनुपात (Statutory Liquidity Ratio – SLR) – जमा का वह हिस्सा जो बैंकों को अपने पास तरल संपत्ति के रूप में रखना होता है, शामिल हैं।

मौद्रिक नीति के उपकरण: गुणात्मक (Qualitative Tools of Monetary Policy)

मात्रात्मक उपकरणों के अलावा, RBI कुछ गुणात्मक उपकरणों का भी उपयोग करता है। इनमें मार्जिन आवश्यकताएं (Margin Requirements) – ऋण के लिए दी जाने वाली सुरक्षा के मूल्य और दिए गए ऋण की राशि के बीच का अंतर; नैतिक दबाव (Moral Suasion) – बैंकों को RBI की नीतियों का पालन करने के लिए राजी करना; और चयनात्मक ऋण नियंत्रण (Selective Credit Control) – कुछ विशेष क्षेत्रों में ऋण के प्रवाह को प्रोत्साहित या हतोत्साहित करना, शामिल हैं।

राजकोषीय और मौद्रिक नीति में समन्वय (Coordination between Fiscal and Monetary Policy)

अर्थव्यवस्था के लिए सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों के बीच प्रभावी समन्वय (coordination) आवश्यक है। यदि सरकार विस्तारवादी राजकोषीय नीति अपना रही है (खर्च बढ़ा रही है), तो RBI को यह सुनिश्चित करना होगा कि इससे मुद्रास्फीति नियंत्रण से बाहर न हो जाए। इसी तरह, यदि RBI ब्याज दरें बढ़ा रहा है, तो सरकार को अपने खर्च को नियंत्रित करना पड़ सकता है। यह समन्वय देश के आर्थिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है।

भारत की कर नीति: संरचना और सुधार 🧾 (India’s Tax Policy: Structure and Reforms)

कर नीति का अर्थ और उद्देश्य (Meaning and Objectives of Tax Policy)

कर नीति (Tax Policy) सरकार की राजकोषीय नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह उन सिद्धांतों, कानूनों और विनियमों को संदर्भित करती है जो यह निर्धारित करते हैं कि सरकार व्यक्तियों और व्यवसायों से कर कैसे वसूल करेगी। एक अच्छी कर नीति के कई उद्देश्य होते हैं, जिनमें सरकारी खर्च के लिए पर्याप्त राजस्व (revenue) जुटाना, आय और धन के वितरण में समानता लाना, और बचत और निवेश को प्रोत्साहित करके आर्थिक विकास को बढ़ावा देना शामिल है।

प्रत्यक्ष कर संरचना (Direct Tax Structure)

भारत में प्रत्यक्ष करों की संरचना काफी विकसित है। व्यक्तिगत आयकर (Personal Income Tax) एक प्रगतिशील कर प्रणाली (progressive tax system) पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि आय बढ़ने के साथ कर की दर भी बढ़ती है। इसे ‘स्लैब सिस्टम’ कहा जाता है। निगम कर (Corporate Tax) कंपनियों द्वारा अर्जित लाभ पर लगाया जाता है। हाल के वर्षों में, सरकार ने निवेश को आकर्षित करने के लिए निगम कर की दरों में कटौती की है।

अप्रत्यक्ष कर संरचना: जीएसटी का आगमन (Indirect Tax Structure: The Advent of GST)

1 जुलाई, 2017 से पहले, भारत में अप्रत्यक्ष कर प्रणाली बहुत जटिल थी, जिसमें केंद्र और राज्यों द्वारा कई अलग-अलग कर लगाए जाते थे, जैसे कि उत्पाद शुल्क, सेवा कर, वैट (VAT) आदि। इस प्रणाली को सरल बनाने के लिए, वस्तु एवं सेवा कर (Goods and Services Tax – GST) लागू किया गया। GST एक व्यापक, गंतव्य-आधारित कर (destination-based tax) है जिसने अधिकांश अप्रत्यक्ष करों को बदल दिया है।

जीएसटी के लाभ (Benefits of GST)

जीएसटी के लागू होने से कई लाभ हुए हैं। इसने ‘कर पर कर’ (tax on tax) के प्रभाव को समाप्त कर दिया है, जिससे वस्तुओं और सेवाओं की लागत कम हुई है। इसने एक एकीकृत राष्ट्रीय बाजार (unified national market) बनाया है, जिससे व्यापार करना आसान हो गया है। इसके अलावा, जीएसटी प्रणाली पूरी तरह से ऑनलाइन है, जिससे कर प्रशासन में पारदर्शिता बढ़ी है और कर चोरी (tax evasion) में कमी आई है।

कराधान के सिद्धांत (Principles of Taxation)

एक अच्छी कर प्रणाली कुछ सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए, जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने बताया था। इनमें समानता का सिद्धांत (Principle of Equity) – लोगों को उनकी भुगतान करने की क्षमता के अनुसार कर देना चाहिए; निश्चितता का सिद्धांत (Principle of Certainty) – कर की राशि और भुगतान का समय निश्चित होना चाहिए; सुविधा का सिद्धांत (Principle of Convenience) – कर का भुगतान करदाता के लिए सुविधाजनक होना चाहिए; और मितव्ययिता का सिद्धांत (Principle of Economy) – कर एकत्र करने की लागत न्यूनतम होनी चाहिए।

प्रगतिशील, प्रतिगामी और आनुपातिक कर (Progressive, Regressive, and Proportional Taxes)

कर प्रणालियों को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्रगतिशील कर (Progressive Tax) प्रणाली में, आय बढ़ने पर कर की दर बढ़ जाती है (जैसे भारत का आयकर)। प्रतिगामी कर (Regressive Tax) प्रणाली में, आय बढ़ने पर कर की दर घट जाती है, जिससे गरीबों पर अधिक बोझ पड़ता है। आनुपातिक कर (Proportional Tax) प्रणाली में, सभी आय स्तरों पर एक ही दर से कर लगाया जाता है, जिसे ‘फ्लैट टैक्स’ भी कहा जाता है।

हाल के कर सुधार (Recent Tax Reforms)

जीएसटी के अलावा, सरकार ने हाल के वर्षों में कई अन्य कर सुधार भी किए हैं। इनमें ‘विवाद से विश्वास’ जैसी योजनाओं के माध्यम से कर विवादों को कम करना, फेसलेस असेसमेंट (faceless assessment) शुरू करके कर प्रशासन में पारदर्शिता लाना, और छोटे व्यवसायों के लिए कर अनुपालन को सरल बनाना शामिल है। इन सुधारों का उद्देश्य कर आधार (tax base) को व्यापक बनाना और कर-से-जीडीपी अनुपात (tax-to-GDP ratio) में सुधार करना है।

सब्सिडी और वित्तीय सुधार: अर्थव्यवस्था को आकार देना 🌱 (Subsidies and Financial Reforms: Shaping the Economy)

सब्सिडी क्या है? (What is a Subsidy?)

सब्सिडी (Subsidy) सरकार द्वारा व्यक्तियों या उद्योगों को दिया जाने वाला एक प्रकार का वित्तीय लाभ है। इसका उद्देश्य आमतौर पर किसी विशेष वस्तु या सेवा की लागत को कम करना होता है ताकि वह आम लोगों के लिए सस्ती हो सके, या किसी विशेष उद्योग को बढ़ावा देना होता है। सब्सिडी सीधे नकद भुगतान (cash payment) के रूप में हो सकती है या करों में छूट के रूप में। भारत में सब्सिडी और वित्तीय सुधार (subsidies and financial reforms) हमेशा से बहस का एक प्रमुख विषय रहे हैं।

भारत में प्रमुख सब्सिडी (Major Subsidies in India)

भारत सरकार कई क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में सब्सिडी प्रदान करती है। इनमें सबसे प्रमुख हैं – खाद्य सब्सिडी (Food Subsidy), जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से गरीबों को सस्ता अनाज प्रदान करती है; उर्वरक सब्सिडी (Fertilizer Subsidy), जो किसानों को सस्ती दरों पर उर्वरक उपलब्ध कराती है; और ईंधन सब्सिडी (Fuel Subsidy), जो एलपीजी सिलेंडर और मिट्टी के तेल की कीमतों को कम रखती है।

सब्सिडी के पक्ष और विपक्ष (Pros and Cons of Subsidies)

सब्सिडी के कई फायदे हैं, जैसे कि वे गरीबी को कम करने और सामाजिक कल्याण (social welfare) को बढ़ावा देने में मदद करते हैं। वे यह सुनिश्चित करते हैं कि आवश्यक वस्तुएं सभी के लिए सुलभ हों। हालांकि, इनके कुछ नुकसान भी हैं। सब्सिडी का बोझ सरकार के खजाने पर बहुत अधिक होता है, जिससे राजकोषीय घाटा बढ़ता है। इसके अलावा, अक्सर सब्सिडी का लाभ लक्षित लाभार्थियों (targeted beneficiaries) तक नहीं पहुंच पाता और इसमें रिसाव (leakage) और भ्रष्टाचार की समस्या होती है।

सब्सिडी सुधार की दिशा में कदम (Steps Towards Subsidy Reforms)

इन समस्याओं को दूर करने के लिए, सरकार ने सब्सिडी सुधार (subsidy reforms) की दिशा में कई कदम उठाए हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (Direct Benefit Transfer – DBT) योजना है, जिसके तहत सब्सिडी की राशि सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में जमा की जाती है। इससे बिचौलियों की भूमिका समाप्त हो गई है और रिसाव में काफी कमी आई है। एलपीजी के लिए ‘पहल’ योजना इसका एक सफल उदाहरण है।

1991 के आर्थिक सुधार (Economic Reforms of 1991)

भारतीय अर्थव्यवस्था में वित्तीय सुधारों का सबसे बड़ा दौर 1991 में आया, जब भारत एक गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा था। उस समय, सरकार ने उदारीकरण (Liberalisation), निजीकरण (Privatisation), और वैश्वीकरण (Globalisation) की नीति अपनाई, जिसे LPG सुधारों के रूप में जाना जाता है। इन सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोल दिया और विकास की एक नई लहर शुरू की।

उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (Liberalisation, Privatisation, and Globalisation)

उदारीकरण का अर्थ था उद्योगों को लाइसेंस राज से मुक्त करना और आर्थिक गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण को कम करना। निजीकरण का मतलब था सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSUs) में सरकारी हिस्सेदारी को बेचना और निजी क्षेत्र की भूमिका को बढ़ाना। वैश्वीकरण का उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत (integrate) करना था, जिसमें व्यापार और विदेशी निवेश पर प्रतिबंधों को हटाना शामिल था।

हाल के वित्तीय सुधार (Recent Financial Reforms)

1991 के बाद भी वित्तीय सुधारों की प्रक्रिया जारी रही है। हाल के वर्षों में कई महत्वपूर्ण सुधार हुए हैं। इनमें दिवाला और दिवालियापन संहिता (Insolvency and Bankruptcy Code – IBC) शामिल है, जो दिवालिया कंपनियों के मामलों को सुलझाने के लिए एक समयबद्ध प्रक्रिया प्रदान करता है। प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY) ने करोड़ों लोगों को बैंकिंग प्रणाली से जोड़कर वित्तीय समावेशन (financial inclusion) को बढ़ावा दिया है।

बैंकिंग क्षेत्र में सुधार (Reforms in the Banking Sector)

बैंकिंग क्षेत्र, जो किसी भी अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा है, में भी महत्वपूर्ण सुधार हुए हैं। इनमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय (merger of public sector banks) शामिल है ताकि बड़े और मजबूत बैंक बनाए जा सकें जो विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकें। इसके अलावा, गैर-निष्पादित आस्तियों (Non-Performing Assets – NPAs) की समस्या से निपटने के लिए कड़े नियम बनाए गए हैं और बैंकों के पुनर्पूंजीकरण (recapitalization) के लिए कदम उठाए गए हैं।

निष्कर्ष: भविष्य की राह 🚀 (Conclusion: The Path Forward)

प्रमुख बिंदुओं का सारांश (Summary of Key Points)

इस विस्तृत लेख में, हमने ‘भारत की बजट और वित्तीय नीतियाँ’ के विभिन्न पहलुओं को गहराई से समझा। हमने सीखा कि बजट क्या है, इसके प्रमुख घटक क्या हैं, और इसे बनाने की जटिल प्रक्रिया क्या है। हमने राजस्व और व्यय (revenue and expenditure), बजटीय घाटे, और सरकार की महत्वपूर्ण नीतियों जैसे कर नीति (tax policy) और सब्सिडी (subsidies) पर भी विस्तार से चर्चा की। यह स्पष्ट है कि ये नीतियां देश के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

छात्रों के लिए आर्थिक जागरूकता का महत्व (Importance of Economic Awareness for Students)

एक छात्र के रूप में, इन अवधारणाओं को समझना केवल अकादमिक अभ्यास नहीं है, बल्कि यह आपको एक सूचित और जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए सशक्त बनाता है। जब आप बजट और वित्तीय नीतियों को समझते हैं, तो आप सरकार के कार्यों का बेहतर मूल्यांकन कर सकते हैं और देश के भविष्य पर होने वाली बहसों में सार्थक रूप से भाग ले सकते हैं। यह ज्ञान आपको अपने व्यक्तिगत वित्त (personal finance) को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने में भी मदद करता है।

भविष्य की चुनौतियां और अवसर (Future Challenges and Opportunities)

आगे बढ़ते हुए, भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने कई चुनौतियां और अवसर हैं। चुनौतियों में राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करना, रोजगार सृजन (job creation) को बढ़ावा देना, और बढ़ती असमानता को कम करना शामिल है। वहीं, भारत की युवा आबादी, बढ़ता मध्यम वर्ग और डिजिटल प्रौद्योगिकी का तेजी से अपनाना विकास के लिए अपार अवसर प्रदान करता है। भविष्य की बजट और वित्तीय नीतियाँ इन अवसरों का लाभ उठाने और चुनौतियों से निपटने पर केंद्रित होनी चाहिए।

सतत और समावेशी विकास की ओर (Towards Sustainable and Inclusive Growth)

भविष्य का लक्ष्य केवल आर्थिक विकास हासिल करना नहीं होना चाहिए, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी होना चाहिए कि यह विकास सतत (sustainable) और समावेशी (inclusive) हो। इसका मतलब है कि विकास पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए और इसके लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने चाहिए। वित्तीय सुधार (financial reforms) को इस दिशा में निर्देशित किया जाना चाहिए, जिसमें हरित ऊर्जा, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवा में निवेश को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। एक मजबूत और पारदर्शी बजटीय प्रक्रिया इस लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।

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