अंतरराष्ट्रीय संगठन और समझौते (International Agreements)
अंतरराष्ट्रीय संगठन और समझौते (International Agreements)

अंतरराष्ट्रीय संगठन और समझौते (International Agreements)

विषय-सूची (Table of Contents)

परिचय: अंतरराष्ट्रीय संगठन और समझौते क्यों महत्वपूर्ण हैं? (Introduction: Why are International Organizations and Agreements Important?) 🗺️

वैश्विक सहयोग की आवश्यकता (The Need for Global Cooperation)

आज की दुनिया में, कोई भी देश अकेला नहीं रह सकता। 🌍 हम सभी एक-दूसरे से व्यापार, प्रौद्योगिकी, और संस्कृति के माध्यम से जुड़े हुए हैं। लेकिन इस जुड़ाव के साथ-साथ कुछ वैश्विक चुनौतियाँ भी आती हैं, जैसे कि जलवायु परिवर्तन (climate change), आतंकवाद, और महामारी। इन समस्याओं का समाधान कोई एक देश अकेले नहीं कर सकता। इसीलिए, हमें अंतरराष्ट्रीय संगठन और समझौते (International Organizations & Agreements) की आवश्यकता होती है जो सभी देशों को एक साथ मिलकर काम करने के लिए एक मंच प्रदान करते हैं।

अंतरराष्ट्रीय संगठन क्या हैं? (What are International Organizations?)

अंतरराष्ट्रीय संगठन ऐसे समूह होते हैं जिन्हें विभिन्न देशों की सरकारें मिलकर बनाती हैं। इनका मुख्य उद्देश्य सदस्य देशों के बीच शांति, सुरक्षा, और सहयोग को बढ़ावा देना होता है। ये संगठन वैश्विक मुद्दों पर नियम और मानक तय करते हैं, जिससे सभी देशों के लिए एक समान खेल का मैदान बनता है। संयुक्त राष्ट्र (United Nations), विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization), और विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization) इसके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। ये संगठन वैश्विक चुनौतियों से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

अंतरराष्ट्रीय समझौते क्या हैं? (What are International Agreements?)

अंतरराष्ट्रीय समझौते या संधियाँ (treaties) दो या दो से अधिक देशों के बीच कानूनी रूप से बाध्यकारी अनुबंध होते हैं। ये समझौते विशिष्ट मुद्दों को संबोधित करने के लिए बनाए जाते हैं, जैसे कि पर्यावरण संरक्षण, मानवाधिकार, या परमाणु अप्रसार। पेरिस समझौता (Paris Agreement) और क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) जलवायु परिवर्तन से संबंधित महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समझौते हैं। ये समझौते देशों को उनके वादों के प्रति जवाबदेह बनाते हैं और एक साझा लक्ष्य की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित करते हैं।

भारत के भूगोल पर प्रभाव (Impact on Indian Geography)

ये अंतरराष्ट्रीय संगठन और समझौते भारत के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। भारत की विविध भौगोलिक संरचना (geographical structure), जिसमें हिमालय के ग्लेशियर, विशाल तटीय रेखा, और घने जंगल शामिल हैं, जलवायु परिवर्तन के प्रति बहुत संवेदनशील है। 🏔️🌊🌳 इसलिए, UNEP और IPCC जैसे संगठन और पेरिस समझौते जैसे pacts भारत को इन चुनौतियों से निपटने के लिए वैज्ञानिक डेटा, तकनीकी सहायता, और वित्तीय संसाधन प्रदान करने में मदद करते हैं। ये भारत को अपनी पर्यावरण नीतियों को वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाने में भी सहायता करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र (United Nations – UN): वैश्विक शांति और सहयोग का स्तंभ 🕊️

संयुक्त राष्ट्र की स्थापना (Establishment of the United Nations)

द्वितीय विश्व युद्ध की भयावहता के बाद, दुनिया के नेताओं ने महसूस किया कि भविष्य में ऐसे संघर्षों को रोकने के लिए एक वैश्विक संगठन की आवश्यकता है। इसी सोच के परिणामस्वरूप, 24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र (United Nations) की स्थापना हुई। इसका मुख्यालय न्यूयॉर्क शहर, संयुक्त राज्य अमेरिका में है। भारत इसके संस्थापक सदस्यों में से एक था, जो वैश्विक शांति और सुरक्षा के प्रति अपनी प्रारंभिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

संयुक्त राष्ट्र के मुख्य उद्देश्य (Main Objectives of the United Nations)

संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संगठन के चार मुख्य उद्देश्य बताए गए हैं। पहला, अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा (international peace and security) बनाए रखना। दूसरा, राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों का विकास करना। तीसरा, अंतरराष्ट्रीय सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मानवीय समस्याओं को हल करने में सहयोग करना। और चौथा, मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं के सम्मान को बढ़ावा देना। ये उद्देश्य आज भी संगठन के सभी कार्यों का मार्गदर्शन करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख अंग (Principal Organs of the United Nations)

संयुक्त राष्ट्र के छह मुख्य अंग हैं, जो इसके विविध कार्यों को पूरा करते हैं। ये हैं: महासभा (General Assembly), सुरक्षा परिषद (Security Council), आर्थिक और सामाजिक परिषद (Economic and Social Council – ECOSOC), ट्रस्टीशिप परिषद (Trusteeship Council), अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice – ICJ), और सचिवालय (Secretariat)। इनमें से प्रत्येक अंग की अपनी विशिष्ट जिम्मेदारियाँ और शक्तियाँ हैं, जो मिलकर वैश्विक शासन (global governance) की एक जटिल प्रणाली बनाती हैं।

महासभा (General Assembly)

महासभा संयुक्त राष्ट्र का मुख्य विचार-विमर्श करने वाला अंग है। इसमें सभी 193 सदस्य देश शामिल हैं, और प्रत्येक देश को एक वोट का अधिकार है। 🗳️ यह वैश्विक मुद्दों पर बहस करने, सिफारिशें करने और संयुक्त राष्ट्र के बजट को मंजूरी देने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच है। हालाँकि इसके प्रस्ताव कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होते, लेकिन वे दुनिया की राय का एक महत्वपूर्ण संकेतक माने जाते हैं।

सुरक्षा परिषद (Security Council)

सुरक्षा परिषद की प्राथमिक जिम्मेदारी अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखना है। इसमें 15 सदस्य होते हैं: पांच स्थायी सदस्य (चीन, फ्रांस, रूस, यूनाइटेड किंगडम, और संयुक्त राज्य अमेरिका) और दस अस्थायी सदस्य, जिन्हें दो साल के कार्यकाल के लिए चुना जाता है। स्थायी सदस्यों के पास “वीटो पावर” होती है, जिसका अर्थ है कि वे किसी भी प्रस्ताव को रोक सकते हैं। भारत लंबे समय से सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता (permanent membership) की मांग कर रहा है।

भारत और संयुक्त राष्ट्र (India and the United Nations)

भारत हमेशा से संयुक्त राष्ट्र का एक सक्रिय और महत्वपूर्ण सदस्य रहा है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों (peacekeeping missions) में दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक सैनिक भेजे हैं। भारत ने निरस्त्रीकरण, उपनिवेशवाद की समाप्ति, और सतत विकास जैसे मुद्दों पर भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संयुक्त राष्ट्र भारत के लिए अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को आगे बढ़ाने और वैश्विक मंच पर अपनी आवाज उठाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है।

पर्यावरण और भूगोल के संदर्भ में यूएन की भूमिका (UN’s Role in Environment and Geography)

हालांकि यूएन की स्थापना मुख्य रूप से शांति और सुरक्षा के लिए हुई थी, लेकिन समय के साथ इसका दायरा पर्यावरण और सतत विकास जैसे मुद्दों तक बढ़ गया है। यूएन ने कई महत्वपूर्ण पर्यावरणीय संधियों और सम्मेलनों को प्रायोजित किया है, जैसे 1972 का स्टॉकहोम सम्मेलन और 1992 का रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन। यूएन की विशेष एजेंसियां, जैसे UNEP और IPCC, सीधे तौर पर पर्यावरणीय और भौगोलिक चुनौतियों से निपटने के लिए काम करती हैं, जिसका भारत जैसे देशों पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Environment Programme – UNEP): हमारे ग्रह का संरक्षक 🌿

UNEP की स्थापना और मिशन (Establishment and Mission of UNEP)

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की स्थापना जून 1972 में स्टॉकहोम में हुए मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के परिणामस्वरूप हुई थी। इसका मुख्यालय नैरोबी, केन्या में है, जो इसे विकासशील देश में मुख्यालय वाला पहला यूएन कार्यक्रम बनाता है। UNEP का मुख्य मिशन पर्यावरण की देखभाल के लिए नेतृत्व प्रदान करना, साझेदारी को प्रेरित करना और राष्ट्रों और लोगों को उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए प्रेरित करना है, बिना भविष्य की पीढ़ियों से समझौता किए।

UNEP के कार्य के मुख्य क्षेत्र (Main Areas of Work for UNEP)

UNEP सात व्यापक विषयगत क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करता है: जलवायु परिवर्तन, आपदाएं और संघर्ष, पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन (ecosystem management), पर्यावरणीय शासन, रसायन और अपशिष्ट, संसाधन दक्षता, और पर्यावरण की समीक्षा। इन क्षेत्रों में काम करके, UNEP वैश्विक पर्यावरणीय एजेंडे को निर्धारित करने में मदद करता है और सदस्य देशों को उनकी पर्यावरणीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में सहायता करता है। इसका काम विज्ञान-आधारित नीति निर्माण पर जोर देता है।

जलवायु परिवर्तन पर UNEP का काम (UNEP’s Work on Climate Change)

जलवायु परिवर्तन UNEP के लिए एक प्रमुख प्राथमिकता है। यह देशों को कम कार्बन उत्सर्जन वाले भविष्य की ओर बढ़ने में मदद करता है। UNEP अनुकूलन (adaptation) और शमन (mitigation) दोनों पर काम करता है। यह देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल होने में मदद करने के लिए परियोजनाएं चलाता है और नवीकरणीय ऊर्जा (renewable energy) और ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देकर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में सहायता करता है। यह IPCC और UNFCCC जैसी संस्थाओं को भी महत्वपूर्ण समर्थन प्रदान करता है।

पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन (Ecosystem Management)

UNEP मानता है कि स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र मानव कल्याण के लिए मौलिक हैं। यह देशों को उनके प्राकृतिक संसाधनों, जैसे कि जंगल, नदियाँ और महासागरों, का स्थायी रूप से प्रबंधन करने में मदद करता है। यह जैव विविधता (biodiversity) के नुकसान को रोकने और निम्नीकृत पारिस्थितिक तंत्र को बहाल करने पर भी काम करता है। भारत के लिए, जहां विविध पारिस्थितिकी तंत्र हैं, UNEP का यह काम पश्चिमी घाटों और हिमालयी क्षेत्र जैसे नाजुक आवासों की रक्षा के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है।

भारत और UNEP की साझेदारी (Partnership between India and UNEP)

भारत और UNEP के बीच एक लंबी और मजबूत साझेदारी है। भारत ने कई वैश्विक पर्यावरणीय पहलों में सक्रिय रूप से भाग लिया है, और UNEP ने भारत में विभिन्न परियोजनाओं का समर्थन किया है। 🤝 उदाहरण के लिए, UNEP ने भारत को अपनी राष्ट्रीय जैव विविधता रणनीति और कार्य योजना विकसित करने में मदद की है। इसने प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने और सतत शीतलन (sustainable cooling) को बढ़ावा देने जैसी पहलों में भी भारत के साथ मिलकर काम किया है।

UNEP द्वारा प्रकाशित प्रमुख रिपोर्टें (Major Reports Published by UNEP)

UNEP कई प्रभावशाली रिपोर्टें प्रकाशित करता है जो वैश्विक पर्यावरण की स्थिति पर प्रकाश डालती हैं। “एमिशन गैप रिपोर्ट” (Emissions Gap Report) देशों द्वारा किए गए जलवायु वादों और पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक कटौती के बीच के अंतर का आकलन करती है। “ग्लोबल एनवायरनमेंट आउटलुक” (Global Environment Outlook) रिपोर्ट पर्यावरण की स्थिति का एक व्यापक मूल्यांकन प्रदान करती है। ये रिपोर्टें नीति निर्माताओं और जनता के लिए महत्वपूर्ण संसाधन हैं।

भारत के भूगोल पर UNEP का प्रभाव (Impact of UNEP on India’s Geography)

UNEP की पहलों का भारत के भूगोल और पर्यावरण पर सीधा सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन पर इसके कार्यक्रम भारत के जंगलों, आर्द्रभूमियों (wetlands) और तटीय क्षेत्रों के संरक्षण में मदद करते हैं। संसाधन दक्षता पर इसका काम भारत को अपने प्राकृतिक संसाधनों का अधिक कुशलता से उपयोग करने में मदद करता है, जिससे प्रदूषण कम होता है। UNEP भारत को अंतरराष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं (international best practices) को अपनाने में मदद करके एक स्वस्थ और अधिक टिकाऊ वातावरण बनाने में योगदान देता है।

चुनौतियाँ और भविष्य की दिशा (Challenges and Future Direction)

पर्यावरणीय चुनौतियों के विशाल पैमाने को देखते हुए, UNEP को सीमित धन और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। फिर भी, यह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भविष्य में, UNEP को सतत विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals – SDGs) को प्राप्त करने, परिपत्र अर्थव्यवस्था (circular economy) को बढ़ावा देने और प्रकृति-आधारित समाधानों को लागू करने पर ध्यान केंद्रित करने की उम्मीद है। भारत जैसे विकासशील देशों के लिए UNEP का समर्थन महत्वपूर्ण बना रहेगा।

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change – IPCC): जलवायु विज्ञान की आवाज 🔬

IPCC की स्थापना और उद्देश्य (Establishment and Purpose of IPCC)

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की स्थापना 1988 में विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य नीति निर्माताओं को जलवायु परिवर्तन, इसके प्रभावों और भविष्य के संभावित जोखिमों के वैज्ञानिक आधार के नियमित मूल्यांकन प्रदान करना है। IPCC स्वयं कोई शोध नहीं करता है, बल्कि यह दुनिया भर के हजारों वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध की समीक्षा और संश्लेषण (review and synthesize) करता है।

IPCC की संरचना (Structure of the IPCC)

IPCC में तीन मुख्य कार्य समूह (Working Groups) और एक टास्क फोर्स होता है। कार्य समूह I जलवायु प्रणाली और जलवायु परिवर्तन के भौतिक विज्ञान के आधार का आकलन करता है। कार्य समूह II जलवायु परिवर्तन के प्रति सामाजिक-आर्थिक और प्राकृतिक प्रणालियों की भेद्यता, परिणामों और अनुकूलन के विकल्पों का आकलन करता है। कार्य समूह III जलवायु परिवर्तन के शमन (mitigation) का आकलन करता है, जिसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के तरीके शामिल हैं।

IPCC की मूल्यांकन रिपोर्टें (IPCC’s Assessment Reports)

IPCC का सबसे प्रसिद्ध उत्पाद इसकी व्यापक मूल्यांकन रिपोर्टें (Assessment Reports – ARs) हैं। ये रिपोर्टें हर 6 से 7 साल में प्रकाशित होती हैं और जलवायु परिवर्तन के बारे में ज्ञान की स्थिति का सबसे आधिकारिक और व्यापक सारांश प्रदान करती हैं। अब तक, IPCC ने छह मूल्यांकन रिपोर्टें जारी की हैं, जिनमें नवीनतम AR6 है जो 2021-2022 में जारी की गई थी। ये रिपोर्टें अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं के लिए वैज्ञानिक आधार प्रदान करती हैं। 📜

AR6 के मुख्य निष्कर्ष (Key Findings of AR6)

छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (AR6) ने कुछ बहुत ही स्पष्ट और चिंताजनक निष्कर्ष प्रस्तुत किए। इसने स्पष्ट रूप से कहा कि यह “निर्विवाद” है कि मानवीय गतिविधियाँ वायुमंडल, महासागर और भूमि को गर्म कर रही हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि जलवायु प्रणाली में कई परिवर्तन, जैसे समुद्र के स्तर में वृद्धि (sea-level rise), सैकड़ों से हजारों वर्षों तक अपरिवर्तनीय हैं। इसने तत्काल, तीव्र और बड़े पैमाने पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी की आवश्यकता पर भी जोर दिया।

IPCC और भारत (IPCC and India)

IPCC की रिपोर्टें भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। भारत एक ऐसा देश है जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, जैसे कि तीव्र हीटवेव, अनियमित मानसून, बाढ़, सूखा और चक्रवात, के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। IPCC की रिपोर्टें भारत के नीति निर्माताओं को इन जोखिमों को समझने और प्रभावी अनुकूलन और शमन रणनीतियों को विकसित करने में मदद करती हैं। कई भारतीय वैज्ञानिक IPCC प्रक्रिया में लेखक और समीक्षक के रूप में सक्रिय रूप से योगदान करते हैं, जो वैश्विक जलवायु विज्ञान में भारत के योगदान को दर्शाता है।

भारत के भूगोल पर IPCC के निष्कर्षों का प्रभाव (Impact of IPCC’s Findings on India’s Geography)

IPCC की रिपोर्टों में भारत की भौगोलिक विशेषताओं पर पड़ने वाले प्रभावों पर विशेष ध्यान दिया गया है। रिपोर्टों में चेतावनी दी गई है कि हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों के प्रवाह पर असर पड़ सकता है। 🏞️ समुद्र के स्तर में वृद्धि से मुंबई और कोलकाता जैसे तटीय शहरों को खतरा है। कृषि पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका है, जो भारत की खाद्य सुरक्षा (food security) के लिए एक बड़ी चुनौती है। ये निष्कर्ष भारत के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं।

IPCC की विश्वसनीयता और आलोचना (Credibility and Criticism of IPCC)

IPCC को इसकी कठोर और पारदर्शी समीक्षा प्रक्रिया के लिए व्यापक रूप से सम्मान दिया जाता है। 2007 में, इसे जलवायु परिवर्तन के बारे में ज्ञान फैलाने के प्रयासों के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। हालांकि, इसकी कुछ आलोचना भी हुई है, जिसमें कुछ रिपोर्टों में छोटी-मोटी त्रुटियों और इसके निष्कर्षों के राजनीतिकरण के आरोप शामिल हैं। फिर भी, यह जलवायु विज्ञान पर दुनिया का सबसे आधिकारिक स्रोत बना हुआ है।

नीति निर्माण में IPCC की भूमिका (Role of IPCC in Policymaking)

IPCC “नीति-प्रासंगिक लेकिन नीति-निर्धारिती नहीं” (policy-relevant but not policy-prescriptive) होने के सिद्धांत पर काम करता है। इसका मतलब है कि यह नीति निर्माताओं को विकल्प और उनके निहितार्थ प्रदान करता है, लेकिन यह नहीं बताता कि उन्हें कौन सा रास्ता चुनना चाहिए। इसकी रिपोर्टें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के तहत होने वाली वार्ताओं के लिए एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक इनपुट प्रदान करती हैं, जिसने क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस समझौते जैसे समझौतों को जन्म दिया।

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol): जलवायु कार्रवाई की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम 📜

क्योटो प्रोटोकॉल का परिचय (Introduction to the Kyoto Protocol)

क्योटो प्रोटोकॉल एक अंतरराष्ट्रीय समझौता था जिसे 1997 में जापान के क्योटो में अपनाया गया और यह 2005 में लागू हुआ। यह 1992 के संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) से जुड़ा था। यह पहला समझौता था जिसने ग्रीनहाउस गैस (Greenhouse Gas – GHG) उत्सर्जन को कम करने के लिए भाग लेने वाले देशों के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी लक्ष्य निर्धारित किए। इसका मुख्य उद्देश्य वायुमंडल में जीएचजी की सांद्रता को एक ऐसे स्तर पर स्थिर करना था जो जलवायु प्रणाली के साथ खतरनाक मानवीय हस्तक्षेप को रोक सके।

“आम लेकिन विभेदित जिम्मेदारियाँ” का सिद्धांत (Principle of “Common but Differentiated Responsibilities”)

क्योटो प्रोटोकॉल “आम लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं” (Common but Differentiated Responsibilities and Respective Capabilities – CBDR-RC) के सिद्धांत पर आधारित था। यह सिद्धांत स्वीकार करता है कि सभी देशों की जलवायु परिवर्तन से निपटने की साझा जिम्मेदारी है, लेकिन ऐतिहासिक रूप से उत्सर्जन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार विकसित देशों को नेतृत्व करना चाहिए। इसलिए, प्रोटोकॉल ने केवल विकसित देशों (जिन्हें अनुलग्नक I देश कहा जाता है) के लिए बाध्यकारी उत्सर्जन कटौती लक्ष्य निर्धारित किए।

अनुलग्नक I और गैर-अनुलग्नक I देश (Annex I and Non-Annex I Countries)

प्रोटोकॉल ने देशों को दो मुख्य समूहों में विभाजित किया। अनुलग्नक I (Annex I) देशों में औद्योगिक देश और संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्थाएं शामिल थीं, जिन्हें 2008-2012 की पहली प्रतिबद्धता अवधि के दौरान अपने 1990 के स्तर से औसतन 5% नीचे उत्सर्जन में कटौती करनी थी। गैर-अनुलग्नक I (Non-Annex I) देशों में ज्यादातर विकासशील देश, जैसे कि भारत और चीन, शामिल थे। इन देशों के लिए कोई बाध्यकारी उत्सर्जन लक्ष्य नहीं थे, क्योंकि उनकी पहली प्राथमिकता गरीबी उन्मूलन और आर्थिक विकास थी।

क्योटो प्रोटोकॉल के तंत्र (Mechanisms of the Kyoto Protocol)

अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में देशों की मदद करने के लिए, क्योटो प्रोटोकॉल ने तीन बाजार-आधारित तंत्र स्थापित किए। ये थे: उत्सर्जन व्यापार (Emissions Trading), स्वच्छ विकास तंत्र (Clean Development Mechanism – CDM), और संयुक्त कार्यान्वयन (Joint Implementation – JI)। इन तंत्रों का उद्देश्य उत्सर्जन में कमी की लागत को कम करना और टिकाऊ विकास को बढ़ावा देना था। ये तंत्र लचीलेपन (flexibility) की अनुमति देते थे, जिससे देश सबसे कम लागत पर कटौती कर सकें।

स्वच्छ विकास तंत्र (Clean Development Mechanism – CDM)

स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) भारत जैसे विकासशील देशों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण था। CDM के तहत, एक अनुलग्नक I देश गैर-अनुलग्नक I देश में एक उत्सर्जन-घटाने वाली परियोजना में निवेश कर सकता था और इसके लिए क्रेडिट (Certified Emission Reductions – CERs) अर्जित कर सकता था। इन क्रेडिट्स का उपयोग उनके अपने उत्सर्जन कटौती लक्ष्यों को पूरा करने के लिए किया जा सकता था। CDM ने विकासशील देशों में स्वच्छ प्रौद्योगिकी (clean technology) में निवेश को प्रोत्साहित किया और सतत विकास में योगदान दिया।

भारत की भूमिका और लाभ (India’s Role and Benefits)

भारत ने क्योटो प्रोटोकॉल का पुरजोर समर्थन किया, खासकर CBDR-RC सिद्धांत का। एक गैर-अनुलग्नक I देश के रूप में, भारत पर कोई बाध्यकारी कटौती लक्ष्य नहीं थे, लेकिन इसने CDM का पूरा लाभ उठाया। भारत CDM परियोजनाओं के पंजीकरण में दुनिया के अग्रणी देशों में से एक बन गया। 🇮🇳 इससे भारत में नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता और अपशिष्ट प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण निवेश आया, जिसने भारत के सतत विकास (sustainable development) के लक्ष्यों में मदद की।

क्योटो प्रोटोकॉल की सफलताएं और सीमाएं (Successes and Limitations of the Kyoto Protocol)

क्योटो प्रोटोकॉल एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी क्योंकि इसने पहली बार जलवायु परिवर्तन पर कानूनी रूप से बाध्यकारी नियमों की स्थापना की। इसने कार्बन बाजार (carbon market) की अवधारणा को भी जन्म दिया। हालांकि, इसकी कुछ गंभीर सीमाएं थीं। सबसे बड़ी सीमा यह थी कि संयुक्त राज्य अमेरिका, जो उस समय दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक था, ने कभी भी प्रोटोकॉल की पुष्टि नहीं की। इसके अलावा, चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ते विकासशील देशों के लिए कोई लक्ष्य नहीं होने के कारण, यह वैश्विक उत्सर्जन के केवल एक छोटे हिस्से को ही कवर करता था।

क्योटो से पेरिस तक का सफर (The Journey from Kyoto to Paris)

क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी प्रतिबद्धता अवधि 2013 से 2020 तक चली। हालांकि, यह स्पष्ट हो गया था कि एक नए, अधिक व्यापक समझौते की आवश्यकता है जो सभी देशों को शामिल करे। क्योटो का टॉप-डाउन दृष्टिकोण, जहां लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित किए जाते थे, कई देशों के लिए स्वीकार्य नहीं था। इसने एक नए दृष्टिकोण की नींव रखी जो अंततः 2015 के पेरिस समझौते में अपनाया गया, जिसमें एक बॉटम-अप दृष्टिकोण है जहां देश अपने स्वयं के लक्ष्य निर्धारित करते हैं।

पेरिस समझौता (Paris Agreement): जलवायु परिवर्तन के खिलाफ एक वैश्विक संधि 🤝

पेरिस समझौते का ऐतिहासिक महत्व (Historical Significance of the Paris Agreement)

पेरिस समझौता एक ऐतिहासिक वैश्विक जलवायु समझौता है जिसे 12 दिसंबर 2015 को पेरिस में COP21 में 196 देशों द्वारा अपनाया गया था। यह 4 नवंबर 2016 को लागू हुआ। क्योटो प्रोटोकॉल के विपरीत, यह समझौता विकसित और विकासशील दोनों देशों पर लागू होता है। इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के खतरे के प्रति वैश्विक प्रतिक्रिया को मजबूत करना है और एक जलवायु-लचीला और कम कार्बन वाले भविष्य की दिशा में वित्तीय प्रवाह, एक नई प्रौद्योगिकी रूपरेखा और एक बढ़ी हुई क्षमता निर्माण रूपरेखा को आगे बढ़ाना है।

समझौते के मुख्य लक्ष्य (Key Goals of the Agreement)

पेरिस समझौते के तीन मुख्य लक्ष्य हैं। 🎯 पहला, वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस से काफी नीचे रखना और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयासों को आगे बढ़ाना। दूसरा, जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के अनुकूल होने की क्षमता को बढ़ाना और जलवायु लचीलापन और कम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन विकास को बढ़ावा देना। तीसरा, निम्न ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और जलवायु-लचीले विकास के रास्ते की ओर वित्त प्रवाह (finance flows) को सुसंगत बनाना।

राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions – NDCs)

पेरिस समझौते की एक प्रमुख विशेषता इसका “बॉटम-अप” दृष्टिकोण है। देशों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने स्वयं के जलवायु लक्ष्यों को निर्धारित करें और रिपोर्ट करें, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions – NDCs) के रूप में जाना जाता है। प्रत्येक देश को हर पांच साल में एक अद्यतन और अधिक महत्वाकांक्षी NDC प्रस्तुत करना होता है। यह दृष्टिकोण राष्ट्रीय परिस्थितियों और क्षमताओं का सम्मान करते हुए सार्वभौमिक भागीदारी सुनिश्चित करता है।

भारत का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (India’s Nationally Determined Contribution)

भारत ने 2015 में अपना पहला NDC प्रस्तुत किया। इसमें तीन मुख्य लक्ष्य शामिल थे: 2030 तक 2005 के स्तर से अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता (emission intensity) को 33 से 35 प्रतिशत तक कम करना; 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा संसाधनों से लगभग 40 प्रतिशत संचयी विद्युत शक्ति स्थापित क्षमता प्राप्त करना; और 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्ष आवरण के माध्यम से 2.5 से 3 बिलियन टन CO2 के बराबर एक अतिरिक्त कार्बन सिंक (carbon sink) बनाना।

भारत के अद्यतन लक्ष्य: “पंचामृत” (India’s Updated Targets: “Panchamrit”)

2021 में ग्लासगो में COP26 में, भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के जलवायु लक्ष्यों को और भी महत्वाकांक्षी बना दिया, जिसे “पंचामृत” (पांच अमृत तत्व) कहा गया। इन पांच लक्ष्यों में शामिल हैं: 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता तक पहुंचना; 2030 तक अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का 50% नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा करना; अब से 2030 तक कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करना; 2030 तक अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को 45% से कम करना; और 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन (net-zero emissions) का लक्ष्य प्राप्त करना।

पारदर्शिता और वैश्विक स्टॉकटेक (Transparency and the Global Stocktake)

पेरिस समझौता एक बढ़ी हुई पारदर्शिता रूपरेखा (Enhanced Transparency Framework – ETF) स्थापित करता है। इसके तहत, देशों को उनके द्वारा की गई कार्रवाई और प्रगति पर नियमित रूप से रिपोर्ट करना होता है। इसके अलावा, समझौता एक “वैश्विक स्टॉकटेक” (Global Stocktake) का प्रावधान करता है, जो 2023 में शुरू हुआ और हर पांच साल में होगा। यह प्रक्रिया समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में सामूहिक प्रगति का आकलन करेगी और देशों को अपनी महत्वाकांक्षा बढ़ाने के लिए सूचित करेगी।

जलवायु वित्त (Climate Finance)

पेरिस समझौता जलवायु वित्त के महत्व को स्वीकार करता है। यह विकसित देशों से विकासशील देशों को उनके शमन और अनुकूलन प्रयासों में मदद करने के लिए वित्तीय संसाधन प्रदान करने का आग्रह करता है। विकसित देशों ने 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर जुटाने की अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया और 2025 से एक नए, उच्च सामूहिक लक्ष्य पर सहमत हुए। भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अपनी महत्वाकांक्षी जलवायु योजनाओं को लागू करने के लिए पर्याप्त और अनुमानित जलवायु वित्त (climate finance) महत्वपूर्ण है।

भारत के भूगोल और विकास पर प्रभाव (Impact on India’s Geography and Development)

पेरिस समझौते के तहत भारत की प्रतिबद्धताओं का देश के भूगोल और विकास पथ पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। नवीकरणीय ऊर्जा पर जोर देने से भूमि उपयोग पैटर्न (land use patterns) में बदलाव आएगा, जिसमें बड़े सौर और पवन फार्म स्थापित होंगे। ऊर्जा दक्षता उपायों से शहरी नियोजन और भवन डिजाइन प्रभावित होंगे। वनीकरण के प्रयासों से भारत का हरित आवरण बढ़ेगा, जो जैव विविधता और जल संरक्षण के लिए फायदेमंद होगा। यह समझौता भारत को एक स्वच्छ, हरित और अधिक टिकाऊ भविष्य की ओर ले जाने का एक अवसर प्रदान करता है।

निष्कर्ष: एक सतत भविष्य के लिए सामूहिक प्रयास (Conclusion: A Collective Effort for a Sustainable Future) ✨

वैश्विक चुनौतियों के लिए वैश्विक समाधान (Global Solutions for Global Challenges)

इस विस्तृत चर्चा से यह स्पष्ट है कि हमारी दुनिया आपस में जुड़ी हुई है और हमारे सामने मौजूद कई चुनौतियाँ, विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन, किसी एक देश की सीमाओं तक सीमित नहीं हैं। इन समस्याओं से निपटने के लिए एक समन्वित और सामूहिक वैश्विक प्रयास की आवश्यकता है। अंतरराष्ट्रीय संगठन और समझौते (International Organizations & Agreements) इस प्रयास को संभव बनाने के लिए आवश्यक मंच और ढांचा प्रदान करते हैं। वे सहयोग, संवाद और संयुक्त कार्रवाई को बढ़ावा देते हैं।

भारत की महत्वपूर्ण भूमिका (India’s Crucial Role)

भारत, अपनी विशाल आबादी, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और अद्वितीय भौगोलिक विविधता के साथ, इन वैश्विक प्रयासों में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी है। संयुक्त राष्ट्र से लेकर पेरिस समझौते तक, भारत ने इन मंचों पर एक सक्रिय और रचनात्मक भूमिका निभाई है। भारत न केवल इन समझौतों से लाभान्वित होता है, बल्कि अपनी महत्वाकांक्षी नवीकरणीय ऊर्जा योजनाओं और सतत विकास पहलों के माध्यम से वैश्विक समाधानों में भी महत्वपूर्ण योगदान देता है। भारत की सफलता वैश्विक जलवायु लक्ष्यों की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है।

छात्रों और युवाओं की जिम्मेदारी (Responsibility of Students and Youth)

छात्रों और युवाओं के रूप में, इन अंतरराष्ट्रीय संगठनों और समझौतों को समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है। 🧑‍🎓👩‍🎓 आप भविष्य के नेता, वैज्ञानिक, नीति निर्माता और नागरिक हैं। इन वैश्विक प्रक्रियाओं के बारे में ज्ञान आपको सूचित निर्णय लेने, अपने समुदायों में बदलाव की वकालत करने और एक अधिक टिकाऊ और न्यायसंगत दुनिया के निर्माण में भाग लेने के लिए सशक्त बनाएगा। यह ज्ञान न केवल अकादमिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि एक जिम्मेदार वैश्विक नागरिक बनने के लिए भी आवश्यक है।

आगे की राह (The Path Forward)

आगे की राह चुनौतीपूर्ण है। पेरिस समझौते के लक्ष्य महत्वाकांक्षी हैं, और उन्हें प्राप्त करने के लिए अभूतपूर्व कार्रवाई की आवश्यकता होगी। देशों को अपने वादों को पूरा करना होगा, और विकसित देशों को विकासशील देशों को पर्याप्त वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करनी होगी। लेकिन संयुक्त राष्ट्र, UNEP, IPCC, और पेरिस समझौते जैसे संस्थानों और समझौतों ने हमें एक रोडमैप दिया है। एक साथ काम करके, हम एक ऐसे भविष्य का निर्माण कर सकते हैं जहाँ मानव विकास और एक स्वस्थ ग्रह एक साथ मौजूद हों। 🌍❤️

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