गुप्तोत्तर व हर्ष काल (Post-Gupta & Harsha Period)
गुप्तोत्तर व हर्ष काल (Post-Gupta & Harsha Period)

गुप्तोत्तर व हर्ष काल (Post-Gupta & Harsha Period)

1. गुप्तोत्तर व हर्ष परिचय (Introduction to Post-Gupta & Harsha Period) 🌟

एक नए युग का आरंभ (The Dawn of a New Era)

भारतीय इतिहास में गुप्त साम्राज्य का काल ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है, लेकिन हर साम्राज्य की तरह इसका भी पतन हुआ। लगभग छठी शताब्दी के मध्य में गुप्त साम्राज्य (Gupta Empire) के विघटन के साथ ही भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई। इस पतन के बाद जो काल आया, उसे ‘गुप्तोत्तर काल’ कहा जाता है। यह काल राजनीतिक अस्थिरता, विकेंद्रीकरण और कई छोटे-छोटे राज्यों के उदय का साक्षी बना।

अराजकता से एकता की ओर (From Anarchy to Unity)

गुप्तों के पतन से उत्पन्न राजनीतिक शून्य को भरने के लिए कई क्षेत्रीय शक्तियों ने सिर उठाया, जिससे पूरे उत्तर भारत में एक संघर्ष का माहौल बन गया। इस उथल-पुथल भरे समय में, सातवीं शताब्दी की शुरुआत में एक महान शासक का उदय हुआ, जिसने फिर से उत्तर भारत को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया। यह महान शासक कोई और नहीं, बल्कि थानेसर के पुष्यभूति वंश के हर्षवर्धन थे, जिनका शासनकाल ‘हर्ष काल’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

हर्षवर्धन का महत्व (The Significance of Harshavardhana)

हर्षवर्धन को प्राचीन भारत के अंतिम महान हिंदू सम्राट के रूप में देखा जाता है। उन्होंने न केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, बल्कि कला, साहित्य और धर्म को भी संरक्षण दिया। उनके शासनकाल ने गुप्त युग की भव्यता और मध्ययुगीन भारत के सामंती ढांचे के बीच एक सेतु का काम किया। इस लेख में, हम गुप्तोत्तर काल की राजनीतिक स्थिति, विभिन्न राज्यों के उदय और हर्षवर्धन के साम्राज्य, प्रशासन, समाज और संस्कृति का विस्तृत अध्ययन करेंगे। 🏛️

अध्ययन के स्रोत (Sources of Study)

इस काल के बारे में जानकारी के मुख्य स्रोत बाणभट्ट द्वारा रचित ‘हर्षचरित’ और चीनी यात्री ह्वेनसांग (Xuanzang) के यात्रा वृत्तांत ‘सी-यू-की’ हैं। इनके अलावा, पुरातात्विक साक्ष्य जैसे सिक्के, अभिलेख और उस काल की वास्तुकला भी हमें गुप्तोत्तर व हर्ष काल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। ये स्रोत हमें उस समय के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन की एक झलक देते हैं।

2. गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद की स्थिति (Situation after the Decline of the Gupta Empire) 📉

राजनीतिक विखंडन (Political Fragmentation)

गुप्त साम्राज्य का पतन किसी एक कारण से नहीं, बल्कि कई कारकों का परिणाम था। स्कंदगुप्त के बाद कमजोर उत्तराधिकारियों, आंतरिक कलह और विदेशी आक्रमणों ने साम्राज्य की नींव को खोखला कर दिया। परिणामस्वरूप, विशाल गुप्त साम्राज्य कई छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्यों में बिखर गया। मगध, जो कभी साम्राज्य का केंद्र था, अपना पुराना गौरव खो चुका था और राजनीतिक शक्ति का केंद्र अब कन्नौज की ओर स्थानांतरित हो रहा था।

हूणों का विनाशकारी आक्रमण (The Devastating Huna Invasion)

पांचवीं शताब्दी के अंत और छठी शताब्दी की शुरुआत में उत्तर-पश्चिमी सीमा से हूणों के बर्बर आक्रमण हुए। यद्यपि गुप्त शासक स्कंदगुप्त ने उन्हें सफलतापूर्वक खदेड़ दिया था, लेकिन उनके बाद के शासक इन आक्रमणों का सामना नहीं कर सके। हूणों ने पंजाब, राजस्थान और मध्य भारत के कुछ हिस्सों में भारी तबाही मचाई, जिससे गुप्त साम्राज्य की आर्थिक और सैन्य शक्ति को गहरा धक्का लगा। इन आक्रमणों ने राजनीतिक अस्थिरता को और बढ़ा दिया।

सामंतवाद का उदय (The Rise of Feudalism)

गुप्तकाल के अंतिम चरण में और विशेषकर गुप्तोत्तर काल में सामंतवाद (feudalism) की प्रवृत्ति मजबूत हुई। राजा अपनी शक्ति बनाए रखने के लिए बड़े-बड़े भू-भाग अपने अधिकारियों और सेनापतियों को अनुदान में देने लगे। ये सामंत अपने-अपने क्षेत्रों में लगभग स्वतंत्र शासक की तरह व्यवहार करते थे। वे कर वसूलते, अपनी सेना रखते और केंद्रीय सत्ता के कमजोर पड़ने पर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर देते थे। इस व्यवस्था ने भारत को राजनीतिक रूप से और भी अधिक विखंडित कर दिया।

आर्थिक पतन (Economic Decline)

राजनीतिक अस्थिरता का सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा। गुप्त काल में फला-फूला अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, विशेष रूप से रोमन साम्राज्य के साथ, अब लगभग समाप्त हो गया था। व्यापार मार्गों पर असुरक्षा बढ़ गई और नगरों का पतन होने लगा। अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कृषि आधारित हो गई, जिससे मुद्रा प्रणाली भी कमजोर पड़ गई। इस काल में सिक्कों की गुणवत्ता और मात्रा में भारी गिरावट देखने को मिलती है, जो आर्थिक संकट का स्पष्ट संकेत है। 📉

सामाजिक परिवर्तन (Social Changes)

गुप्तोत्तर काल में सामाजिक संरचना में भी महत्वपूर्ण बदलाव आए। वर्ण व्यवस्था और भी कठोर हो गई और नई-नई जातियों और उप-जातियों का उदय हुआ। सामंती व्यवस्था के कारण एक नए भूमिपति वर्ग का उदय हुआ, जो समाज में प्रभावशाली हो गया। इस काल में महिलाओं की स्थिति में भी गिरावट आई और सती प्रथा जैसी कुप्रथाओं का प्रचलन बढ़ने लगा। शिक्षा और ज्ञान के केंद्र, जो पहले नगरों में थे, अब मठों और विहारों तक सीमित हो गए।

3. गुप्तोत्तर राज्यों का उदय (Rise of Post-Gupta Kingdoms) 🗺️

वल्लभी के मैत्रक वंश (Maitrakas of Vallabhi)

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद पश्चिमी भारत में सौराष्ट्र (गुजरात) क्षेत्र में मैत्रक वंश ने अपनी शक्ति स्थापित की। इस वंश का संस्थापक भट्टारक था, जो गुप्तों का एक सेनापति था। उन्होंने अपनी राजधानी वल्लभी को बनाया, जो जल्द ही शिक्षा और वाणिज्य का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। वल्लभी विश्वविद्यालय (Vallabhi University) की ख्याति नालंदा के समान ही थी। इस वंश के शासकों ने ‘महाराज’ और ‘महाराजाधिराज’ जैसी उपाधियाँ धारण कीं।

कन्नौज का मौखरि वंश (Maukhari Dynasty of Kannauj)

मध्य गंगा घाटी में, कन्नौज मौखरि वंश के अधीन एक शक्तिशाली केंद्र के रूप में उभरा। इस वंश के शासक मूल रूप से गुप्तों के सामंत थे, लेकिन उन्होंने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। ईशानवर्मन इस वंश का एक शक्तिशाली शासक था, जिसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। मौखरि वंश का उत्तरवर्ती गुप्तों और गौड़ों से निरंतर संघर्ष चलता रहा। इसी वंश के अंतिम शासक ग्रहवर्मन का विवाह हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री से हुआ था।

थानेसर का पुष्यभूति वंश (Pushyabhuti Dynasty of Thanesar)

दिल्ली के उत्तर में स्थित थानेसर (आधुनिक हरियाणा) में पुष्यभूति वंश का शासन था। इस वंश के संस्थापक पुष्यभूति माने जाते हैं। इस वंश के प्रारंभिक शासक गुप्तों के सामंत थे, लेकिन प्रभाकरवर्धन के समय में यह वंश अत्यंत शक्तिशाली हो गया। प्रभाकरवर्धन ने ‘परमभट्टारक’ और ‘महाराजाधिराज’ जैसी उपाधियाँ धारण कीं। उनके दो पुत्र, राज्यवर्धन और हर्षवर्धन, तथा एक पुत्री राज्यश्री थी। यही वंश आगे चलकर उत्तर भारत की सबसे बड़ी शक्ति बना।

मगध के उत्तरवर्ती गुप्त (Later Guptas of Magadha)

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये ‘उत्तरवर्ती गुप्त’ महान गुप्त साम्राज्य के सीधे वंशज नहीं थे, बल्कि एक अलग वंश थे जिन्होंने गुप्त नाम का प्रयोग किया। इनका शासन क्षेत्र मगध और मालवा के आसपास था। इनका मौखरि वंश से लंबा और कटु संघर्ष चला। कुमारगुप्त और दामोदरगुप्त इस वंश के प्रमुख शासक थे। इनका संघर्ष अंततः इनकी शक्ति को कमजोर कर गया और ये हर्ष के साम्राज्य का हिस्सा बन गए।

बंगाल का गौड़ वंश (Gaudas of Bengal)

बंगाल में गौड़ वंश का उदय हुआ, जिसका सबसे शक्तिशाली और कुख्यात शासक शशांक था। शशांक एक अत्यंत महत्वाकांक्षी शासक था और हर्षवर्धन का कट्टर शत्रु था। उसने मालवा के शासक देवगुप्त के साथ मिलकर कन्नौज पर आक्रमण किया, मौखरि शासक ग्रहवर्मन की हत्या कर दी और राज्यश्री को बंदी बना लिया। शशांक कट्टर शैव था और बौद्ध धर्म का विरोधी माना जाता है। उसने बोधि वृक्ष को कटवाने का भी प्रयास किया था।

4. हर्षवर्धन का उदय (The Rise of Harshavardhana) 👑

एक दुखद शुरुआत (A Tragic Beginning)

हर्षवर्धन का राज्यारोहण अत्यंत नाटकीय और दुखद परिस्थितियों में हुआ। उनके पिता, प्रभाकरवर्धन, हूणों से युद्ध करते हुए बीमार पड़ गए और उनकी मृत्यु हो गई। इस खबर से दुखी होकर उनकी माता यशोमती सती हो गईं। उसी समय, मालवा के शासक देवगुप्त ने गौड़ शासक शशांक के साथ मिलकर कन्नौज पर हमला कर दिया और हर्ष के बहनोई ग्रहवर्मन की हत्या कर दी।

भाई की हत्या और बहन का अपहरण (Murder of the Brother and Abduction of the Sister)

अपने बहनोई की मृत्यु का बदला लेने के लिए हर्ष के बड़े भाई राज्यवर्धन एक विशाल सेना लेकर निकले। उन्होंने मालवा के शासक देवगुप्त को तो आसानी से पराजित कर दिया, लेकिन गौड़ शासक शशांक ने धोखे से उनकी हत्या कर दी। इस बीच, हर्ष की बहन राज्यश्री कारागार से भागकर विंध्य के जंगलों में चली गई। एक के बाद एक इन विपत्तियों ने युवा हर्षवर्धन को हिलाकर रख दिया।

सिंहासन का भार (The Burden of the Throne)

अपने भाई की मृत्यु के बाद, 606 ईस्वी में, मात्र 16 वर्ष की आयु में, हर्षवर्धन को थानेसर का सिंहासन संभालना पड़ा। यह कोई फूलों का ताज नहीं था, बल्कि कांटों से भरा था। उनके सामने अपने भाई और बहनोई की हत्या का बदला लेने और अपनी बहन को खोजने की दोहरी चुनौती थी। उन्होंने एक विशाल सेना तैयार की और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए निकल पड़े।

राज्यश्री की खोज और कन्नौज का एकीकरण (The Search for Rajyashri and Unification of Kannauj)

हर्षवर्धन सबसे पहले अपनी बहन को खोजने के लिए विंध्य के जंगलों की ओर बढ़े। बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र की मदद से, उन्होंने राज्यश्री को ठीक उस समय खोज निकाला जब वह आत्मदाह करने जा रही थीं। चूँकि कन्नौज का कोई उत्तराधिकारी नहीं था, इसलिए वहाँ के मंत्रियों ने हर्ष से ही कन्नौज का शासन संभालने का अनुरोध किया। इस प्रकार, थानेसर और कन्नौज के दो राज्य एक हो गए और हर्ष ने अपनी राजधानी थानेसर से कन्नौज स्थानांतरित कर दी, जो उस समय का एक प्रमुख राजनीतिक केंद्र था।

एक नए साम्राज्य की नींव (The Foundation of a New Empire)

कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर हर्षवर्धन ने उत्तर भारत में अपने साम्राज्य के विस्तार की शुरुआत की। उन्होंने ‘शिलादित्य’ की उपाधि धारण की और एक नए युग की शुरुआत की जिसे ‘हर्ष संवत’ (Harsha Era) कहा जाता है। उनका प्रारंभिक जीवन भले ही त्रासदियों से भरा था, लेकिन उन्होंने इन चुनौतियों को एक अवसर में बदल दिया और उत्तर भारत को फिर से राजनीतिक स्थिरता प्रदान करने का बीड़ा उठाया।

5. साम्राज्य और विस्तार (Empire and Expansion) ⚔️

उत्तर भारत पर विजय (Conquest of North India)

कन्नौज पर अधिकार करने के बाद, हर्षवर्धन ने अगले छह वर्षों तक लगातार युद्ध किए। उन्होंने एक विशाल और शक्तिशाली सेना का गठन किया, जिसमें पैदल, घुड़सवार और हाथी शामिल थे। उन्होंने ‘पंच भारत’ (Five Indies) को अपने अधीन किया, जिसमें पंजाब, कन्नौज, बंगाल, बिहार और उड़ीसा शामिल थे। उनका लक्ष्य पूरे उत्तर भारत को एक छत्र के नीचे लाना था।

शशांक से संघर्ष (Conflict with Shashanka)

हर्ष का मुख्य शत्रु बंगाल का गौड़ शासक शशांक था। हर्ष ने कामरूप (असम) के शासक भास्करवर्मन के साथ गठबंधन किया, जो शशांक का भी शत्रु था। दोनों ने मिलकर शशांक पर आक्रमण किया। हालांकि हर्ष शशांक को पूरी तरह से पराजित नहीं कर सके, लेकिन उन्होंने उसे मगध और गौड़ के कुछ हिस्सों से खदेड़ दिया। 637 ईस्वी में शशांक की मृत्यु के बाद ही हर्ष बंगाल पर पूर्ण अधिकार कर सके।

दक्षिण की ओर अभियान और पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध (Campaign towards the South and Battle with Pulakeshin II)

उत्तर भारत में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद, हर्षवर्धन ने दक्षिण की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया। उनका सामना दक्कन के शक्तिशाली चालुक्य वंश के शासक पुलकेशिन द्वितीय (Pulakeshin II) से हुआ। दोनों सेनाओं के बीच नर्मदा नदी के तट पर एक भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में हर्षवर्धन को पराजय का सामना करना पड़ा। यह हर्ष के सैन्य जीवन की एकमात्र बड़ी हार थी, जिसने उनके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा को नर्मदा नदी तक सीमित कर दिया। इस विजय का उल्लेख पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख (Aihole Inscription) में मिलता है।

साम्राज्य की सीमाएँ (Boundaries of the Empire)

हर्षवर्धन का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पूर्व में गंजम (उड़ीसा) से लेकर पश्चिम में वल्लभी (गुजरात) तक फैला हुआ था। हालांकि कश्मीर, सिंध, और नेपाल उनके प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं थे, लेकिन माना जाता है कि इन क्षेत्रों के शासक उनकी अधीनता स्वीकार करते थे। उनका साम्राज्य गुप्तों के साम्राज्य जितना विशाल तो नहीं था, लेकिन उस समय यह उत्तर भारत का सबसे बड़ा और शक्तिशाली साम्राज्य था। 🗺️

कूटनीतिक संबंध (Diplomatic Relations)

हर्षवर्धन एक कुशल कूटनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने चीन के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए। 641 ईस्वी में उन्होंने अपना एक दूत चीन के तांग सम्राट के दरबार में भेजा। जवाब में, चीनी सम्राट ने भी अपने दूत भारत भेजे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग (Xuanzang) भी हर्ष के शासनकाल में ही भारत आए थे और उन्होंने हर्ष के दरबार में काफी समय बिताया। इन संबंधों से सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान को बढ़ावा मिला।

6. प्रशासन (Administration) 🏛️

केंद्रीकृत राजतंत्र (Centralized Monarchy)

हर्षवर्धन का प्रशासन गुप्तकालीन प्रशासन पर आधारित था, लेकिन इसमें सामंती तत्व अधिक प्रबल थे। शासन का सर्वोच्च अधिकारी सम्राट स्वयं होता था, और सभी शक्तियाँ उसी में निहित थीं। वह ‘महाराजाधिराज’, ‘परमभट्टारक’, ‘परमेश्वर’ और ‘चक्रवर्ती’ जैसी भव्य उपाधियाँ धारण करता था। हर्ष एक परिश्रमी शासक था और वह स्वयं राज्य के विभिन्न हिस्सों का दौरा करके प्रशासन का निरीक्षण करता था।

मंत्रिपरिषद की भूमिका (Role of the Council of Ministers)

राजा को सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद (Council of Ministers) होती थी, लेकिन अंतिम निर्णय राजा का ही होता था। बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ में कई प्रमुख अधिकारियों का उल्लेख मिलता है, जैसे – अवन्ति (युद्ध और शांति मंत्री), सिंहनाद (प्रधान सेनापति), और भंडी (प्रधान सचिव)। ये अधिकारी राजा को प्रशासनिक कार्यों में सहायता प्रदान करते थे और राज्य की नीतियों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।

प्रांतीय और स्थानीय प्रशासन (Provincial and Local Administration)

हर्ष का साम्राज्य कई प्रांतों में विभाजित था, जिन्हें ‘भुक्ति’ कहा जाता था। प्रत्येक भुक्ति का प्रमुख ‘उपरिक’ या ‘राज्यपाल’ होता था। भुक्तियों को आगे जिलों में विभाजित किया गया था, जिन्हें ‘विषय’ कहा जाता था, और इसका प्रमुख ‘विषयपति’ होता था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ‘ग्राम’ (village) थी, जिसका मुखिया ‘ग्रामिक’ या ‘ग्राम्याध्यक्ष’ कहलाता था। ग्राम सभाएँ स्थानीय मामलों में काफी हद तक स्वायत्त थीं।

राजस्व प्रणाली (Revenue System)

राज्य की आय का मुख्य स्रोत भू-राजस्व (land revenue) था, जिसे ‘भाग’ कहा जाता था। यह उपज का 1/6 हिस्सा होता था। इसके अलावा, ‘भोग’ (राजा को दिए जाने वाले फल-फूल) और ‘कर’ (नकद में लिया जाने वाला कर) भी थे। ह्वेनसांग के अनुसार, राजकीय भूमि को चार भागों में बांटा गया था: एक भाग सरकारी खर्च के लिए, दूसरा सार्वजनिक अधिकारियों के वेतन के लिए, तीसरा विद्वानों को पुरस्कृत करने के लिए, और चौथा धार्मिक कार्यों के लिए दान में दिया जाता था।

न्याय और दंड विधान (Justice and Penal Code)

ह्वेनसांग के अनुसार, हर्ष का दंड विधान गुप्तों की तुलना में अधिक कठोर था। अपराधों के लिए कठोर दंड दिए जाते थे, जैसे कि अंग-भंग और देश निकाला। हालांकि, न्याय प्रणाली सुव्यवस्थित थी और राजा स्वयं न्याय का सर्वोच्च स्रोत था। कानूनों का उल्लंघन करने वालों से कड़ाई से निपटा जाता था ताकि राज्य में शांति और व्यवस्था बनी रहे। इसके बावजूद, ह्वेनसांग को अपनी यात्रा के दौरान कई बार लुटेरों का सामना करना पड़ा था, जो दर्शाता है कि राजमार्ग पूरी तरह सुरक्षित नहीं थे।

सैन्य संगठन (Military Organization)

हर्षवर्धन ने एक विशाल और सुसंगठित सेना बनाए रखी थी, जो उसके साम्राज्य का आधार थी। उसकी सेना में पैदल (पदाति), घुड़सवार (अश्वारोही), रथ और हाथी (गजसेना) शामिल थे। ह्वेनसांग के अनुसार, हर्ष की सेना में 60,000 हाथी और 1,00,000 घुड़सवार थे। सेना का वेतन नकद के बजाय भूमि अनुदान के रूप में दिया जाता था, जो सामंती व्यवस्था को और मजबूत करता था। सेनापति को ‘महाबलाधिकृत’ या ‘सिंहनाद’ कहा जाता था।

7. समाज (Society) 👨‍👩‍👧‍👦

वर्ण व्यवस्था की कठोरता (Rigidity of the Varna System)

हर्ष के काल में वर्ण व्यवस्था (Varna system) पहले से कहीं अधिक कठोर हो गई थी। समाज चार मुख्य वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – में विभाजित था। ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और उन्हें शिक्षा और धार्मिक अनुष्ठानों का अधिकार था। क्षत्रिय शासक और योद्धा वर्ग थे। वैश्य व्यापार और कृषि में लगे थे, जबकि शूद्रों का कार्य अन्य तीन वर्णों की सेवा करना था।

जातियों और उप-जातियों का उदय (Emergence of Castes and Sub-castes)

इस काल में अनेक नई जातियों और उप-जातियों का उदय हुआ। इसका एक प्रमुख कारण विभिन्न जनजातियों का हिंदू समाज में विलय और विभिन्न पेशों पर आधारित समूहों का जातियों में बदलना था। कायस्थ (लिपिकों की जाति) जैसी नई जाति का उदय इसी काल में हुआ। अंतर्जातीय विवाह और खान-पान पर कड़े प्रतिबंध थे, जिससे सामाजिक गतिशीलता कम हो गई।

महिलाओं की स्थिति में गिरावट (Decline in the Status of Women)

गुप्तोत्तर काल में महिलाओं की स्थिति में गिरावट जारी रही। बाल विवाह (child marriage) और सती प्रथा का प्रचलन बढ़ गया था। हर्ष की माता यशोमती का सती होना इसका एक प्रमुख उदाहरण है। विधवा पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी और महिलाओं को आमतौर पर शिक्षा से वंचित रखा जाता था। हालांकि, राजघरानों की महिलाओं, जैसे राज्यश्री, को कुछ स्वतंत्रता और शिक्षा प्राप्त थी, लेकिन आम महिलाओं की स्थिति दयनीय थी।

शिक्षा का केंद्र – नालंदा विश्वविद्यालय (Center of Education – Nalanda University)

इस काल में शिक्षा का सबसे प्रसिद्ध केंद्र नालंदा महाविहार या नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University) था। यह महायान बौद्ध धर्म की शिक्षा का एक अंतरराष्ट्रीय केंद्र था, जहाँ भारत के अलावा चीन, तिब्बत, और दक्षिण-पूर्व एशिया से भी छात्र और विद्वान आते थे। ह्वेनसांग ने स्वयं यहाँ कई वर्षों तक अध्ययन किया। यहाँ धर्म, दर्शन, तर्कशास्त्र, चिकित्सा और व्याकरण जैसे विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इस विश्वविद्यालय का खर्च गांवों से मिलने वाले राजस्व से चलता था। 🎓

खान-पान और वेश-भूषा (Food, Drink, and Attire)

ह्वेनसांग के अनुसार, लोग सादा जीवन जीते थे। आम लोगों का मुख्य भोजन गेहूं, चावल, दूध और फल थे। प्याज और लहसुन का प्रयोग कम होता था। ब्राह्मण और बौद्ध भिक्षु मांस और मदिरा से परहेज करते थे, लेकिन क्षत्रिय वर्ग में इनका प्रचलन था। लोग सूती, रेशमी और ऊनी वस्त्र पहनते थे। पुरुष धोती और उत्तरीय (शॉल) पहनते थे, जबकि महिलाएँ साड़ी और चोली पहनती थीं। आभूषणों का शौक पुरुषों और महिलाओं दोनों को था।

8. अर्थव्यवस्था (Economy) 💹

कृषि आधारित अर्थव्यवस्था (Agriculture-based Economy)

हर्ष के काल में अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित थी। भूमि बहुत उपजाऊ थी और सिंचाई के साधनों का भी विकास हुआ था। चावल, गेहूं और जौ मुख्य फसलें थीं। बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ में विभिन्न फसलों और सिंचाई तकनीकों का उल्लेख मिलता है। राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भी भू-राजस्व ही था, जो यह दर्शाता है कि कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी।

व्यापार और वाणिज्य में गिरावट (Decline in Trade and Commerce)

गुप्त काल की तुलना में इस काल में व्यापार और वाणिज्य में गिरावट आई। रोमन साम्राज्य के पतन के बाद भारत का पश्चिमी देशों के साथ होने वाला लाभकारी व्यापार समाप्त हो गया था। आंतरिक व्यापार भी सामंती व्यवस्था और राजनीतिक अस्थिरता के कारण प्रभावित हुआ। व्यापार मार्गों की असुरक्षा और कई स्थानीय करों ने व्यापारियों के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं।

शहरी केंद्रों का पतन (Decline of Urban Centers)

व्यापार में गिरावट का सीधा असर शहरी केंद्रों पर पड़ा। कई पुराने और समृद्ध शहर, जैसे पाटलिपुत्र, अपना महत्व खो रहे थे और उनका पतन हो रहा था। ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा में कई नगरों को उजड़ी हुई अवस्था में पाया। हालाँकि, कन्नौज और थानेसर जैसे नए राजनीतिक केंद्र समृद्ध हो रहे थे, लेकिन कुल मिलाकर शहरीकरण की प्रक्रिया धीमी पड़ गई थी।

भूमि अनुदान प्रणाली (Land Grant System)

इस काल की एक प्रमुख विशेषता भूमि अनुदान (land grants) प्रणाली का बढ़ना था, जिसे अग्रहार भी कहा जाता था। राजा ब्राह्मणों, मंदिरों, मठों और अपने अधिकारियों को वेतन के बदले भूमि दान में देते थे। इन भूमियों पर प्राप्तकर्ता को कर वसूलने का अधिकार मिल जाता था। इस प्रणाली ने एक शक्तिशाली भूमिपति वर्ग को जन्म दिया और सामंती अर्थव्यवस्था को मजबूत किया। इससे किसानों की स्थिति कमजोर हुई क्योंकि वे सीधे राज्य के बजाय स्थानीय सामंतों के अधीन हो गए।

मुद्रा प्रणाली का ह्रास (Decline of the Monetary System)

आर्थिक गिरावट का एक और प्रमाण मुद्रा प्रणाली का ह्रास है। इस काल में सिक्कों की कमी देखी जाती है। जो सिक्के मिले हैं, वे गुप्तकालीन सिक्कों की तुलना में गुणवत्ता में बहुत खराब हैं और उनमें मिलावट भी अधिक है। व्यापार में गिरावट और एक बंद, आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास के कारण सिक्कों का प्रचलन कम हो गया और वस्तु विनिमय प्रणाली (barter system) का महत्व बढ़ गया।

9. धर्म और संस्कृति (Religion and Culture) 🙏

धार्मिक सहिष्णुता की नीति (Policy of Religious Tolerance)

हर्षवर्धन के काल में भारत में तीन प्रमुख धर्म – ब्राह्मण (हिंदू) धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म प्रचलित थे। हर्ष ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई और सभी धर्मों का सम्मान किया। उसके साम्राज्य में शैव, वैष्णव और बौद्ध अनुयायी शांतिपूर्वक रहते थे। राज्य किसी एक धर्म को बढ़ावा नहीं देता था, बल्कि सभी को समान रूप से संरक्षण प्रदान करता था।

हर्षवर्धन की व्यक्तिगत आस्था (Personal Faith of Harshavardhana)

हर्ष के पूर्वज भगवान शिव के उपासक थे, और हर्ष स्वयं भी अपने शासनकाल के शुरुआती वर्षों में एक कट्टर शैव था। वह प्रतिदिन शिव की पूजा करता था। हालांकि, अपनी बहन राज्यश्री और चीनी यात्री ह्वेनसांग के प्रभाव में आने के बाद उसका झुकाव महायान बौद्ध धर्म (Mahayana Buddhism) की ओर हो गया। बाद के जीवन में उसने बौद्ध धर्म को उदारतापूर्वक दान दिया, लेकिन उसने अपने पुराने देवता शिव की पूजा करना नहीं छोड़ा।

कन्नौज की धर्म सभा (The Religious Assembly at Kannauj)

643 ईस्वी में, हर्षवर्धन ने ह्वेनसांग के सम्मान में और महायान बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए कन्नौज में एक विशाल धर्म सभा का आयोजन किया। इस सभा में 20 से अधिक राजाओं, हजारों बौद्ध, जैन और ब्राह्मण विद्वानों ने भाग लिया। सभा की अध्यक्षता ह्वेनसांग ने की। यह सभा पांच दिनों तक चली और इसमें विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक विषयों पर बहस हुई, जो हर्ष की धार्मिक उदारता का प्रतीक है।

प्रयाग की महामोक्ष परिषद् (The Mahamoksha Parishad at Prayag)

हर्षवर्धन प्रत्येक पांच वर्ष के अंतराल पर गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम स्थल प्रयाग (इलाहाबाद) में एक विशाल सभा का आयोजन करता था, जिसे ‘महामोक्ष परिषद्’ कहा जाता था। ह्वेनसांग ने ऐसी छठी सभा में भाग लिया था। इस अवसर पर हर्ष अपनी पांच साल की संचित संपत्ति को बुद्ध, सूर्य और शिव की पूजा करने के बाद ब्राह्मणों, भिक्षुओं, विद्वानों और गरीबों में दान कर देता था। वह अपने वस्त्र और आभूषण तक दान कर देता था और अपनी बहन से साधारण वस्त्र मांगकर पहनता था। 🕊️

बौद्ध धर्म की स्थिति (The State of Buddhism)

हर्ष के समय तक बौद्ध धर्म अपने पतन की ओर अग्रसर था, लेकिन हर्ष के संरक्षण के कारण इसे एक नई ऊर्जा मिली। विशेषकर महायान शाखा काफी लोकप्रिय थी। नालंदा विश्वविद्यालय महायान शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र था। ह्वेनसांग के अनुसार, उस समय भारत में कई बौद्ध मठ और विहार थे, लेकिन कई पुराने बौद्ध स्थल खंडहर में बदल रहे थे, जो इसके घटते प्रभाव का संकेत था।

10. साहित्य (Literature) 📚

हर्षवर्धन एक साहित्यकार के रूप में (Harshavardhana as a Litterateur)

सम्राट हर्षवर्धन न केवल साहित्य का महान संरक्षक था, बल्कि स्वयं भी एक उच्च कोटि का विद्वान और नाटककार था। उसने संस्कृत में तीन प्रसिद्ध नाटकों की रचना की – ‘नागानन्द’, ‘रत्नावली’, और ‘प्रियदर्शिका’। ‘नागानन्द’ एक बौद्ध कथा पर आधारित है, जबकि ‘रत्नावली’ और ‘प्रियदर्शिका’ प्रेम कहानियों पर आधारित रोमांटिक नाटक हैं। इन रचनाओं से उसकी साहित्यिक प्रतिभा और सुरुचि का पता चलता है।

बाणभट्ट और उनकी रचनाएँ (Banabhatta and His Works)

बाणभट्ट, हर्षवर्धन के राजदरबारी कवि (court poet) थे और संस्कृत गद्य के महानतम लेखकों में से एक माने जाते हैं। उन्होंने दो प्रमुख ग्रंथों की रचना की – ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’। ‘हर्षचरित’ हर्षवर्धन की जीवनी है, जो हमें उस काल के राजनीतिक और सामाजिक जीवन के बारे में बहुमूल्य जानकारी देती है। ‘कादम्बरी’ को दुनिया के शुरुआती उपन्यासों में से एक माना जाता है और यह अपनी जटिल कहानी और अलंकृत शैली के लिए प्रसिद्ध है।

ह्वेनसांग का यात्रा वृत्तांत (Travelogue of Xuanzang)

चीनी यात्री ह्वेनसांग का यात्रा वृत्तांत ‘सी-यू-की’ (पश्चिमी दुनिया का रिकॉर्ड) भी इस काल का एक अमूल्य साहित्यिक और ऐतिहासिक स्रोत है। उसने भारत में अपनी 15 साल की यात्रा के दौरान जो कुछ भी देखा और अनुभव किया, उसका विस्तृत वर्णन किया है। उसने हर्ष के साम्राज्य, प्रशासन, नालंदा विश्वविद्यालय, भारतीय समाज, धर्म और रीति-रिवाजों का सजीव चित्रण किया है। यह ग्रंथ हमें एक विदेशी की नजर से तत्कालीन भारत को देखने का अवसर प्रदान करता है।

अन्य साहित्यिक कृतियाँ (Other Literary Works)

इस काल में अन्य विद्वानों ने भी साहित्य में योगदान दिया। मयूर नामक कवि ने ‘सूर्यशतक’ की रचना की, जिसमें सूर्य देव की स्तुति में 100 श्लोक हैं। भतृहरि, जिन्हें कुछ विद्वान हर्ष का समकालीन मानते हैं, ने ‘नीति शतक’, ‘श्रृंगार शतक’ और ‘वैराग्य शतक’ की रचना की। इस काल में संस्कृत भाषा साहित्य और ज्ञान की भाषा बनी रही और कन्नौज साहित्यिक गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र था।

11. कला और स्थापत्य (Art and Architecture) 🎨

गुप्तकालीन शैली की निरंतरता (Continuation of Gupta Style)

हर्ष के काल की कला और स्थापत्य में गुप्तकालीन शैली की निरंतरता दिखाई देती है, लेकिन उसमें वह मौलिकता और उत्कृष्टता नहीं थी जो गुप्त काल की विशेषता थी। इस काल में कला का स्तर धीरे-धीरे गिर रहा था। स्थापत्य कला में पत्थर की जगह ईंटों का प्रयोग अधिक होने लगा था। फिर भी, इस काल में कुछ महत्वपूर्ण मंदिरों और मठों का निर्माण हुआ।

मंदिर वास्तुकला (Temple Architecture)

इस काल के अधिकांश स्मारक अब नष्ट हो चुके हैं। जो कुछ बचे हैं, उनमें उत्तर प्रदेश के कानपुर में स्थित भीतरगांव का ईंटों से बना मंदिर और सिरपुर (छत्तीसगढ़) का लक्ष्मण मंदिर उल्लेखनीय हैं। ये मंदिर गुप्तकालीन नागर शैली (Nagara style) के विकसित रूप को दर्शाते हैं। इन मंदिरों की दीवारों पर पौराणिक कथाओं और देवी-देवताओं का सुंदर चित्रण किया गया है, जो उस समय की धार्मिक आस्थाओं को दर्शाता है।

मूर्तिकला और चित्रकला (Sculpture and Painting)

मूर्तिकला में भी गुप्तकालीन प्रभाव स्पष्ट है। सारनाथ शैली की बुद्ध मूर्तियाँ इस काल में भी बनती रहीं, लेकिन उनमें पहले जैसी सजीवता और आध्यात्मिकता का अभाव था। नालंदा और सुल्तानगंज से प्राप्त बुद्ध की मूर्तियाँ इस काल की मूर्तिकला के सुंदर उदाहरण हैं। चित्रकला के क्षेत्र में अजंता और बाघ की गुफाओं की परंपरा जारी रही, लेकिन इस काल की चित्रकला के बहुत कम अवशेष उपलब्ध हैं।

नालंदा महाविहार का स्थापत्य (Architecture of Nalanda Mahavihara)

नालंदा महाविहार इस काल के स्थापत्य का सबसे भव्य उदाहरण था। यह एक विशाल परिसर था जिसमें कई मठ, मंदिर (चैत्य), और व्याख्यान कक्ष थे। इसका निर्माण लाल ईंटों से किया गया था और यह एक सुनियोजित योजना के अनुसार बनाया गया था। ह्वेनसांग ने इसकी भव्यता का विस्तार से वर्णन किया है। नालंदा न केवल एक शिक्षा केंद्र था, बल्कि कला और स्थापत्य का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र था, जिसने पूरे एशिया की कला को प्रभावित किया। 🏛️

12. ऐतिहासिक महत्व (Historical Significance) ⏳

प्राचीन भारत का अंतिम महान सम्राट (The Last Great Emperor of Ancient India)

हर्षवर्धन को अक्सर प्राचीन भारत के अंतिम महान हिंदू सम्राट के रूप में याद किया जाता है। उन्होंने गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद फैली राजनीतिक अराजकता को समाप्त कर उत्तर भारत को एक बार फिर से एक शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता के अधीन एकीकृत किया। उनकी मृत्यु के बाद, उत्तर भारत एक बार फिर कई छोटे-छोटे राजपूत राज्यों में विभाजित हो गया और अगले कई सौ वर्षों तक कोई भी शासक उस तरह की एकता स्थापित नहीं कर सका।

एक संक्रमणकालीन युग (A Transitional Era)

गुप्तोत्तर व हर्ष काल भारतीय इतिहास में एक संक्रमणकालीन युग का प्रतिनिधित्व करता है। यह काल प्राचीन भारत की शास्त्रीय परंपराओं और मध्ययुगीन भारत की नई सामंती प्रवृत्तियों के बीच एक कड़ी है। इस काल में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संरचना में वे बदलाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं, जिन्होंने आने वाले मध्ययुग की नींव रखी। सामंतवाद का उदय इस युग की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी।

ऐतिहासिक स्रोतों का महत्व (Importance of Historical Sources)

यह काल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके बारे में जानकारी देने वाले स्रोत, विशेष रूप से बाणभट्ट का ‘हर्षचरित’ और ह्वेनसांग का ‘सी-यू-की’, अत्यंत विस्तृत और विश्वसनीय हैं। ‘हर्षचरित’ किसी भारतीय सम्राट पर लिखी गई पहली ऐतिहासिक जीवनी है, जिसने बाद के लेखकों के लिए एक मिसाल कायम की। इन स्रोतों के बिना, हर्ष और उसके युग के बारे में हमारी समझ बहुत अधूरी होती। ये ग्रंथ हमें 7वीं शताब्दी के भारत की एक जीवंत तस्वीर प्रदान करते हैं।

सांस्कृतिक विरासत (Cultural Legacy)

हर्षवर्धन की सांस्कृतिक विरासत भी बहुत महत्वपूर्ण है। एक शासक और एक विद्वान के रूप में, उन्होंने साहित्य और शिक्षा को बहुत संरक्षण दिया। उनके द्वारा रचित नाटक आज भी संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधि हैं। नालंदा विश्वविद्यालय उनके संरक्षण में अपने गौरव के शिखर पर पहुंचा। उनकी प्रयाग की महामोक्ष परिषद् और कन्नौज की धर्म सभा उनकी उदारता और सर्वधर्म समभाव की नीति के प्रतीक हैं, जो भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है।

13. निष्कर्ष (Conclusion) ✨

एक मिले-जुले युग का सारांश (Summary of a Mixed Era)

गुप्तोत्तर व हर्ष काल भारतीय इतिहास का एक जटिल और बहुआयामी चरण था। यह एक ओर तो राजनीतिक विखंडन, आर्थिक पतन और सामाजिक कठोरता का काल था, तो दूसरी ओर हर्षवर्धन जैसे महान शासक के उदय का भी साक्षी बना, जिसने अस्थायी रूप से ही सही, उत्तर भारत में शांति और व्यवस्था स्थापित की। यह एक ऐसा युग था जहाँ गुप्त काल की शास्त्रीय परंपराएं धीरे-धीरे समाप्त हो रही थीं और मध्ययुगीन भारत की नई प्रवृत्तियां जन्म ले रही थीं।

हर्षवर्धन का मूल्यांकन (Evaluation of Harshavardhana)

हर्षवर्धन निस्संदेह एक महान विजेता, एक कुशल प्रशासक और कला एवं साहित्य का उदार संरक्षक था। उसने अपने साहस और दृढ़ संकल्प से एक बिखरे हुए क्षेत्र को एक साम्राज्य में बदल दिया। हालाँकि, वह गुप्त शासकों की तरह एक स्थायी और एकीकृत साम्राज्य की नींव नहीं रख सका। उसकी प्रशासनिक व्यवस्था सामंती तत्वों पर बहुत अधिक निर्भर थी, जिसके कारण उसकी मृत्यु के तुरंत बाद उसका साम्राज्य ताश के पत्तों की तरह बिखर गया।

इतिहास में स्थान (Place in History)

अंततः, गुप्तोत्तर व हर्ष काल को प्राचीन भारतीय सभ्यता के गौरवशाली अध्याय के अंत और एक नए, अधिक जटिल और क्षेत्रीयकृत मध्ययुग की शुरुआत के रूप में देखा जाना चाहिए। हर्षवर्धन का शासन इस संक्रमण काल का उच्चतम बिंदु था, एक आखिरी प्रयास जिसके द्वारा शास्त्रीय युग की एकता और भव्यता को फिर से स्थापित करने की कोशिश की गई। यह काल हमें सिखाता है कि इतिहास में परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है, जहाँ पुराने का पतन नए के उदय का मार्ग प्रशस्त करता है। 🎓🧠

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